कांग्रेस में बीबीसी डॉक्यूमेंट्री को लेकर जो कुछ भी चल रहा है वो एक राजनीतिक दल की वैचारिक दुविधा को दिखाता है, इससे ये पता चलता है कि उस राजनीतिक दल ने अपनी बात को ठीक तरह से पेश करने का कोई मैकेनिज्म नहीं बनाया है. हर राजनीतिक दल के सामने इस तरह की कई चुनौतियां आती हैं, उस पर राजनीतिक दल अपने प्रकोष्ठ या फिर ऐसे लोगों को लगााता है जो उस विषय की जानकारी रखते हैं. उसके बाद वो लीडरशिप तो अपना मत देते हैं और बाद में पार्टी उस पर फैसला लेती है. 


कांग्रेस में पिछले काफी वक्त से ये समस्या देखी जा रही है, कई किताबें आई हैं जो नेहरू-गांधी परिवार को लेकर लिखी गई हैं. इन्हें लेकर भी कांग्रेस का रवैया बड़ा अटपटा और हैरान करने वाला रहा है. लोगों ने कांग्रेस के इस रवैये पर उंगलियां उठाईं. क्योंकि कांग्रेस दुनिया की पुरानी पार्टियों में से एक है, उसमें नेहरू काल, इंदिरा काल, नरसिम्हा राव काल को लोगों ने देखा है और इसमें तरह-तरह के विवाद देखे गए. 


ये बात भी जरूरी है कि कांग्रेस के अंदर अपनी बात करने के लिए नेता स्वतंत्र हैं या नहीं...क्योंकि एक तरफ कांग्रेस की तरफ से इल्जाम लगाया जाता है कि सत्ताधारी दल और उससे जुड़े दलों में आवाज नहीं उठाई जा सकती है, वहां अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता नहीं है और इसका असर देश पर भी दिख रहा है. हालांकि कांग्रेस में खुद इसका मैकेनिज्म नहीं है. 


कांग्रेस में मतभेद की असली वजह
कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे की बात करें तो उनके पास तमाम शक्तियां हैं. वो इन शक्तियों का इस्तेमाल कर ऐसे मामलों को लेकर बयान दे सकते हैं. कांग्रेस में हर मामले में एक से ज्यादा राय होती हैं. जैसे बीजेपी एक विचारधारा से जुड़ी पार्टी है, वामदल की भी अपनी विचारधारा है... ऐसे दलों में हां या ना का फैसला करना काफी आसान होता है. कांग्रेस की विचारधारा में काफी चीजों का समावेश है. जैसे धर्म और आस्था का मामला है, उस पर भाजपा नेताओं का एक ही मत होगा. ठीक इसी तरह वामदलों का भी इस पर एक मत होगा. वहीं अगर कांग्रेस के लोगों से बात करेंगे तो इस पर अलग-अलग मत मिल जाएंगे. 


इसे जवाहरलाल नेहरू और महात्मा गांधी के मतभेद से समझा जा सकता है. इसे लेकर दोनों के बीच पत्राचार हुआ था, महात्मा गांधी कहते थे कि धर्म के बिना राजनीति अधूरी है, वहीं नेहरू जी कहा करते थे कि धर्म को राजनीति से अलग रखना चाहिए. कांग्रेस में कश्मीर के मसले को लेकर भी कई तरह के अलग-अलग मत हैं. आर्थिक रिफॉर्म जिसे कांग्रेस अपनी बहुत बड़ी उपलब्धि मानती है, उसे लेकर भी पार्टी के अंदर अलग-अलग राय रखने वाले लोग हैं. बहुत से लोगों का मानना है कि इस रिफॉर्म से कांग्रेस को नुकसान हुआ है.


एके एंटनी को लेकर कांग्रेस का रुख
ताजा मामले की बात करें तो एके एंटनी के बेटे अनिल एंटनी को इस्तीफा देना पड़ा. एंटनी इस वक्त इतने सक्रिय नहीं रहे हैं, लेकिन जब भी उन्होंने पार्टी लाइन से हटकर बात कही तो उनका बाल भी बांका नहीं हुआ, लेकिन उनके बेटे के साथ ऐसा नहीं हुआ. ये मुझे लगता है कि काफी दुर्भाग्यपूर्ण बात है. जब 1999 में सोनिया गांधी के विदेशी मूल के होने का मुद्दा शरद पवार और संगमा और तारीक अनवर ने उठाया तो उन तीनों को पार्टी से निष्कासित कर दिया गया. तब पार्टी के इस फैसले का एके एंटनी ने खुलकर विरोध किया, लेकिन उनके खिलाफ कुछ भी एक्शन नहीं लिया गया. एंटनी के बयान को किसी ने भी गलत नहीं बताया. 


इकोनॉमिक रिफॉर्म्स को लेकर भी एंटनी की अलग राय थी. उन्होंने सीधे तौर पर कहा कि इससे कांग्रेस को नुकसान हुआ. इसके अलावा एंटनी ने कहा है कि कांग्रेस को बहुसंख्यकों को साथ जोड़ना चाहिए, उनका कहना था कि अल्पसंख्यकों के प्रति कांग्रेस का जो नरम रवैया नजर आता है उससे पार्टी को नुकसान पहुंचता है. इन तमाम मामलों के बावजूद एंटनी के खिलाफ कार्रवाई तो छोड़िए बयान तक नहीं दिया गया. वहीं उनके बेटे को चलता कर दिया गया. 


इसकी सबसे बड़ी वजह जो मुझे नजर आती है वो ये है कि कांग्रेस में जो बहुत से लोग बड़े पदों पर बैठे हुए हैं वो संगठन से नहीं आए हैं, उनकी लेटरल एंट्री हुई है. खासतौर पर ये चीज कांग्रेस के कम्युनिकेशन डिपार्टमेंट में नजर आते हैं. अगर आप गहराई से देखेंगे तो ये लोग सेवादल, यूथ कांग्रेस, महिला कांग्रेस या फिर एनएसयूआई से नहीं आए हैं. ऐसे में विचारधारा का अभाव होता है. 


डॉक्यूमेंट्री से फायदा-नुकसान नहीं 
विवादित डॉक्यूमेंट्री को चुनाव में मुद्दा बनाने या फिर इसका फायदा नुकसान होने की बात हो रही है. मेरा मानना है कि भारत एक बहुत बड़ा देश है, यहां हर तरह की बातें होती हैं. कहा जाता है कि सोनिया गांधी जी ने पीएम मोदी को मौत का सौदागर कहा था, इसलिए कांग्रेस को नुकसान हुआ, लेकिन मैं पूछता हूं कि अगर ये बयान नहीं दिया होता तो क्या कांग्रेस वहां चुनाव जीत जाती? क्या मणिशंकर अय्यर ने जो अपशब्द इस्तेमाल किए थे, वो नहीं किए होते तो क्या 2014 में कांग्रेस चुनाव जीत सकती थी? अगर आप चुनाव नतीजों की गहराई में जाएं तो ऐसे मामलों का ज्यादा असर नजर नहीं आता है. ये चीजें ऐसी होती हैं जिन्हें हम आसान बनाने की कोशिश करते हैं, इसीलिए कहा जाता है कि चुनाव इसलिए हार गए कि ये बयान दिया था, हिंदू-मुस्लिम हुआ था...


कांग्रेस के पास कई सारे विकल्प हैं, कांग्रेस इस मामले पर ये कह सकती है कि हमारे यहां अभिव्यक्ति की आजादी है जो चाहे वो बोल सकता है. हमारा इस पर कोई स्टैंड नहीं है. जैसा कांग्रेस ने राष्ट्रपति के चुनाव में किया था. जब कांग्रेस की तरफ से कहा गया था कि आप अपनी अंतरात्मा की आवाज पर वोट दें, जब राष्ट्रपति के चुनाव में अंतरात्मा से वोट दिया जा सकता है तो इसी तरह किसी विषय पर कोई अपने विचार क्यों नहीं पेश कर सकता है. कांग्रेस को ऐसे मामलों पर अपना स्टैंड लेना चाहिए, जिससे पार्टी के नेताओं और कार्यकर्ताओं को पता चले कि हमारी पार्टी की लाइन इस विषय पर क्या है. 



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