कहते हैं कि कोर्ट कचहरी के चक्कर लगाने हैं तो लोहे की चप्पल बनवा लें. सीधी-साधी चप्पल कब इस सफर में दम तोड़ देगी, आपको पता भी नहीं लगेगा. अब खुद सीजेआई दीपक मिश्रा भी इस लंबे सफर को लेकर चिंतित हैं. अदालतों में लंबित मामलों को लेकर उन्होंने सभी हाई कोर्ट्स के जजों की एक मीटिंग बुलाई है. इस मीटिंग में सभी मिलकर सोचेंगे कि देश में लंबित पड़े कोर्ट केसेज को कैसे जल्दी से जल्दी सुलझाया जाए. लोगों को समय रहते न्याय मिल सके. वैसे 1963 में मार्टिन लूथर किंग ने जब ‘जस्टिस डीलेड इज़ जस्टिस डिनाइड’ जैसा फ्रेज़ दिया था, तब वे जानते थे कि अदालती सफर कितना दर्दनाक होता है. उनके ‘लेटर फ्रॉम बर्मिंघम जेल’ में इस फ्रेज़ का इस्तेमाल एक नामचीन ज्यूरी के संदर्भ में किया गया था. सालों-साल बाद किसी दूसरे देश के लिए भी उनका यह फ्रेज़ कितना सटीक है. मतलब देर से मिला न्याय, दरअसल अन्याय ही है. ऐसा अन्याय कितने ही लोगों के साथ होता है.


तारीख पे तारीख


मामले अदालतों में सालों साल लटके रहते हैं. तारीखें पड़ती रहती हैं, और ‘तारीख पे तारीख’जैसे बॉलिवुडिया डायलॉग हिट होते रहते हैं. अप्रैल 2018 तक का सरकारी डेटा कहता है कि सुप्रीम कोर्ट, हाई कोर्ट्स और सबऑर्डिटनेट कोर्ट्स (डिस्ट्रिक्ट कोर्ट्स सहित) में तीन करोड़ से अधिक मामले पेंडिंग हैं. इनमें सबऑर्डिटनेट कोर्ट्स में सबसे ज्यादा 86% केस पेंडिंग हैं. हाई कोर्ट्स में 13.8% और सुप्रीम कोर्ट में 0.2% मामले पेंडिंग हैं.  इसमें एक दिलचस्प बात यह है कि 2006 की तुलना में 2016 में अदालतों में मामलों का निपटारा भी तेजी से हुआ है. सुप्रीम कोर्ट में 57,000 के मुकाबले 76,000, हाई कोर्ट्स में 14.4 लाख के मुकाबले 16 लाख और सबऑर्डिटनेट कोर्ट्स में 1.6 करोड़ के मुकाबले 1.9 करोड़ मामले निपटाए गए हैं. फिर भी पेंडिंग मामलों में तेजी से बढ़ोतरी हुई है.


साल 2017 में 23% पद खाली


पेंडिंग मामलों का एक नुकसान क्या होता है? 2015 के भारतीय प्रिजन स्टैटिस्टिक्स कहते हैं कि लंबे समय तक केस पेंडिंग रहने से जेलों में रहने वाले अंडर ट्रायल कैदियों की संख्या भी बढ़ती है. अंडर ट्रायल मतलब वे आरोपी कैदी जो मुकदमे का इंतजार कर रहे हैं. 2015 में जेलों में चार लाख से ज्यादा कैदी बंद थे. इनमें 2.8 लाख यानी दो तिहाई अंडर ट्रायल थे. बाकी एक तिहाई दोष सिद्ध अपराधी थे. सीजेआई से पहले 2017-18 के इकोनॉमिक सर्वे में सरकार खुद इस मुद्दे पर चिंता जाहिर कर चुकी है. वह कह चुकी है कि कानूनी व्यवस्था में अनिर्णय और विलंब के कारण आर्थिक गतिविधियां प्रभावित होती हैं. जो मामले कमर्शियल हैं, उनका तो बिजनेस और निवेश पर भी बहुत असर होता है. अदालतों में आर्थिक मामलों (कंपनी, मध्यस्थता और टैक्सेशन के मामले) में देरी के कारण प्रॉजेक्ट्स रुकते हैं, कानूनी खर्चा बढ़ता है, टैक्स रेवेन्यू पर असर होता है और निवेश में गिरावट होती है. पावर, सड़क और रेलवे प्रॉजेक्ट्स में देरी से लागत में लगभग 60% बढ़ोतरी हो जाती है. यह कारोबारी सुगमता के लिहाज से भी गड़बड़ है. भला आपके यहां कौन बिजनेस करना आना चाहेगा, जब मुकदमेबाजी में इतने पेंच हैं. विश्व बैंक की ईज़ ऑफ डूइंग बिजनेस रिपोर्ट 2018 में भारत ने 30 स्थानों की छलांग के साथ 100 वें स्थान पर अपनी जगह बनाई है. कमर्शियल अदालतों में पेंडिंग केसेज़ को देखते हुए हाल ही में सरकार एक विधेयक लेकर आई है जिसमें कमर्शियल अदालतों और हाई कोर्ट्स की कमर्शियल डिविजन्स के आर्थिक क्षेत्राधिकार को एक करोड़ रुपए से घटाकर तीन लाख रुपए किया गया है. अदालतों में मामलों के लटकने के बहुत से कारण हैं. सबसे पहले तो अदालतों में जजों की संख्या कम है. सुप्रीम कोर्ट के कोर्ट न्यूज के जनवरी से मार्च, 2017 तक के आंकड़े कहते हैं कि हाई कोर्ट्स में जजों के 41% और सबऑर्डिटनेट कोर्ट्स में 23% पद खाली थे. इस बारे में 2015 की विधि और न्याय संबंधी स्थायी समिति ने सुझाव दिया था कि कोर्ट्स में जजों की संख्या दोगुनी की जा सकती है.


इस बारे में 2015 में लॉ कमीशन ने भी कई सुझाव दिए थे. कमीशन ने इंग्लैंड और सिंगापुर की कमर्शियल अदालतों की स्टडी की थी और सुझाव दिया था कि भारत में कानूनी प्रक्रिया में सुधार की जरूरत है. जैसे विभिन्न पार्टियां बार बार एडजर्नमेंट यानी स्थगन की मांग करती हैं तो भी कोर्ट्स में पेंडिंग केस बढ़ते जाते हैं. इस बारे में स्थायी समिति ने कहा था कि अगर कोई पार्टी एक सीमा से अधिक बार एडजर्नमेंट की मांग करे तो उसकी एवज में उनसे कीमत वसूली जाए. यूं सीजेआई ने अदालतों में इंफ्रास्ट्रक्चर की कमी को भी पेंडिंग मामलों का एक बहुत बड़ा कारण बताया है. उनका कहना है कि केसों के बैकलॉग की एक वजह यह भी है कि निचली अदालतों में कोर्ट रूम्स पर्याप्त संख्या में नहीं हैं और न ही पूरा इंफ्रास्ट्रक्चर है.


महाराष्ट्र और झारखंड की सरकार ने शुरू किया नया सिस्टम


इस संबंध में महाराष्ट्र और झारखंड में कुछ अच्छी पहल की गई है. महाराष्ट्र की राज्य सरकार ने एक नया केस मैनेजमेंट सिस्टम शुरू किया है जिससे 125 करोड़ रुपए की बचत हो सकती है. बस करना यह है कि केसों को सिस्टमैटिकली मैनेज करना है. इससे किसी केस की बार-बार सुनवाई से बचा जा सकता है. मामले भी जल्दी सुलझ सकते हैं. अनुमान है कि एक आदमी को एक दिन की अदालती सुनवाई में आने के लिए औसत 1049 रुपए खर्च करने पड़ते हैं. अगर सुनवाई जल्दी पूरी होगी तो ये पैसे भी बच सकते हैं. इसके अलावा झारखंड में निचली अदालतें टॉप प्रायोरिटी पर क्रिमिनल केसों को सुलझा रही हैं. जैसे पिछले साल जून में लिंचिंग के शिकार अलीमुद्दीन अंसारी के हत्या के आरोपी 11 लोगों को नौ महीने के अंदर सजा सुना दी गई.


पिछले साल अक्टूबर से जून तक झारखंड की 26 जिला अदालतों ने 356 मामलों के ट्रायल पूरे कर लिए. कई साल पहले सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जज मार्कंडेय काटजूने एक आर्टिकल ‘...ज्यूडीशियरी इज सिंकिंग अंडर द बर्डन ऑफ पेंडिंग केसेज़’ में कहा था कि जितने मामले अदालतों में पेंडिंग हैं, उन्हें सुलझाने के लिए अदालतों को कुल 360 साल लग जाएंगे- वह भी तब, जब नए केस दर्ज नहीं किए जाते. खुद काटजू ने अपने कार्यकाल में दो ऐसे ऐतिहासिक मामले सुलझाए थे. इनमें से एक मामला 1947 का था, दूसरा 1957 का. इन दोनों मामलों पर 2007 में फैसला सुनाया गया था. पचासियों साल चलने वाले मामलों में किसे न्याय मिला, पता नहीं. हां, न्यायिक व्यवस्था पर अगर देशवासियों का भरोसा कायम है तो यह भी कोई कम बड़ी बात नहीं है. अब सीजेआई की पहल से कोई रास्ता निकलेगा, ऐसी उम्मीद की जा सकती है


(नोट- उपरोक्त दिए गए विचार व आंकड़े लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज ग्रुप सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.)