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आखिर कौन लांघ रहा है संविधान की 'लक्ष्मण रेखा'?

Judiciary vs Executive:  हमारे देश के लोकतंत्र के चार स्तंभों में से दो सबसे महत्वपूर्ण स्तंभ हैं- कार्यपालिका और न्यायपालिका, यानी संसद और न्यायालय. एक खम्बा कानून बनाता है, जबकि दूसरा उसे लागू करते हुए ये भी देखता है कि कहीं कोई बेगुनाह फांसी के फंदे पर तो नहीं लटक रहा है. जरा सोचिये कि लोकतंत्र के इन दोनों स्तंभों के मुखिया एक ही मंच पर हों और वे एक दूसरे की कमियां गिनाते हुए खरी-खोटी बातें भी सुनाएं, तो क्या ऐसा किसी औऱ देश में मुमकिन है? बिल्कुल भी नहीं और यही वजह है कि भारत के लोकतंत्र को दुनिया में सबसे उदारवादी माना जाता है. इसमें कोई दो राय नहीं है कि भारत के चीफ़ जस्टिस एनवी रमण इस पद पर आसीन होने के बाद से ही जनहित के मुद्दों को लेकर बेहद मुखर रहे हैं. वे सार्वजनिक मंचों से अपनी बात बेबाकी और बेख़ौफ़ होकर रखने से कभी हिचकते नहीं हैं. शनिवार को दिल्ली के विज्ञान भवन में हुए 11वें मुख्यमंत्री और मुख्य न्यायाधीशों के सम्मेलन में पीएम मोदी और देश के चीफ़ जस्टिस ने जो बातें कही हैं, वे महत्वपूर्ण तो हैं ही लेकिन साथ ही न्यायपालिका और कार्यपालिका के बीच होने वाले टकराव के साथ ये भी खुलासा करती हैं कि विपक्षशासित राज्य आखिरकार केंद्र के फैसलों को लागू करने में इतनी राजनीति किसलिये कर रहे हैं?

पहले बात करते हैं देश के चीफ जस्टिस एनवी रमण की जिन्होंने इस मंच के जरिये अपने यानी न्यायपालिका के दर्द का खुलकर इज़हार किया. उन्होंने देश के पीएम की मौजूदगी में सरकार को आईना दिखाने में जरा भी कोताही नहीं बरती. सरकार की निष्क्रियता पर सवाल उठाते हुए जस्टिस रमण ने कहा, "अदालत के फ़ैसले सरकार की ओर से सालों-साल लागू नहीं किए जाते हैं. न्यायिक फैसलों के बावजूद उन्हें लागू करने में जानबूझकर सरकार की ओर से निष्क्रियता देखी जाती है जो देश के लिए अच्छा नहीं है. हालांकि पॉलिसी बनाना हमारा अधिकार क्षेत्र नहीं है, लेकिन अगर कोई नागरिक अपनी शिकायत लेकर हमारे पास आता है, तो अदालत तो मुंह नहीं मोड़ सकती." ये भी सच है कि पिछले 75 बरस से हमारे देश की राजनीति ने किसी भी 'लक्ष्मण रेखा' को मानने की कोई परवाह नहीं की है, जिसका खामियाजा सरमायेदारों को नहीं बल्कि आप-हम जैसे आम लोगों को कहीं न कहीं तो उठाना ही पड़ता है. लेकिन मुख्य न्यायाधीश की तारीफ इसलिये करनी होगी क्योंकि उन्होंने इस मंच से देश के तमाम राज्यों के हुक्मरानों और वहां के चीफ जस्टिस को इस 'लक्ष्मण रेखा' को न लांघने का पाठ पढ़ाया है. ये बेहद अहम बात है, जो हर सूरत में देश के लोकतंत्र को जिंदा रखने के मकसद से ही कही गई है.

चीफ जस्टिस रमण ने कहा, "संविधान में विधायिका, न्यायपालिका और कार्यपालिका की ज़िम्मेदारियों को विस्तार से बांटा गया है. हमें अपनी 'लक्ष्मण रेखा' का ख्याल रखना चाहिए. अगर गवर्नेंस का कामकाज कानून के मुताबिक़ हो तो न्यायपालिका कभी उसके रास्ते में नहीं आएगी. अगर नगरपालिका, ग्राम पंचायत अपने कर्तव्यों का ठीक से निर्वहन करें, पुलिस उचित तरीके से केस की जांच करे और ग़ैर-क़ानूनी कस्टोडियल प्रताड़ना या मौतें ना हों, तो लोगों को कोर्ट आने की ज़रूरत नहीं पड़ेगी." कानून के जानकारों की निगाह में पिछले तीन दशक में देश के चीफ जस्टिस द्वारा सार्वजनिक मंच से दिया गया ये इकलौता ऐसा बयान है, जिसे हम क्रांतिकारी कहने के साथ ही सरकार को उसकी हैसियत में रहने की नसीहत देने वाला भी कह सकते हैं. लेकिन इस मौके पर पीएम मोदी ने अपने भाषण में जिस रहस्य से पर्दा उठाया है, वह भी कम चौंकाने वाला नहीं है. उन्होंने कहा कि साल 2015 में केंद्र सरकार ने लगभग 1800 क़ानूनों की पहचान की जो अप्रासंगिक हो गए थे. इनमें से केंद्र ने 1450 क़ानूनों को खत्म कर दिया लेकिन राज्यों ने अब तक केवल 75 क़ानूनों को ही ख़त्म किया है."

जाहिर है कि इसमें वे राज्य हैं जहां बीजेपी सत्ता में नहीं है, इसलिए सवाल तो बनता है कि वे राज्य इन कानूनों को अपने यहां से ख़त्म क्यों नहीं करना चाहते और इसके पीछे उनका सियासी मकसद आखिर क्या है कि वे केंद्र की बात मानने को राजी नहीं हैं? उसी मंच से पीएम ने एक बेहद अहम बात भी कही है, जिसका समर्थन हर कोई करेगा. बता दें कि फिलहाल सुप्रीम कोर्ट और देश के अधिकांश राज्यों के हाइकोर्ट में सिर्फ अंग्रेजी में ही सारा कामकाज होता है. लिहाजा, पीएम मोदी ने न्यायपालिका में भारतीय भाषाओं के इस्तेमाल करने पर जोर देकर एक सार्थक बहस को जन्म दे दिया है. उन्होंने कहा कि "हमें अदालतों में स्थानीय भाषाओं को बढ़ावा देना चाहिए. इससे देश के आम नागरिकों का न्याय व्यवस्था में विश्वास बढ़ेगा." उनकी इस बात को सौ टके खरा इसलिए भी समझा जाना चाहिए कि मौजूदा दौर में उच्च न्यायालयों से इंसाफ पाना बहुत महंगा सौदा साबित हो चुका है. इसलिये अगर एक आम इंसान को उसकी स्थानीय भाषा में ही न्याय मिलता है, तो वह न सिर्फ सस्ता होगा बल्कि अदालतों के प्रति उसका भरोसा और ज्यादा बढेगा.

पीएम ने ये भी बताया कि जल्द और सुलभ न्याय दिलाने की दिशा में सरकार अपनी तरफ से कोई कसर नहीं छोड़ रही है. उनके मुताबिक सरकार न्यायिक प्रणाली में टेक्नोलॉजी के इस्तेमाल को डिजिटल इंडिया मिशन का एक अनिवार्य हिस्सा मानती है. ई-कोर्ट परियोजना आज एक मिशन की तरह लागू की जा रही है. उल्लेखनीय है कि इस तरह का मुख्य न्यायाधीशों का पहला सम्मेलन नवंबर 1953 में आयोजित किया गया था और अब तक 38 ऐसे सम्मेलन हो चुके हैं. पिछला सम्मेलन साल 2016 में हुआ था. इसे चीफ जस्टिस एनवी रमण की पहल का ही नतीजा कहेंगे कि वे इस बार मुख्य न्यायाधीशों के साथ ही मुख्यमंत्रियों का भी संयुक्त सम्मेलन कराने के लिए जुटे हुए थे, ताकि लोकतंत्र के दो स्तंभो की सारी कड़वाहट एक ही मंच पर खुलकर सामने भी आये और उसे दूर करने के उपाय भी हों. लेकिन इस सवाल का जवाब कौन देगा कि कार्यपालिका और न्यायपालिका के बीच बरसों से चले आ रहे इस टकराव को थामने की पहल आख़िर कौन करेगा?

(नोट- उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.)

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