भ्रष्टाचार, अपराध और आरोप-प्रत्यारोप की सियासत के बीच झूलता बिहार, लालू से नीतीश राज तक नहीं बदला प्रदेश का हाल
ऐसे तो बिहार हमेशा ही सुर्खियों में रहता है, लेकिन 4 जून को एक ऐसी घटना हुई, जिसके बाद से सूबे में भ्रष्टाचार को लेकर आरोप-प्रत्यारोप की राजनीति चरम पर है. भागलपुर जिले के सुल्तानगंज और खगड़िया जिले के अगुवानी के बीच बन रहा पुल भरभराकर 4 जून को गंगा नदी में गिर गया. इस घटना को वहां पर कई लोगों ने अपने मोबाइल में कैद कर लिया और इसका वीडियो तेजी से सोशल मीडिया पर वायरल हो गया. यह पुल करीब 1700 करोड़ रुपये की लागत से बन रहा था.
पुल के गिरने पर राजनीतिक बयानबाजी
पिछले 4 दिन से इस घटना पर राजनीतिक बयानबाजी जारी है. जहां बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने इस घटना की जांच के आदेश दिए हैं और कहा है कि दोषियों को बख्शा नहीं जाएगा, वहीं दूसरी तरह आरजेडी नेता और उपमुख्यमंत्री तेजस्वी यादव कह रहे हैं कि इस पुल के डिजाइन में समस्या थी और निर्माण कार्य में शुरू से गड़बड़ी थी, इस वजह से सरकार ने आईआईटी-रुड़की की एक्सपर्ट टीम से इसकी स्टडी करने को कहा था. तेजस्वी के मुताबिक इस पुल को नए सिरे से बनवाना था और उसी कवायद के तहत पुल के इस हिस्से को गिराया गया है.
ऐसे में सवाल उठता कि जब सोच-समझकर की ये कार्रवाई की गई थी, तो फिर मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने जांच के आदेश क्यों दिए. दरअसल इस प्रकरण से इतना तो कहा जा ही सकता है कि सरकारी कामकाज में मुख्यमंत्री और उपमुख्यमंत्री के बीच संवाद और तालमेल की समस्या नज़र आ रही है.
इस बीच बिहार में विपक्षी दल बीजेपी इसे नीतीश सरकार का भ्रष्टाचार बता रही है. बीजेपी सांसद और पूर्व पार्टी प्रदेश अध्यक्ष संजय जायसवाल ने व्यंग्य भरे लहजे में कहा कि महागठबंधन की सरकार के दौरान बिहार में बने किसी भी पुल पर सावधानी से चढ़ें.
इस पुल को भ्रष्टाचार का पुल भी कहा जा रहा है. अप्रैल 2022 में भी इस पुल का एक हिस्सा गिर गया था. उस वक्त तेजस्वी विपक्ष में थे और उन्होंने पुल के निर्माण पर सवाल भी खड़े किए थे. इस पुल के निर्माण कार्य के दौरान 2017 से अगस्त 2022 तक की अवधि के दौरान आरजेडी की जगह बीजेपी ही बिहार की सत्ता में जेडीयू के साथ हिस्सेदार थी. ये भी गौर करने वाली बात है.
तीन दशक में कितना बदला बिहार?
दरअसल इस पुल के बहाने एक बात जरूर स्पष्ट है कि पिछले तीन दशक से भी ज्यादा वक्त से बिहार में सिर्फ और सिर्फ आरोप-प्रत्यारोप की राजनीति हावी रही है. जमीनी स्तर पर बिहार का सूरतेहाल कमोबेश वैसा ही है, जैसा 1990 के दशक में हुआ करता था.
बिहार की राजनीति में 10 मार्च 1990 से एक नए अध्याय की शुरुआत हुई थी. आजादी के बाद से ज्यादातर समय तक बिहार में कांग्रेस के शासन के बाद इस दिन से लालू प्रसाद यादव का शासन शुरू हुआ था. लालू यादव इसी दिन बिहार के मुख्यमंत्री बने थे. मार्च 1990 से मार्च 2005 तक 15 साल की अवधि में लालू यादव परिवार और उनकी पार्टी आरजेडी (1997 से पहले जनता दल) का शासन रहा. उसके बाद फिर नीतीश कुमार का युग शुरू हुआ. नवंबर 2005 से जो सफर नीतीश का शुरू हुआ है, वो लगातार अभी भी जारी है. यानी पिछले 33 साल से बिहार में लालू या नीतीश राज ही रहा है. नवंबर 2005 से अगस्त 2022 तक नीतीश की सरकार में तकरीबन 12 साल बीजेपी भी सरकार का हिस्सा रही है.
बिहार की तस्वीर नहीं बदल पाए नीतीश
लालू-नीतीश के इन 33 सालों में बिहार की स्थिति आर्थिक मोर्चे से लेकर गरीबी, रोजगार, शिक्षा, मेडिकल फैसिलिटी की गांव-गांव तक पहुंच से जुड़े मामलों में कुछ ज्यादा नहीं बदली है. पिछले साल अगस्त में नीतीश कुमार ने बीजेपी से पल्ला झाड़ते हुए फिर से तेजस्वी यादव के साथ हाथ मिलाकर बिहार में महागठबंधन की सरकार बनाई. उसके बाद से ऐसा लगता है कि बिहार की शासन व्यवस्था से नीतीश का एक तरह से मोहभंग हो गया है. ऐसे तो नीतीश बिहार के मुख्यमंत्री हैं, लेकिन पिछले 7-8 महीनों से उनका पूरा ध्यान और जोर आजमाइश बिहार की तस्वीर बदलने पर नहीं, बल्कि 2024 के लोकसभा चुनाव में देशव्यापी स्तर बीजेपी के खिलाफ लामबंदी करने पर है.
बालू और शराब माफियाओं का बढ़ता आतंक
बाकी अपराध की घटनाओं में तो इजाफा हुआ ही है, दो तरह की आपराधिक घटनाओं में ख़ासकर बेतहाशा वृद्धि दर्ज की गई है. एक तो शराबबंदी के बाद शराब माफियाओं का बढ़ता जाल और जहरीली शराब से दम तोड़ते लोगों की संख्या में हर साल इजाफा हो रहा है. बिहार में अप्रैल 2016 से पूर्ण शराबबंदी है, दुकानें भले ही बंद हों, लेकिन लोगों तक शराब माफिया अवैध तरीके से शराब पहुंचाने में पुलिस के नाक के नीचे से कामयाब हो रहे हैं. बिहार में पिछले 7 साल में शराब का एक नया आर्थिक तंत्र खड़ा हो चुका है. इससे बिल्कुल भी इनकार नहीं किया जा सकता कि कुछ पुलिसकर्मियों की मिलीभगत की वजह से शराब तस्करी का बड़ा नेटवर्क फैल चुका है.
शराबबंदी के बाद से हर साल नकली और जहरीली शराब पीने से मौत की खबरें आते रही हैं. पिछले 7 साल में जहरीली शराब से मरने वालों की सरकारी संख्या तो भले ही दो से ढाई सौ के बीच हो, लेकिन वास्तविकता यही है कि ये आंकड़ा सरकारी संख्या से बहुत ज्यादा है.
इसके साथ ही दिन प्रति दिन बिहार में बालू माफियाओं का आतंक बढ़ते जा रहा है. बिहार के अलग-अलग हिस्सों में बालू माफिया इतने ज्यादा बेखौफ नज़र आ रहे हैं कि वे खनन विभाग के कर्मचारियों और पुलिस पर भी हमला करने से बिल्कुल भी नहीं डर रहे हैं. इस साल अप्रैल में पटना जिले के बिहटा थाना क्षेत्र में जिस तरह से दो महिला खनन इंस्पेक्टर और खनन अधिकारी को सरेआम पीटा गया था, ये बताने के लिए काफी है कि सूबे में बालू माफियाओं को न तो नीतीश सरकार का डर रह गया है और न ही कानून-प्रशासन का.
भले ही नीतीश बिहार में पिछले 17 सालों में बहुत बड़े स्तर पर बदलाव का दावा करते हों, लेकिन ये कड़वा सच है कि बिहार की तस्वीर ज्यादा नहीं बदली है.
देश का सबसे गरीब राज्य है बिहार
अभी भी बिहार देश के सबसे पिछड़े राज्यों में से एक है. देश का सबसे गरीब राज्य बिहार ही है. नवंबर 2021 में नीति आयोग की ओर से जारी बहुआयामी गरीबी सूचकांक (Multidimensional Poverty Index) के मुताबिक गरीबी के मामले में बिहार की स्थिति सबसे खराब थी. इसके मुताबिक बिहार की करीब 52 फीसदी आबादी को नीति आयोग ने बहुआयामी गरीब माना था. इसका मतलब ही है कि बिहार के लोग हेल्थ, शिक्षा और जीवन स्तर के मामले में देश में सबसे पीछे हैं. 2005 में बिहार की करीब 54 फीसदी आबादी गरीब की कैटेगरी में शामिल थी. इस मोर्चे पर नीतीश के 17 साल के शासन में कुछ ख़ास सुधार नहीं हो पाया.
नीति आयोग ने गरीबी के लिए जो मानक अपनाए थे, उसमें पोषण, शिशु मृत्यु दर, नवजात बच्चों की देखभाल, स्कूलिंग के वर्ष, स्कूलों में उपस्थिति, सैनिटेशन पहुंच, पीने के शुद्ध पानी की उपलब्धता, बिजली, रसोई ईंधन, आवास और उसमें रहने वाले सामान के साथ बैंक अकाउंट को ध्यान में रखा गया था. नीति आयोग के पैमाने पर जब बिहार देश का सबसे गरीब राज्य है तो फिर जिन मानकों का नीति आयोग ने जिक्र किया था, बिहार के ज्यादातर लोगों तक उसकी पहुंच सही मायने में आज भी नहीं बन पाई है.
बिहार में बेरोजगारी दर भी चरम पर
रोजगार के मोर्चे पर भी बिहार देश के बाकी राज्यों से काफी पीछे है. रोजगार के मोर्चे पर भी नीतीश पिछले 17 साल में बिहार की किस्मत नहीं बदल पाए. कुछ महीने पहले सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी (CMIE)के आंकड़ों के मुताबिक बिहार में दिसंबर 2022 में बेरोजगारी दर 19.1% थी. उच्चतम बेरोजगारी दर के मामले में बिहार चौथे पायदान पर था. वहीं पूरे देश के लिए बेरोजगारी दर का आंकड़ा 8.3% था. 2005 में भी बेरोजगारी दर के मामले में बिहार पहले पायदान पर था.
पलायन का दर्द नहीं हो रहा खत्म
2005 में जब नीतीश कुमार ने बिहार की कमान संभाली थी तो उन्होंने दावा किया था कि अब सूबे के लोगों को नौकरी के लिए पलायन के दर्द से नहीं गुजरना पड़ेगा. रोजगार के मौके नहीं बनने की वजह से आज भी बिहार की एक बड़ी आबादी बाहर जाने और रहने को मजबूर है. एक अनुमान के मुताबिक बिहार में 55% पलायन सिर्फ़ रोजगार के लिए होता है. बिहार की एक बड़ी आबादी दूसरे राज्यों में असंगठित क्षेत्रों में काम करने को मजबूर हैं.
2018 में विश्व बैंक की एक रिपोर्ट के मुताबिक बिहार के सकल घरेलू उत्पाद में रेमिटेंस का योगदान 35% था. इससे समझ सकते हैं कि बिहार की अर्थव्यवस्था में पलायन का भी बड़ा योगदान है. कोविड महामारी के वक्त भी हमने देखा था कि पहले लॉकडाउन के समय करीब 15 लाख श्रमिक बिहार लौटे थे. बिहार में अभी भी केरल और तेलंगाना की तुलना में श्रमिकों की दिहाड़ी काफी कम है.
उद्योगों का नहीं हो पाया विकास
बिहार में न तो लालू परिवार के शासन के दौरान और न ही नीतीश कुमार के शासन के दौरान बड़े पैमाने पर उद्योगों के विकास पर ध्यान दिया गया. करीब 15 साल तक बिहार में सरकार चलाने के बाद नीतीश कुमार ने अक्टूबर 2020 में प्रदेश में खराब औद्योगिक विकास और निराशाजनक रोजगार के अवसरों के लिए बिहार के भूगोल को जिम्मेदार बताया था. उस वक्त नीतीश ने तर्क दिया था कि चूंकि बिहार लैंडलॉक्ड राज्य है और उसके पास समुद्र तट नहीं है, इसलिए उनके शासन के दौरान उद्योग यहां आकर्षित नहीं हो पाए. हालांकि उनका ये तर्क देश के कई लैंडलॉक्ड राज्यों उद्योगों की बेहतर स्थिति को देखते हुए गले से नीचे नहीं उतरती.
साक्षरता में भी पिछड़े राज्यों में गिनती
1990 से 2006 का दौर बिहार में शिक्षा के लिए सबसे खराब दौर के तौर पर जाना जाता है. 1995 से 2006 के बीच सिर्फ़ 30 हजार प्राइमरी स्कूल शिक्षकों की भर्ती हुई थी. इस दौरान स्कूलों में छात्र-शिक्षक अनुपात 90:1 से घटकर 122:1 हो गया था. 2001 में बिहार में सबसे कम साक्षरता दर 47% थी.
साक्षरता के मामले में बिहार देश के सबसे पिछड़े राज्यों में अभी भी बना हुआ है. बिहार में साक्षरता दर 61.8% है जो देश में सबसे कम है. उच्च शिक्षा का हाल तो और भी दयनीय है. यही वजह है कि स्कूली शिक्षा के बाद बड़े पैमाने पर छात्र उच्च शिक्षा के लिए बाहर का रुख करते हैं. उच्च शिक्षा के लिए जो यूनिवर्सिटी हैं, उनमें भी एकेडमिक सेशन ज्यादातर में देरी से ही पूरा होता है. तीन साल के स्नातक के लिए छात्रों को 5 से 6 साल का भी इंतजार करना पड़ जाता है.
मानव विकास सूचकांक में बेहद खराब स्थिति
मानव विकास सूचकांक के मामले में भी बिहार ने कोई ख़ास प्रगति नहीं की है. 2021 में बिहार ह्यूमन डेवलपमेंट इंडेक्स के मामले में भारत का सबसे पिछड़ा राज्य था. 1990 से 2005 के दौरान भी इस मोर्चे पर बिहार सबसे निचले पायदान पर खड़ा था. ये साफ बताता है कि बिहार हेल्थ, शिक्षा और आय के मामले में कितना पीछे है. प्रति व्यक्ति आय की बात करें तो वर्तमान मूल्य पर बिहार में सालाना पर कैपिटा इनकम 54 हजार रुपये के आसपास है. वहीं देश के लिए ये आंकड़ा 1,72,000 रुपये पहुंच चुका है. इस मामले में भी बिहार की स्थिति निचले पायदान पर ही है.
डाउन टू अर्थ की भारत की पर्यावरण रिपोर्ट 2022 में कहा गया था कि बिहार गरीबी और भूख मिटाने, शिक्षा की गुणवत्ता में सुधार, उद्योग नवाचार और बुनियादी ढांचे और जलवायु कार्रवाई के मामले में सबसे खराब प्रदर्शन करने वाले राज्यों में शामिल है. बिहार में फर्टिलिटी रेट अभी भी देश के औसत से काफी ज्यादा है.
कानून व्यवस्था बेहतर करने का किया था वादा
जब नीतीश कुमार 2005 में बिहार के मुख्यमंत्री बने थे, तो उन्होंने वादा किया था कि बिहार से अपराध को खत्म करके कानून व्यवस्था को लागू करेंगे. इसे वादे को आधार बनाकर उन्होंने लालू यादव परिवार के 15 साल के शासन को उखाड़ फेंका था. शुरुआत के कुछ सालों में कानून व्यवस्था को लेकर बिहार में स्थिति बेहतर लगने लगी थी. लेकिन जिस तरह से हाल फिलहाल के कुछ वर्षों में फिर से सूबे में अपराधियों के मन में कानून का खौफ नदारद होता दिख रहा है, वो यहां के लोगों के लिए चिंता की बात है.
इन सारे मोर्चे पर पिछले तीन दशक में बिहार में कोई बड़ा बदलाव या कायाकल्प देखने को नहीं मिला है. बिहार में ऐसा कोई शहर नहीं है जिसका नाम साफ-सफाई को लेकर लिया जा सकता है. यहां तक की कुछ इलाकों को छोड़ दिया जाए को राजधानी पटना का हाल बेहद ही दयनीय है.
जातिगत राजनीति होते जा रही है हावी
दरअसल बिहार की इस स्थिति के लिए वहां की राजनीति भी जिम्मेदार है. आजादी के बाद पहले 40 साल में ज्यादातर समय तक बिहार में कांग्रेस की सत्ता रही. पिछले 33 साल से लालू यादव परिवार और नीतीश का शासन है. यहां की राजनीति जातिगत समीकरणों कि इर्द-गिर्द घूमते रही है. लालू यादव का दौर शुरू होने के बाद इस समीकरण को और बढ़ावा ही मिला है. नीतीश ने भी इस पहलू पर कोई ज्यादा सुधार करने की कोशिश नहीं की. इसके विपरीत उन्होंने भी दलित-महादलित जैसे नैरेटिव गढ़कर जातिगत समीकरणों में नया आयाम ही जोड़ा है.
जातिगत समीकरणों पर रहता है ज्यादा फोकस
अब तो पिछले साल अगस्त से आरजेडी से हाथ मिलाने के बाद नीतीश चुनावी राजनीति को साधने के लिए कोई भी कदम उठाने को उतावले दिख रहे हैं. जातिगत समीकरणों को साधने के लिए पूर्व जिलाधिकारी जी कृष्णैया की हत्या के लिए दोषी और उम्रकैद की सज़ा काट रहे आनंद मोहन की रिहाई के लिए नीतीश रातों रात जेल नियमावली में बदलाव कर दे रहे हैं. जनता दल के विधायक अशोक सिंह की 1995 में हत्या से जुड़े मामले में आजीवन कारावास की सज़ा काट रहे पूर्व सांसद प्रभुनाथ सिंह और मोकामा के चार बार विधायक रहे बाहुबली अनंत सिंह की रिहाई को लेकर भी बिहार में सुगबुगाहट है.
1990 से 2005 का दौर बिहार के लिए बड़े पैमाने पर अपराध और भ्रष्टाचार का दौर रहा था. प्रदेश के कई लोगों के जेहन से अभी भी उस वक्त का खौफ नहीं निकला है. बिहार के ज्यादातर इलाकों में लोग, जिनमें गांव से लेकर शहर तक शामिल थे, अंधेरा होते ही घरों में कैद हो जाते थे. राजधानी होने के बावजूद पटना स्टेशन पर देर रात ट्रेन से उतरने के बाद लोग घर जाने की बजाय सुबह होने तक स्टेशन पर ही रहना बेहतर समझते थे. छात्र जीवन में हम लोगों ने भी उस दौर को खुद अनुभव किया है, जब ट्रेन से देर रात पटना आने पर अभिभावकों की ओर से ये सख्त चेतावनी होती थी कि सुबह होने तक स्टेशन पर ही इंतजार करना है.
आनंद मोहन की रिहाई से उठने लगे सवाल
आनंद मोहन की रिहाई को लेकर बिहार सरकार की तत्परता से कहा जा सकता है कि लालू यादव परिवार के जंगलराज और अपराध को खत्म करने के जिस नैरेटिव को आगे बढ़ाकर नीतीश कुमार 2005 में बिहार की सत्ता को हासिल करने में कामयाब हुए थे, अब 17 साल बाद जातिगत समीकरणों को साधने के लिए उस नैरेटिव को भी पीछे छोड़ने से बाज नहीं आ रहे हैं.
बिहार से ज्यादा सत्ता बचाने की रही है चिंता
अब गंगा नदी पर बन रहे पुल के इस तरह से गिरने के बाद एक बार फिर से सवाल उठने लगे हैं कि क्या बिहार की तस्वीर कभी नहीं बदल पाएगी. इसमें एक बात पर भी विचार किया जाना चाहिए कि पिछले 33 साल में बीजेपी भी करीब 12 साल बिहार की सत्ता में शामिल रही है. इस दौरान बाद के कुछ सालों में केंद्र में भी बीजेपी की सरकार रही. इसके बावजूद बीजेपी की तरफ से भी बिहार का कायाकल्प करने के लिए वो संजीदगी नहीं दिखाई दी, जिसकी बदहाल और दयनीय प्रदेश को जरूरत थी.
नीतीश का ज़ोर बिहार की तस्वीर बदलने पर कम और खुद की सत्ता बचाने के लिए हर हथकंडा अपनाने पर ज्यादा रहा है. यहीं वजह है कि उन्होंने 2005 पर सत्ता पर काबिज होने के बाद जब जरूरत पड़ी तो कभी बीजेपी का साथ छोड़ दिया तो कभी आरजेडी का दामन थाम लिया. ये सिलसिला 2015 से लगातार जारी है और अब तो उनका सारा फोकस 2024 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी के खिलाफ विपक्षी एकता की संभावना को वास्तविक बनाने पर है.
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