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मंदिर में प्रवचन सुने बगैर राहुल गांधी को कैसे मिलेगी संघ के 'हिंदुत्व' की काट?

पिछले आठ साल में देश के राजनीतिक नक्शे के हाशिये पर आ चुकी सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस को अपना सियासी अस्तित्व बचाने के लिए इस कदर  जद्दोजहद करनी पड़ रही है, जो न तो उसने पहले कभी की और न ही उसने ये सोचा था कि राजनीति का असली मतलब सड़कों पर आकर पसीना बहाना भी होता है. शुक्र है कि उदयपुर के चिंतन-शिविर में कांग्रेस को इसका अहसास हुआ, जो बात सालों पहले समाजवादी नेता डॉ. राम मनोहर लोहिया ने कही थी कि " जिस दिन सड़क खामोश हो जायेगी, उस दिन देश की संसद आवारा हो जायेगी."

दरअसल, इसे कांग्रेस के उन वरिष्ठ नेताओं की सबसे बड़ी कमी समझा जाना चाहिये, जिन्होंने गांधी परिवार के सदस्यों को राजनीति के सही मतलब को उस आम के स्वाद की तरह समझाने की हिम्मत ही नहीं जुटाई, जिसका स्वाद खट्टा-मीठा होता है. अगर दस साल तक सत्ता में रहते हुए उस आम का मीठा स्वाद चखा है,तो जाहिर है कि उसका खट्टा स्वाद चखने का अर्थ यही है कि आपको विपक्ष की ऐसी मजबूत व आक्रामक भूमिका निभानी होगी,जो सरकार को मनमानी करने से रोक सके. उसके लिए सड़कों पर उतरना होगा, पसीना भी बहाना होगा,पुलिस की लाठियां भी खानी  होंगी और जेल भी जाना होगा. लोकतंत्र में यही विपक्ष की भूमिका है,जिसे वो ईमानदारी से निभाते हुए इसे एक जन आंदोलन का रूप देने में अगर कामयाब हो जाता है,तो फिर सत्ता का सिंहासन उससे ज्यादा दूर नहीं रह जाता.

इसे हम कांग्रेस की बदकिस्मती ही कहेंगे कि वो अपनी तमाम कोशिशों के बावजूद देश में बढ़ती हुई महंगाई या बेरोजगारी को उस जन आंदोलन में नहीं बदल सकी, जहां आम जनता को भी लगे कि ये विपक्षी पार्टी उसकी तकलीफ को ही अपनी आवाज दे रही है और वो आगे होकर उसके साथ जुड़ने की कोई पहल करे.

मतलब साफ है कि सत्ता खोने के बाद के इन 8 सालों में कांग्रेस के नेता आम जनता से लगभग पूरी तरह से कट चुके हैं,इसलिये आमतौर पर लोग उसके धरना-प्रदर्शन को महज नाटक मानकर न संजीदा होते हैं और न ही खुलकर उसके समर्थन में आते हैं.इसका मतलब है कि कांग्रेस भले ही संसद में विपक्ष की भूमिका निभा रही है लेकिन उसके नेता सड़कों पर उतरकर आम जनता को अपने साथ जोड़ने की कला में उतने माहिर नहीं हैं,जितनी महारत विपक्ष में रहते हुए बीजेपी नेताओं में हुआ करती थी.इसलिये पिछले दिनों जब चुनावी रणनीतिकार प्रशांत किशोर से कांग्रेस नेता अगला लोकसभा चुनाव जीतने का गुर सीख रहे थे,तब बीजेपी के एक बड़े नेता और केंद्रीय मंत्री ने कहा था कि, " काँग्रेस को फिलहाल ये सीखने की जरुरत है कि उसे सरकार के खिलाफ आक्रामक विपक्ष की भूमिका निभाने के लिए क्या-क्या करना चाहिये." वह बात भले ही उन्होंने मजाकिया लहज़े में कही होगी लेकिन कांग्रेस की सियासी हक़ीक़त तो यही बताती है.

उदयपुर के चिन्तन शिविर के समापन पर राहुल गांधी ने कांग्रेस कार्यकर्ताओं में जान फूंकने के लिए जो कहा है,उसका विरोध इसलिए भी नहीं होना चाहिए कि कांग्रेस की अपनी अलग विचारधारा है ,जो संघ व बीजेपी के बिल्कुल उलट है.राहुल गांधी ने वहां पार्टी नेताओं को संबोधित करते हुए कहा कि, "ये एक परिवार है और मैं आपके परिवार का हूं. मेरी लड़ाई आरएसएस और बीजेपी की विचारधारा से है जो देश के सामने एक खतरा है, उससे मेरी लड़ाई है. ये लोग जो नफरत फैलाते हैं, हिंसा फैलाते हैं... इसके खिलाफ मैं लड़ता हूं और लड़ना चाहता हूं. ये मेरी जिंदगी की लड़ाई है."

बेशक, राहुल गांधी ने एक विचारधारा के ख़िलाफ़ लड़ाई लड़ने के लिए खुद के साथ ही बाकी पार्टी नेताओं के दिलो दिमाग में ऑक्सीजन देने का काम किया है.लेकिन बड़ा सवाल ये है कि कांग्रेस के पास संघ व बीजेपी के उस 'हिंदुत्व' से निपटने के लिए कोई ऐसा रोड मेप तैयार है कि इस देश का बहुसंख्य हिंदू उसे मान भी ले और वो कांग्रेस का गुणगान भी करने लगे? शायद फिलहाल तो नहीं.

इसे समझने और अपनी आंखों से देखने के लिये राहुल और प्रियंका गांधी को अपने घर के नजदीक बने उस मंदिर में एक बार अवश्य जाना चाहिए, जहां सुबह-शाम प्रवचन दिए जाते हैं जिसमें आम लोगों के अलावा समाज के हर तबके के  प्रतिष्ठित लोग भी मौजूद होते हैं.वहां 'हिंदुत्व ' पर आए खतरे को बचाने का बखान होता है और अंत में  सब एक स्वर में 'जय श्री राम' का उदघोष लगाते हुए अपने धर्म की रक्षा करने का संकल्प लेते हैं. वैसे भी पुरानी कहावत है कि अपने दुश्मन की कमियां जाने बग़ैर आप उसे परास्त नहीं कर सकते.जाहिर है कि आप उन प्रवचनों के मुरीद नहीं बनेंगे लेकिन इतना तो पता चल जाएगा कि वहां क्या बोला जाता है और उसकी काट क्या हो सकती है.

अपनी कॉलोनी से लेकर नई दिल्ली के लुटियन जोन कहलाने वाले उन बड़े मंदिरों में होने वाले प्रवचनों को सुनने के बाद दिमाग में सवाल उठा कि 'हिंदुत्व' को लेकर धर्म की इस अफ़ीम के नशे का जब देश की राजधानी में ये हाल है,तो जरा सोचिये कि छोटे शहरों व कस्बों में इस नशे का कितना जबरदस्त असर होगा? इसलिए तमाम प्रयोगों के बावजूद लगता नहीं कि लोगों की आंखों पर लगे 'हिंदुत्व' के चश्मे को उतारने में कांग्रेस इतनी जल्द व आसानी से कामयाब हो पायेगी.

(नोट- उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.)

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