'कांग्रेस को नहीं है पीएम पद में दिलचस्पी', इस घोषणा के पीछे है पार्टी की सोची-समझी रणनीति और राजनीति, नहीं है कोई त्याग
बेंगलुरु में 17-18 जुलाई को विपक्षी दलों का महाजुटान हुआ. इस महाजुटान का मकसद एक महागठबंधन बनाना है, जो नरेंद्र मोदी और भाजपा को आगामी लोकसभा चुनाव में सत्ता से बाहर का रास्ता दिखा सके. इसी कड़ी में पहली बैठक पटना में हुई थी. नीतीश कुमार पिछले लगभग एक साल से इस पूरी कवायद में जुटे हैं और कोलकाता से भुवनेश्वर, दिल्ली से मुंबई तक की यात्राएं भी उन्होंने की है. 15 दलों से बढ़कर इस बार 26 दलों की मीटिंग हुई. सबसे चौंकाने वाला रवैया कांग्रेस का रहा. जिस मसले पर पटना की बैठक से केजरीवाल 'रूठ' कर दिल्ली चले गए थे, कांग्रेस ने उसी 'दिल्ली अध्यादेश' के मसले पर आम आदमी पार्टी का समर्थन करने की घोषणा भी कर दी. इतना ही नहीं, कांग्रेस ने यह भी स्पष्ट तौर पर कहा है कि प्रधानमंत्री पद पाने की उसकी कोई मंशा नहीं है, कांग्रेस ने इसे विचारधारा और देश को बचाने की लड़ाई बताते हुए इस 'त्याग' की घोषणा की. इस त्याग ने लोगों को कई तरह से सोचने पर मजबूर कर दिया है.
कांग्रेस का रवैया चौंकाऊ, पर अप्रत्याशित नहीं
बेंगलुरू की मीटिंग में सब कुछ मीठा-मीठा ही नहीं रहा. विपक्षी पार्टियों के गठबंधन का नाम 'इंडियन नेशनल डेवलपमेंटल इनक्लूसिव अलायंस (इंडिया)' रखा गया है, जिस पर विवाद भी शुरू हो गया है. कानूनी पक्ष को देखें तो इंडिया या भारत जैसा नाम रखना मुश्किल होगा, हां उसके आगे या पीछे कुछ न कुछ जोड़कर यह गठबंधन अपना नाम रख सकता है. नाम पर भले जो भी विवाद हो, लेकिन ‘इंडिया’ नाम रखने का श्रेय लेने के लिए टीएमसी, आम आदमी पार्टी और कांग्रेस तीनों की तरफ से ट्वीट किए गए. गठबंधन की अगली बैठक मुंबई में होगी और उसी में 11 सदस्यीय समिति का भी चयन होगा और कनवेनर यानी संयोजक का भी.
कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे ने कहा है कि कई राज्यों में कांग्रेस सहित बाकी पार्टियों के बीच मतभेद हैं लेकिन अभी उन मुद्दों को पीछे रख दिया गया है. जाहिर है कि इसके साथ ही देश, संविधान और प्रजातंत्र को बचाने के भी दावे और प्रतिदावे किए गए. यह सब कुछ हुआ, लेकिन नीतीश कुमार को संयोजक बनाने की घोषणा नहीं हुई. ऊपर से 11 सदस्यीय समिति का भी निर्माण कर दिया गया है. नीतीश के बेंगलुरू में जॉइंट प्रेस-कांफ्रेंस से किनारा करने और पटना आकर भी प्रेस से दूरी बरतने से अफवाहों का बाज़ार तुरंत गर्म हो गया है. भाजपा ने लगे हाथों नीतीश के 'अपमान' को भी मुद्दा बना दिया और कहा कि उनकी मेहनत पर कांग्रेस ने फसल काट ली है.
व्यावहारिकता और राजनीति, न कि त्याग है कारण
मूल प्रश्न तो यह है कि कांग्रेस के इस 'त्याग' के पीछे आखिर कारण क्या है? तो, कारण है राजनीति और व्यावहारिकता. हमें याद रखना चाहिए कि 2004 में सोनिया गांधी ने तो इससे भी बड़ा 'त्याग' किया था, भले ही कांस्पिरैसी थियरी पेश करनेवाले ये कहते रहें कि खुद तत्कालीन राष्ट्रपति ने उन्हें समझाइश दी थी, या उनके नाम पर पर्याप्त समर्थन नहीं जुट रहा था, लेकिन सोनिया ने न केवल सरकार बनवाई, बल्कि पूरे 10 साल तक वह प्रॉक्सी प्राइम-मिनिस्टर भी रहीं, ऐसा आलोचक कहते हैं. कांग्रेस को पता है कि वह राहुल गांधी पर कई बार दांव खेल चुकी है और हार चुकी है.
इसलिए, 2024 के आखिरी मौके को वह बिना राहुल के नाम ही भुनाना चाह रही है. कांग्रेस को यह भी पता है कि मोदी के खिलाफ जैसे ही कैंडिडेट घोषित किया गया तो लोग तुलना शुरू कर देंगे, खुद मोदी उस कैंडिडेट पर हमलावर होंगे और अपने भाषणों से उसके धुर्रे उड़ाएंगे. इसी वजह से कांग्रेस रहस्य कायम रखना चाहती है कि कम से कम उसका तो फायदा मिल सके. तीसरे, कांग्रेस यह अच्छी तरह जानती है कि अभी राहुल गांधी को 'मोदी सरनेम मामले' में राहत नहीं मिली है और सुप्रीम कोर्ट में उनका मसला अगर 2024 चुनाव के पहले साफ नहीं हुआ, तो राहुल चुनाव भी नहीं लड़ पाएंगे.
कांग्रेस छोटे दलों के मन से अपना डर मिटाकर उन जगहों पर शेयर भी चाहती है, जहां उसकी हालत खराब है. अगर बिहार, यूपी और बंगाल को ही जोड़ लें तो कांग्रेस इन राज्यों में दूर-दूर तक कहीं नहीं है. यानी, चुनाव में -162 सीटों से तो उसकी शुरुआत ही हो रही है. कांग्रेस अपने इस बड़े 'त्याग' की कीमत भी इन जगहों पर वसूलना चाहती है. नीतीश के साथ ही लालू-तेजस्वी के भी एक ही प्लेन से लौट आने की घटना यह तो बताती है कि कहीं न कहीं झोल है. नीतीश कुमार 'इंडिया' नाम से भी खुश नहीं हैं और वह इकलौते नेता थे, जिन्होंने इसका विरोध किया था. सोचने की बात तो यह भी है कि अगर चार्टर्ड प्लेन से ही सबको वापस आना था, तो प्रेस-कांफ्रेस में भाग लेकर, बोलकर भी आया जा सकता था. बिहार में ऐसा कुछ बहुत ही जरूरी तो नहीं दिख रहा है, फिलहाल. नीतीश और लालू शायद इसी चिंता में हैं कि अगर बिहार में कांग्रेस ने अधिक सीटें मांग लीं, तो फिर क्या होगा? बिहार और यूपी में तो कांग्रेस को टिकट देना मतलब उन सीटों पर हार कबूल कर लेना ही हाल-फिलहाल के वर्षों में दिखा है.
कांग्रेस वसूलेगी पूरी कीमत
कांग्रेस ने आप को अध्यादेश के मुद्दे पर समर्थन दे दिया है, तो वह दिल्ली और पंजाब में इसकी कीमत भी वसूलना चाहेगी. कांग्रेस को ग्रैंड ओल्ड पार्टी यूं ही नहीं कहा जाता है. वह राजनीति के खेल की सबसे पुरानी और कुशल खिलाड़ी है. फिलहाल, कांग्रेस सामने दिख रहे मसलों का समाधान कर रही है, उसको पता है कि तीन-चार बड़े राज्यों में अगर वह कुछ भी ले आती है, तो यह उसका फायदा ही होगा, क्योंकि वहां वह शून्य है. इसके अलावा महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, कर्नाटक, तमिलनाडु वगैरह से उसको ठीकठाक सीटें मिलने की उम्मीदें हैं. फिलहाल, तो पीएम पद प्रत्याशी में कोई दिलचस्पी न दिखाकर कांग्रेस ने अपने साथी दलों को एक बड़ा झुनझुना पकड़ा ही दिया है. इस गठबंधन में शामिल होनेवाले नेता अभी 1996 की स्थिति दुहराने की दुआ कर रहे होंगे, जबकि बिना किसी जनाधार वाले इंद्रकुमार गुजराल और देवेगौड़ा भी प्रधानमंत्री बन गए थे. कांग्रेस ने अपने 'त्याग' वाले दांव से अपने ही खेमे में शामिल होनेवाले दलों को बैकफुट पर तो ला ही दिया है.
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