"रुकिए-रुकिए. कहां जा रहे हैं. यात्रा शुरू हो गई है. गाड़ी साइड में लगाइए." हम सनावद से खेरदा जा रहे थे. रात का अंधेरा पूरी तरह गया नहीं था. पौ फटने को थी और रास्ते पर तैनात पुलिस ने हमें उस जगह पर जाने से रोक दिया था जहां से राहुल गांधी अपनी भारत जोड़ो यात्रा का 77वां दिन शुरू कर रहे थे. बस फिर क्या था हम भी खड़े हो गए साइड में. वहां पर गांव के कुछ लोग, बड़े बच्चे और महिलाएं खड़ी थीं. 


पूछा कि इतनी सुबह जाग कर यहां क्यों खड़े हो. बोले-राहुल को देखने. राहुल में ऐसा क्या है? अच्छे आदमी हैं इतनी लंबी यात्रा कर रहे हैं. आदमी अच्छे हैं मगर राजनीति में उनको उतरना चाहिए. समझ गया कि अब राजनीति का मतलब पद ही होता है. जो पद पर नहीं होता उन्हें लोग राजनीति में नहीं समझते हैं. थोड़ी देर बाद ही प्रभात फेरी के अंदाज में यात्री उस गांव से निकलने लगे. सेवादल की प्रभात फेरी में जयराम रमेश चले आ रहे थे.


माइक लेकर जैसे ही जयराम रमेश से राजस्थान की राजनीति में चल रही उठापटक का सवाल पूछा तो पलटकर जबाव मिला- अरे भाई अपनी एमपी की सड़कों की भी तो बात करो, जो इतने बुरे हाल में हैं. छह राज्य से घूम कर आ रहे हैं मगर इतनी खस्ताहाल सड़कें कहीं नहीं दिखी. अपने राज्य की चिंता आप नहीं करोगे तो कौन करेगा. इंदौर बुरहानपुर फोर लेन अब तक बन ही रहा है.


खैर थोड़ी देर बाद ही बाकी की यात्रा का गुबार दिखने लगा. दूर देखा तो राहुल अपनी बहन प्रियंका और उनके पति रॉबर्ट के साथ थे. उनके चारों ओर सुरक्षाकर्मियों का घेरा. उस घेरे के बाद पहली रस्सी का घेरा और उसके आगे दूसरे रस्से का घेरा. इन घेरों में वही लोग प्रवेश पा सकते हैं जिनको इजाजत मिलती है. बाकी लोगों को दूर से ही राहुल की दुआ सलाम होती है. कुछ गांव वालों को राहुल की झलक मिलती है. कुछ को नहीं. मगर राहुल को देखना सभी चाहते हैं.


कन्याकुमारी से कश्मीर तक करीब साढे़ तीन हजार किलोमीटर की इस यात्रा में राहुल तो चल ही रहे हैं उनके साथ सौ से ज्यादा वो लोग हैं जो इस पूरे सफर पर साथ चल रहे हैं. पूरा गांव बसता है, जहां ये सब रुकते ठहरते हैं. रोज ये गांव बसता और उजड़ता है. ये गांव ट्रक पर लगाए गए कंटेनरों में होता है या फिर टेंट और तंबुओ में. रोज सुबह चार बजे उठना छह बजे से यात्रा पर रवाना होना. साढ़े आठ बजे कहीं चाय पीना और साढ़े दस बजे नाश्ता और खाने के लिए रुकने के बाद साढ़े तीन बजे से शाम सात बजे तक फिर चलना होता है.  


ये चलना ठहरना रोज बीस से पच्चीस किलोमीटर तो हो ही जाता है. मगर राहुल और उनके साथी चल रहे हैं. महाराष्ट के लक्ष्मण सदाशिवकर अहमदनगर जिले के संगमनेर तहसील के खुर्द गांव के हैं और कुछ दिनों पहले यात्रा से जुड़े हैं. बिलकुल ठेठ मराठी किसान, सिर पर गांधी टोपी, पतला पाजामा, सूती शर्ट और बगल में बैग, जिसमें उनकी यात्रा का पूरा सामान रखे हैं.


जब मुझे दस बजे मिले तो बस चाय पिए थे. बोले- इसी यात्रा के आसपास रुक जाता हूं. जो मिलता है खाता हूं, मगर अपने खर्चे पर यात्रा पूरी करूंगा. मगर यात्रा क्यों,,, अरे हम किसानों की हालत बहुत खराब है. आमदनी नहीं बढ़ रही. खर्चे कई गुने बढ़ गए. जब गांव में मैंने ये बात बताई कि राहुल किसानों की बात करता है और वो यात्रा कर रहा है तो गांव वालों ने चंदा कर मुझे तीन हजार रुपये दिए. लक्ष्मण यहीं नहीं रुके, गहरी बात कह गए. भारत के अच्छे भविष्य के लिए ये यात्रा जरूरी है.


कांग्रेस के कार्यकर्ताओं के अलावा बहुत सारे सामाजिक संगठनों के लोग भी इस यात्रा में हैं जो कुछ कुछ दूरी तक यात्रा कर रहे हैं. ये किसान संगठन के लोग हैं तो कुछ आदिवासी संगठनों के लोग हैं और सिविल सोसायटी के लोग तो हैं ही मगर लक्ष्मण जैसे लोग भी कम नहीं है, जो बस यात्रा में इसलिए जुड़ गए कि उनको राहुल का मकसद जम गया.


बडवानी के मेहगांव के हाकम धनारे भी उनमें से हैं जो यूं ही टकरा गए. बात की तो बहुत सारी बातें कह गए. देश की चिंता रोज गांव की चौपाल पर करते थे. एक दिन किसी ने राहुल की पदयात्रा के बारे में बताया तो क्षेत्र के विधायक से संपर्क किया और जुड़ गए. साधारण कद काठी के हाकम किसान हैं और दूसरे किसानों की तरह परेशान हैं. खाद बीज पेस्टीसाइड के बढ़ते दाम और फसलों की गिरती कीमतों के कुचक्र से कब निकलेंगे यही सोच कर चिंतित रहते हैं. मगर कहते हैं कि इस यात्रा का असर होगा. सरकार महंगाई और बेरोजगारी और किसानों की चिंता करेगी. जमा पूंजी के नाम पर दो हजार रुपये हैं और यात्रा में जहां आम कार्यकर्ता ठहरते हैं और फिर चल पड़ते हैं. 


भारत जोड़ो यात्रा को दूर से दिखने में ये राहुल और उनकी पार्टी की राजनीतिक यात्रा दिखती है मगर इस यात्रा में कई सारे यात्री चल रहे हैं जिनकी अपनी यात्राएं हैं और अपने मकसद हैं. ठीक उसी तरह जैसे बड़ी नदी के साथ अनेक सहायक नदियां भी बहती हैं. यात्राएं लोगों को जोड़ती और यात्रियों को मजबूत बनाती हैं. इस यात्रा को भी राजनीतिक नजरिए से हटकर ऐसे भी तो देखा जा सकता है.


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