बरसों पहले किसी शायर ने लिखा था-
"कह दो अंधेरों से कहीं और घर बना लें.
मेरे मुल्क में रोशनी का सैलाब आया है."
कोई भी नहीं चाहेगा कि उस शायर की ये बात गलत साबित हो लेकिन अब ऐसा डर सताने लगा है कि देश के बड़े हिस्से में कहीं अंधेरे का सैलाब ही न आ जाये. जरा सोचकर देखिये कि आपका कोई भी कसूर न हो लेकिन फिर भी आपको दो-चार रातों के लिए अंधेरे में रहने के लिए मजबूर कर दिया जाए. तब क्या हाल होगा. सरकार ने रविवार को भले ही ये दावा किया था कि देश में अगले चार दिन के लिए कोयले का पर्याप्त भंडार है लेकिन हक़ीक़त ये है कि हमारा देश एक ऐसे भयावह बिजली संकट की तरफ बढ़ रहा है. जिसे कुछ अरसा पहले चीन. दक्षिण अमेरिका और यूरोप के कई देश झेल चुके हैं. अगर सरकार ने इस संकट को संभालने के लिए आपातकालीन उपाय नहीं किये. तो देश के कई इलाके सिर्फ अंधेरे में ही नहीं डूबेंगे बल्कि वहां अपराध का एक नया इतिहास बनाने की तैयारी हो चुकी होगी. चोरी. डकैती. झपटमारी की वारदातों पर काबू पाना. किसी भी शहर की पुलिस के बूते से बाहर होगा और उस अंधेरे में सिर्फ अपराधियों का ही साम्राज्य होगा.
देश में 70 फीसदी बिजली का उत्पादन 135 थर्मल प्लांट से होता है. जो कोयले पर आधारित हैं लेकिन इनमें से लगभग आधे संयंत्रों के पास महज़ एक या दो दिन का ही कोयला बचा है और उत्तरप्रदेश. पंजाब समेत कई राज्यों में बिजली कटौती के जबरदस्त झटके लगने भी शुरु हो गए हैं. यूपी में तो कुछ प्लांट पूरी तरह से बंद हो चुके हैं. जबकि कुछ इकाइयों की उत्पादन क्षमता को आधा कर दिया गया है. यही हाल एक -दो दिन में बाकी राज्यों में भी होने वाला है. इसलिये किसी गलतफहमी में मत रहिये कि सियाह अंधेरे का शिकार बनने से आप बच ही जायेंगे.
अब सवाल ये उठता है कि ये नौबत आने के लिए सरकार की अदूरदर्शी नीति जिम्मेदार है या फिर विपक्ष जो आरोप लगा रहा है. उसमें भी कोई सच्चाई है? मुख्य विपक्षी कांग्रेस का आरोप है कि केंद्र सरकार ने जानबूझकर कोयले का कृत्रिम संकट पैदा किया है. ताकि देश के प्रमुख महानगरों में बिजली सप्लाई करने वाले प्राइवेट घरानों को इसका फायदा मिल सके और वे अपने मन-मुताबिक बिजली की प्रति यूनिट की कीमत में बढ़ोतरी कर सकें. हालांकि न तो हम इस आरोप को सही ठहरा सकते हैं और न ही गलत लेकिन शक की सुई अगर उठी है. तो जाहिर है कि उसके पीछे कोई तो वजह होगी ही जिसका सच खुद सरकार को देश के सामने लाना चाहिए कि ये संकट आखिर क्यों पैदा हुआ और इसके लिए कौन जिम्मेदार है.
ये हालत तब है. जबकि भारत के पास 300 अरब टन के कोयले का विशाल भंडार है और हम दुनिया के दूसरे बड़े कोयला उत्पादक देश हैं. अगर कोयला भंडार की बात करें. तो इस मामले में भारत दुनिया का पांचवा बड़ा देश है और ये भंडार अगले सौ साल या उससे ज्यादा वक्त तक बने रह सकते हैं. इसके बावजूद हम आज भी अपने घरेलू उद्योगों और विकास संबंधी जरुरतों को पूरा करने के लिए पर्याप्त मात्रा में कोयले का उत्पादन करने में नाकामयाब ही साबित हुए हैं. आखिर अब तक ऐसा क्यों होता आया और आज भी ऐसा क्यों हो रहा है कि हमें अपनी बिजली पैदा करने के लिए कोयला विदेशों से आयात करना पड़ रहा है. क्या सचमुच ये सरकार की मजबूरी है या फिर पिछले कुछ सालों में इसे एक बड़ी मजबूरी बना दिया गया है. जिसके पीछे का खेल कोई और ही कर रहा है?
ये सवाल इसलिये भी ज्यादा महत्वपूर्ण है कि कच्चे तेल के बाद कोयले के आयात पर ही हमारी सरकार सबसे ज्यादा विदेशी मुद्रा खर्च कर रही है. जो देश के खजाने को सुरक्षित रखने का सबसे बड़ा जरिया होती है और यही देश की अर्थव्यवस्था को मजबूत बनाये रखने की सबसे बड़ी ताकत भी होती है. पिछले पांच साल के कोयला आयात पर नजर डालें तो भारत औसतन हर साल सवा से डेढ़ लाख करोड़ रुपए का कोयला आयात करता है. पिछले वित्तीय वर्ष यानी 2020-21 में भारत ने करीब 215 मिलियन टन कोयले का आयात किया था. अपनी जरुरत को पूरा करने के लिए भारत सबसे ज्यादा आयात करता है इंडोनेशिया से जिसका हिस्सा 43 फ़ीसदी है. उसके बाद ऑस्ट्रेलिया दूसरा बड़ा देश है. जहां से हमने 25. 56 फीसदी का आयात किया. जबकि दक्षिण अफ्रीका से 14. 49 प्रतिशत कोयला मंगाकर तमाम क़िस्म की आवश्यकताएं को पूरा किया गया. हालांकि अमेरिका. मोजाम्बिक और रुस से भी भारत ने कोयला खरीदा लेकिन उसका प्रतिशत बहुत कम ही रहा है.
दरअसल. भारत भले ही दुनिया के सबसे बड़े कोयला भंडार वाले देशों में शुमार है. लेकिन खनन में एकाधिकार प्राप्त कोल इंडिया कंपनी पावर प्लांट्स. स्टील प्लांट्स. सीमेंट और फर्टिलाइजर्स यूनिट की आवश्यकताओं को पूरा करने लायक उत्पादन नहीं कर पा रही थी. इसी को ध्यान में रखते हुए ही फरवरी 2018 में सरकार ने प्राइवेट कंपनियों को भी कोयला खनन की मंजूरी दे दी. साल 1973 में कोयला क्षेत्र का जो राष्ट्रीयकरण हुआ था. उसके बाद इस दिशा में मोदी सरकार के इस कदम को एक बड़े सुधार के रुप में देखा जा रहा था. लेकिन महज़ तीन साल में ही उसके बुरे नतीजे हमारे सामने हैं.
इसकी बड़ी वजह भी है. जैसा कि कोयला क्षेत्र के जानकार बताते हैं कि प्राइवेट कंपनियों ने देश में खनन की बजाय विदेशों से कोयला आयात करने में अपनी दिलचस्पी ज्यादा ली क्योंकि उसमें खर्च व सिरदर्दी कम होने के साथ ही मोटा मुनाफा मिलने की पूरी गारंटी है. सो. आलम ये है कि सालभर में भारत जितना कोयला विदेशों से आयात करता है. उसके एक तिहाई हिस्से पर एक खास निजी घराने का ही कब्ज़ा है. शायद यही वजह है कि विपक्ष ऐसे आरोपों के साथ सरकार पर हमलावर होता दिखाई दे रहा है. लेकिन आम जनता का इस सियासी झगड़े से भला क्या वास्ता. लिहाज़ा उसे अंधेरे में जीने की सज़ा आखिर किसलिये दी जा रही है?
(नोट- उपरोक्त दिए गए विचार व आंकड़े लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.)