विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका...किसी भी लोकतंत्र के तीन स्तंभ हैं. इनके बीच अधिकारों और शक्तियों का बँटवारा हमारे संविधान में किया गया है. इसके बावजूद न्यायपालिका और कार्यपालिका के बीच खींचतान से जुड़ी ख़बरें सामने आते रहती हैं.
हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में जजों की नियुक्ति का मामला, एक ऐसा पहलू है, जिसको लेकर सुप्रीम कोर्ट और केंद्र सरकार आपस में पिछले कई दशक से उलझते हुए देखे गए हैं. हालांकि इंदिरा गांधी सरकार के दो फ़ैसले को छोड़ दें, तो पिछले 8 साल में इस मसले पर देश की सर्वोच्च अदालत और केंद्र सरकार के बीच रस्साकशी ज़्यादा देखने को मिली है.
विवाद की जड़ में है कॉलेजियम सिस्टम
जजों की नियुक्ति को लेकर कार्यपालिका और न्यायपालिका के बीच जो टकराहट है, उसके जड़ में कॉलेजियम सिस्टम और उससे जुड़े तमाम पहलू हैं. इस मसले को विस्तार से समझने से पहले हाल ही में सुप्रीम कोर्ट की ओर से आई सख़्त टिप्पणी या कहें चेतावनी को जान लेते हैं. अब सुप्रीम कोर्ट ने एक ऐसी बात कह दी है, जिससे लगने लगा है कि भविष्य में जजों की नियुक्ति में देरी को लेकर सर्वोच्च अदालत से कुछ बड़ा फ़ैसला आ सकता है या फिर सुप्रीम कोर्ट कोई दिशानिर्देश जारी कर सकता है.
कॉलेजियम की सिफ़ारिशें सरकार पर बाध्यकारी
दरअसल सुप्रीम कोर्ट जजों की नियुक्ति और कॉलेजियम की सिफ़ारिशों पर केंद्र सरकार के लटकाने वाले रवैये से बेहद नाराज़ है. इसी को लेकर 26 सितंबर को सुप्रीम कोर्ट की दो सदस्यीय पीठ ने केंद्र सरकार से कहा है कि वो हाईकोर्ट में जजों की नियुक्ति पर टालमटोल का रवैया छोड़ दे, वर्ना दिक़्क़त का सामना करने के लिए तैयार रहे. जस्टिस संजय किशन कौल और जस्टिस सुधांशु धूलिया की पीठ की मुख्य चिंता हाई कोर्ट के जजों की नियुक्ति और ट्रांसफर के कॉलेजियम प्रस्ताव को लेकर है, जो केंद्र सरकार के पास कई महीनों से लंबित है.
सिफ़ारिशों को लटका कर रखने का रवैया
हाईकोर्ट में जजों की नियुक्ति में देरी को लेकर एडवोकेट्स एसोसिएशन बेंगलुरु की ओर से दायर याचिका पर सुप्रीम कोर्ट सुनवाई कर रही है. इस दौरान सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि सुप्रीम कोर्ट कॉलेजियम की ओर से की गई 70 कॉलेजियम सिफ़ारिशें केंद्र सरकार के पास 11 नवंबर, 2022 से लंबित हैं. इनमें से 7 नाम ऐसे हैं, जिन्हें कॉलेजियम ने दोहराया है. इनमें अलग-अलग हाई कोर्ट के 26 जजों के ट्रांसफर का भी मामला शामिल है.
सुप्रीम कोर्ट की दो सदस्यीय पीठ ने स्पष्ट कर दिया है कि 9 अक्टूबर तक इस मसले पर कुछ नतीजों के साथ केंद्र सरकार वापस आए या फिर परेशानी का सामना करने के लिए तैयार रहे. सुप्रीम कोर्ट ने ये भी कहा है कि अलग-अलग हाईकोर्ट की ओर से जिन नामों की सिफ़ारिश की गई है, वे भी नाम अभी तक सुप्रीम कोर्ट की कॉलेजियम के पास नहीं पहुंचे हैं. इस मामले की अगली सुनवाई 9 अक्टूबर को होगी.
जजों की नियुक्ति प्रक्रिया को लेकर टकराव
यह सिर्फ़ एक उदाहरण भर है. जजों की नियुक्ति को लेकर सुप्रीम कोर्ट और केंद्र सरकार आमने-सामने होते रहे हैं. दरअसल देश में सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट में जजों की नियुक्ति और हाईकोर्ट के जजों के तबादले की जो प्रक्रिया है, उसमें न्यायपालिका की भूमिका निर्णायक है. इसमें केंद्र सरकार की निर्णय लेने के मामले में कोई ज़्यादा भूमिका नहीं है. सुप्रीम कोर्ट की कॉलेजियम जो सिफ़ारिश करती है, उससे मानना केंद्र सरकार के लिए बाध्यकारी है. हालांकि केंद्र सरकार उन सिफ़ारिशों को कितने दिनों में वास्तविक धरातल पर उतारेगी, इसको लेकर कोई स्पष्टता या निर्देश न तो संविधान में है और न ही कॉलेजियम सिस्टम के बनने से जुड़े सुप्रीम कोर्ट के आदेशों में है. इसकी वज्ह से अक्सर सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट में जजों की नियुक्ति को लेकर केंद्र और न्यायपालिका के बीच टकराहट सामने आते रहती है.
केंद्र और न्यायपालिका के बीच खींचतान बढ़ी है
पहले भी इस मसले पर केंद्र सरकार और सुप्रीम कोर्ट के बीच तनातनी देखने को मिलती थी. लेकिन जब से सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार की पहल राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग से जुड़े कानून को संवैधानिक तौर से अवैध घोषत करते हुए निरस्त कर दिया था, यह खींचतान ज़्यादा होने लगी है.
संविधान के अनुच्छेद 124 और अनुच्छेद 217 के तहत सैद्धांतिक तौर से सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट के जजों की नियुक्ति का अधिकार राष्ट्रपति के पास है. हालांकि कॉलेजियम सिस्टम की वज्ह से व्यावहारिक तौर से नियुक्ति पर अंतिम फ़ैसला सुप्रीम कोर्ट का ही होता है. इस सिस्टम के तहत कॉलेजियम में भारत के मुख्य न्यायाधीश या'नी चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया और सुप्रीम कोर्ट के चार वरिष्ठतम न्यायाधीश शामिल होते हैं. इस तरह से हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के जजों की नियुक्ति का अधिकार जजों की एक कमेटी के पास है, इसे ही कॉलेजियम कहते हैं. कॉलेजियम की यह व्यवस्था पिछले तीन दशक से मोटे तौर से लागू है.
कॉलेजियम सिस्टम का ज़िक्र संविधान में नहीं
दरअसल कॉलेजियम सिस्टम के ढांचे का उल्लेख संविधान में नहीं है. सुप्रीम कोर्ट के कुछ आदेशों के आधार पर तीन दशक से यही प्रक्रिया चली आ रही है. कॉलेजियम सिस्टम बनने से पहले एक बड़ा मुद्दा उठा था. भारत का चीफ जस्टिस कौन होगा, इस बाबत संविधान में अलग से कोई प्रावधान नहीं किया गया था. 1951 से 1973 तक सुप्रीम कोर्ट के सबसे वरिष्ठ जज को ही चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया बनाने की परंपरा रही.
इंदिरा गांधी के फ़ैसले से विवाद का जन्म
तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने अप्रैल 1973 और जनवरी 1977 में ऐसा फै़सला किया, जिससे भविष्य में कॉलेजियम सिस्टम के लिए रास्ता बन सका. उस वक़्त 1973 में जस्टिस ए एन रे को सुप्रीम कोर्ट का प्रधान न्यायाधीश नियुक्त कर दिया गया. इस मामले में पेंच वरिष्ठता यानी सीनियरिटी का था. दरअसल जस्टिस ए एन रे की नियुक्ति में जस्टिस के.एस. हेगड़े, जस्टिस ए एन ग्रोवर और जस्टिस जे एस शेलात इन तीनों जजों की वरिष्ठता को ध्यान में नहीं रखा गया.
चीफ जस्टिस की नियुक्ति में वरिष्ठता का मुद्दा
यहीं से एक विवाद का जन्म होता है. उस वक्त सुप्रीम कोर्ट के बार एसोसिएशन ने भी इस विरोध में हिस्सा लिया. यह माना गया कि तीन सीनियर जजों की वरिष्ठता सिर्फ़ इस आधार पर नज़र-अंदाज़ कर दिया गया कि 24 अप्रैल 1973 को केशवानंद भारती मामले में 13 जजों की संविधान पीठ की ओर से आए ऐतिहासिक आदेश में उन तीन वरिष्ठ जजों ने जो फै़सला दिया था वो सरकार के पक्ष में नहीं था. सुप्रीम कोर्ट के अब तक के इतिहास में ऐसा कभी नहीं हुआ था, लिहाज़ा उन तीनों वरिष्ठ जजों ने तत्काल अपने पद से इस्ति'फ़ा दे दिया.
कुछ सालों बाद जनवरी 1977 में भी इंदिरा गांधी सरकार ने कुछ ऐसा ही किया. उस वक़्त जस्टिस एचआर खन्ना को वरिष्ठ होते हुए भी नज़र-अंदाज़ करते हुए जस्टिस एमएच बेग को चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया बना दिया गया. जस्टिस एचआर खन्ना ने भी वहीं किया जो उनसे पहले तीन वरिष्ठ जजों ने किया था. उन्होंने भी इस्ति'फ़ा दे दिया.
क्या सुप्रीम कोर्ट का परामर्श बाध्यकारी है?
जजों की वरिष्ठता के अतिक्रमण का आरोप लगाने वाले कानूनविदों और जजों का मानना था कि इन मामलों में न्यायपालिका का विवेकाधिकार कम कर दिया गया. इस दौरान देश के अलग अलग मंचों पर इस मसले पर ख़ूब बहस भी हुई. बाद में इस मामले पर सुप्रीम कोर्ट के तीन बड़े फैसलों से स्थिति स्पष्ट हुई और ये तीन फ़ैसले ही कॉलेजियम सिस्टम के आधार बन गए. इन्हें फर्स्ट जजेज़ केस, सेकेंड जजेज़ केस और थर्ड जजेज़ केस के नाम से जाना जाता है.
फर्स्ट, सेकेंड, थर्ड जजेज़ केस और कॉलेजियम
सवाल था कि जजों की नियुक्ति में सुप्रीम कोर्ट जो परामर्श देगी, वो कार्यपालिका या'नी केंद्र सरकार के लिए बाध्यकारी है या नहीं. इससे जुड़ा पहला केस था 1981 का एस पी गुप्ता मामला था, जिसे फर्स्ट जजेज़ केस भी कहते हैं. इसमें जजेज़ की नियुक्ति के मामले में सुप्रीम कोर्ट के परामर्श को सिर्फ विचार के तौर पर परिभाषित किया गया. जबकि 1993 में जस्टिस जेएस वर्मा की अगुवाई में सुप्रीम कोर्ट के 9 जजों की पीठ ने इस व्यवस्था को पलटते हुए सुप्रीम कोर्ट के परामर्श को मानना बाध्यकारी बताया. कोर्ट ने कहा कि जजों की नियुक्ति कॉलेजियम द्वारा ही की जाएगी. इस फैसले को सेकेंड जजेज़ केस कहा जाता है. कॉलेजियम सिस्टम की शुरू'आत दरअसल इसी केस से मानी जाती है.
बाद में 1998 में तत्कालीन राष्ट्रपति के आर नारायणन ने संविधान के अनुच्छेद 124, 217 और 222 के तहत परामर्श शब्द के अर्थ पर सुप्रीम कोर्ट की राय मांगी. अनुच्छेद 222 का संबंध हाईकोर्ट के जजों के तबादले से है. कुछ दिन बाद ही जस्टिस एस पी भरूच की अगुवाई वाली सुप्रीम कोर्ट की 9 सदस्यीय बेंच ने 28 अक्टूबर 1998 को आदेश दिया कि नियुक्ति की मामले में न्यायपालिका विधायिका से ऊपर है. यानी 1993 में परामर्श को बाध्यकारी बताने का सुप्रीम कोर्ट का फैसला सही था. इस आदेश को थर्ड जजेज़ केस के नाम से जाना जाता है.
कॉलेजियम सिस्टम 1993 से पूरी तरह से काम
मोटे तौर पर सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट के जजों की नियुक्ति और तबादला में 1993 से कॉलेजियम सिस्टम पूरी तरह से काम कर रहा है. कॉलेजियम सिस्टम को लेकर सबसे मज़बूत तर्क यह दिया जाता रहा है कि इससे न्यायपालिका को राजनीतिक और सरकारी हस्तक्षेप से मुक्त रखने में मदद मिलेगी. संविधान की मूल आत्मा में भी यह निहित है. न्यायपालिका पर देश के नागरिकों का भरोसा बनाए रखने के लिहाज़ से भी यह बेहद महत्वपूर्ण है. इसी व्यवस्था के चलते सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट में जजों की नियुक्ति के साथ ही तबादलों का फैसला भी कॉलेजियम ही करता है. हाईकोर्ट के कौन से जज पदोन्नत होकर सुप्रीम कोर्ट जाएंगे, यह फै़सला भी कॉलेजियम ही करता है. सुप्रीम कोर्ट ने जजों की नियुक्ति के लिए 9 बिंदुओं की एक गाइडलाइन भी बनाई है. इन्हीं नौ बिंदुओं के तहत कॉलेजियम अपना काम-काज करता है और फै़सले लेता है. इस नियमावली से कॉलेजियम की सर्वोच्चता को सुनिश्चित किया गया है.
कॉलेजियम सिस्टम में बदलाव की कोशिश
सुप्रीम कोर्ट और केंद्र सरकार के बीच खींचतान की मूल वज्ह कॉलेजियम सिस्टम ही है. यह व्यवस्था 1993 से ब-दस्तूर जारी है. उच्चतम न्यायालय और उच्च न्यायालयों में न्यायाधीशों की नियुक्ति की मौजूदा प्रणाली में बदलाव लाने के लिए लिए भारत सरकार ने 2014 में संविधान में संशोधन कर राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग की व्यवस्था की थी. इसके लिए संसद से पारित होने के बाद राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग अधिनियम, 2014 और संविधान (99वां संशोधन) अधिनियम, 2014 को अधिसूचित किया गया.
इन दोनों क़ानून से जुड़े विधेयकों को 13 अगस्त 2014 को लोक सभा से और 14 अगस्त 2014 को राज्य सभा से सर्वसम्मति से पारित किया गया था. इसके बाद कम से कम आधे राज्यों की विधानसभाओं से भी इन दोनों को अनुमोदित किया गया था. उसके बाद राष्ट्रपति की मंजूरी मिलने के बाद 31 दिसंबर को इस अधिनियम को भारत के राजपत्र में प्रकाशित कर दिया गया था. इसके माध्यम से तय किया गया था कि 13 अप्रैल 2015 से जजों की नियुक्ति राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग की सिफ़ारिशों के आधार पर होने लगेगी.
राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग का ढांचा
संविधान के अनुच्छेद "124 ए" में आयोग के गठन का प्रावधान किया गया था. आयोग 6 सदस्यीय था. कॉलेजियम सिस्टम की तरह ही 'राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग' के अध्यक्ष भी भारत के मुख्य न्यायाधीश को ही बनाया गया था. आयोग के बाक़ी सदस्यों में सुप्रीम कोर्ट के दो वरिष्ठतम न्यायाधीश, केंद्रीय विधि एवं न्याय मंत्री और मनोनीत दो जाने-माने व्यक्ति शामिल थे. इन दो व्यक्ति को एक कमेटी चुनती, जिस कमेटी में प्रधानमंत्री, चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया और लोक सभा में नेता विपक्ष शामिल होते.
राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग का ढांचा इस तरह से तैयार किया गया था कि इसमें सुप्रीम कोर्ट से 3 सदस्य और तीन सदस्य बाहर से थे. कानून मंत्री सरकार का हिस्सा होता है और जो दो जाने-माने सदस्य चुने जाते, उनके चयन में प्रमुख भूमिका न्यायपालिका की नहीं, बल्कि सरकार और विपक्ष या'नी राजनीतिक भूमिका ज़्यादा होती. इस तरह से अगर राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग की व्यवस्था लागू हो जाती तो, सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट में जजों की नियुक्ति और तबादले में सुप्रीम कोर्ट की सर्वोच्चता सिद्धांत समाप्त हो जाता है.
एनजेएसी का असंवैधानिक घोषित होना
भारत सरकार ने कॉलेजियम सिस्टम में संविधान में संशोधन के माध्यम से बदलाव तो कर दिया था, लेकिन सरकार के इस प्रयास को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई. सुप्रीम कोर्ट एडवोकेट्स ऑन रिकॉर्ड एसोसिएशन ने दोनों ही अधिनियमों की संवैधानिक वैधता को चुनौती दी. तत्कालीन चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया जेएस खेहर की अध्यक्षता वाली 5 सदस्यीय संविधान पीठ ने लंबी सुनवाई करते हुए 16 अक्टूबर 2015 को ऐतिहासिक फ़ैसला सुनाया. इसमें सर्वोच्च अदालत ने राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग अधिनियम, 2014 और संविधान (99वां संशोधन) अधिनियम, 2014 दोनों को असंवैधानिक बताते हुए निरस्त कर दिया.
सुप्रीम कोर्ट ने अपने आदेश में माना कि जजों की नियुक्ति में कार्यपालिका या'नी सरकार की भागीदारी न्यायपालिका की प्रधानता और सर्वोच्चता (primacy and supremacy) पर आघात करती है, इससे कार्यपालिका और न्यायपालिका के बीच शक्तियों के पृथक्करण के सिद्धांत का उल्लंघन होता है, जो संविधान के मूल ढांचे का हिस्सा है. इस तरह से सुप्रीम कोर्ट ने संविधान के मूल ढांचे से छेड़छाड़ को आधार बनाते हुए एनजेएसी अधिनियम और संविधान (99वां संशोधन) अधिनियम को असंवैधानिक बताते हुए शून्य घोषित कर दिया.
सुप्रीम कोर्ट के अक्टूबर 2015 के इस फ़ैसले को फोर्थ जजेज़ केस के नाम से भी जाना जाता है. इस फ़ैसले से तय हो गया कि सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट में जजों की नियुक्ति ब-दस्तूर कॉलेजियम सिस्टम से ही होते रहेगी.
कॉलेजियम की सिफ़ारिशों पर अमल में देरी क्यों?
कॉलेजियम सिस्टम की वज्ह से जजों की नियुक्ति और तबादले में केंद्र सरकार के हाथ बँध जाते हैं. भले ही कॉलेजियम सिस्टम की सिफ़ारिशें केंद्र सरकार पर बाध्यकारी हैं, लेकिन इन सिफ़ारिशों पर अमल कितनी जल्दी करनी है, इसके लिए कोई समय सीमा तय नहीं है. इस कारण से केंद्र सरकार की ओर से अगर किसी नाम पर आपत्ति है तो, कॉलेजियम की सिफ़ारिशों को लागू करने में देरी के उदाहरण पिछले तीन दशक में मिलते रहे हैं. हालांकि अक्टूबर 2016 के सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले के बाद अमल में देरी के मामले तेज़ी से बढ़े हैं.
केंद्र और न्यापालिका के बीच टकराव चरम पर
कॉलेजियम की सिफ़ारिशों पर अमल में देरी को लेकर सुप्रीम कोर्ट कई बार केंद्र सरकार को फटकार लगा चुकी है. हालांकि इसके बावजूद केंद्र सरकार की ओर से इस तरह का टालमटोल रवैया जारी रहा है. पिछले दो साल में कॉलेजियम सिस्टम को लेकर बहस भी काफ़ी होते रही है. फिलहाल पृथ्वी विज्ञान मंत्री और पूर्व क़ानून मंत्री किरेन रिजिजू कॉलेजियम सिस्टम के विरोध में बेहद मुखर थे. उन्होंने एक तरह से कॉलेजियम प्रक्रिया को ही 'संविधान से परे' क़रार दे दिया था. उनके बयानों से स्पष्ट था कि ने कहना चाह रहे हैं कि कॉलेजियम सिस्टम पारदर्शी नहीं है और इसको लेकर बेहतर प्रणाली की दिशा में सरकार को क़दम बढ़ाने की ज़रूरत है.
उनके बेबाक बयानों से ऐसा लगने लगा था कि कॉलेजियम सिस्टम को लेकर सरकार और न्यायपालिका के बीच के बीच टकराव की स्थिति बनते जा रही है. ये भी कहा जा रहा था कि किरेन रिजिजू के बयानों और रवैये से मौजूदा चीफ जस्टिस डी वाई चंद्रचूड़ बेहद नाराज़ थे. हालांकि अचानक इस साल मई में किरेन रिजिजू के हाथों से क़ानून मंत्रालय की ज़िम्मेदारी ले ली जाती है. उनकी जगह पर अर्जुन राम मेघवाल को क़ानून मंत्रालय की ज़िम्मेदारी दे दी जाती है. तब से कॉलेजियम सिस्टम को लेकर मंत्री की ओर से बयानों का सिलसिला थमा है.
अमल के लिए समय सीमा तय नहीं
हालांकि कॉलेजियम के कार्य में प्रक्रियागत देरी के माध्यम से कार्यपालिका की ओर से बाधा पैदा करने की कोशिश होते रही है. अब जिस तरह से 26 सितंबर को सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार से सख़्त लहजे में कहा कि अगर आप क़लेजियम से जुड़ी प्रक्रिया और सिफ़ारिशों पर नतीज़ों के साथ नहीं आते हैं तो हम अब चुप नहीं रहेंगे. इस टिप्पणी के जरिये सुप्रीम कोर्ट यह भी संकेत और संदेश देना चाह रही है कि भविष्य में कॉलेजियम की सिफ़ारिशों के अमल के लिए एक अधिकतम समय सीमा निर्धारित की जा सकती है. इस संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता है.
स्वतंत्रता और सर्वोच्चता के पहलू पर विचार
सवाल है कि जजों की नियुक्ति में कार्यपालिका की भूमिका बढ़े और कॉलेजियम सिस्टम की जगह राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग जैसी व्यवस्था आए, तो संवैधानिक बारीकियों के जानकर के तौर पर मेरा मानना है कि इस मुद्दे से जुड़ा सबसे प्रमुख पहलू है न्यायपालिका की स्वतंत्रता और सर्वोच्चता. यह किसी भी लोकतंत्र की सफलता और भविष्य के लिए सबसे ज़रूरी है. चाहे भारत हो या दूसरे देशों का उदाहरण, हमने देखा है कि जनता से चुनी हुई सरकार भी कई अवसरों पर निरंकुश प्रवृत्ति से ग्रस्त होकर क़ानून बनाती है और फ़ैसले लेती है. ये फ़ैसले राजनीतिक लाभ के नजरिया से भी लिए जाते रहे हैं.
ऐसे में न्यायपालिका की स्वतंत्रता और सर्वोच्चता पूरी लोकतांत्रिक व्यवस्था के सुरक्षा के लिहाज़ से भी महत्वपूर्ण हो जाता है. कॉलेजियम सिस्टम में किसी भी तरह के बदलाव पर आगे बढ़ने से पहले इन पहलुओं पर देश के नागरिकों को, उनसे बने समाज को, क़ानून के जानकारों को, सरकार को और अंत में विधायिका या'नी संसद को ग़ौर करना बेहद ज़रूरी है.
फिलहाल इतना कहा जा सकता है कि न्यायपालिका की स्वतंत्रता और सर्वोच्चता से जजों की नियुक्ति का मसला जुड़ा हुआ है. इस मुद्दे पर केंद्र सरकार और न्यायपालिका के बीच भविष्य में खींचतान कम हो, इसके लिए ज़रूरी है कि कॉलेजियम सिस्टम की सिफारिशों पर अमल के लिए एक अधिकतम समय सीमा निर्धारित हो.
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