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कांग्रेस का अति-उत्साह और अकेले फैसला लेने की आदत कहीं न पड़ जाए विपक्षी गठबंधन पर भारी, नीतीश-ममता का खिंचा रहना नहीं है शुभ संकेत

यूं तो आम चुनाव में अभी लगभग छह महीने का समय बाकी है, लेकिन एनडीए का मुकाबला करने के लिए बने विपक्षी गठबंधन आइएनडीआइए में सब कुछ ठीक नहीं चल रहा है. जिस तरह की एकता का प्रदर्शन पहले पटना, फिर बेंगलुरू में हुआ, वह शरद पवार के घर पर हुई बैठक के समय दरकने लगा और अब आगे के लक्षण भी ठीक नहीं दिख रहे हैं. बीते एक हफ्ते में ही दो-तीन ऐसी घटनाएं हुई हैं, जिससे एकता की पोल खुल चुकी है और आगे की राह कठिन दिखने लगी है. पहला उदाहरण केजरीवाल का. वह छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश में चुनावी सभा को संबोधित करते हुए एक साथ भाजपा और कांग्रेस दोनों पर ही हमलावर हैं. छग में तो वह कांग्रेस के बारे में बोल गए कि जिसकी खुद की गारंटी नहीं, उसका भरोसा कभी मत करना. दूसरा उदाहरण, नीतीश कुमार का. जब इंडी अलायंस ने 14 टीवी एंकर्स के बहिष्कार का फैसला किया और इस पर उनसे प्रेस रिपोर्टरों ने सवाल पूछा तो उन्होंने मामले की जानकारी ही नहीं होने की बात कह दी. तीसरा उदाहरण, मध्य प्रदेश में प्रस्तावित अक्टूबर माह के पहले सप्ताह में होनेवाली गठबंधन की पहली रैली का, जो टाल दी गयी. उस रैली को लेकर खुद कांग्रेस के प्रदेश प्रभारी सुरजेवाला और मुख्यमंत्री पद के संभावित प्रत्याशी कमलनाथ के ही सुर नहीं मिल रहे थे. इन तीनों उदाहरणों में एक बात कॉमन है, वह है- कांग्रेस का रवैया, जो सहयोग की जगह इम्पोज करने का हो गया है. 

कांग्रेस का रवैया डुबो न दे एकता की नाव

कर्नाटक चुनाव में जीत के बाद से ही कांग्रेस अति-उत्साहित और काफी आत्मविश्वस्त है. वैसे, थोड़ा पीछे जाएं तो इंडी अलायंस को बनाने के लिए नीतीश कुमार ने सबसे अधिक मेहनत की है. वह लगभग छह महीने तक पूरे देश में घूम-घूमकर भाजपा के खिलाफ माहौल बनाने और राजनीतिक दलों को इकट्ठा करने में लगे रहे. कांग्रेस के रवैए का पूर्वानुमान करते हुए ही ममता बनर्जी ने नीतीश को पहली बैठक पटना में करने की सलाह दी थी. इसका कारण यही है कि पुरानी कांग्रेसी होने के नाते ममता इस बात से अच्छी तरह वाकिफ हैं कि कांग्रेस की कार्य-संस्कृति क्या है और एक विशेष परिवार के बिना वहां किसी तरह का फैसला नहीं हो सकता है. हालांकि, यह कोशिश बेंगलुरू जाते-जाते नाकाम हो गयी और कांग्रेस ने इंडी अलायंस पर अपना कब्जा कर लिया है. इसके पीछे कांग्रेस की अपनी रणनीति और राजनीतिक रिजल्ट का उसके पक्ष में आना भी है. पहले हिमाचल और फिर कर्नाटक की जीत से उत्साहित कांग्रेस अब एकतरफा फैसले ले रही है और वह 'बड़े भाई की भूमिका माइनस कर्तव्य' में पूरी तरह आ गयी है. ऐंकर्स के बहिष्कार का फैसला अगर नीतीश कुमार तक को नहीं बताया गया तो यह बड़ी बात है. नीतीश कुमार ने पत्रकारों से बात करते हुए कहा कि उनके गठबंधन के कुछ लोगों को लगा होगा कि कुछ इधर-उधर हो रहा है, तो उन्होंने यह फैसला लिया, लेकिन वह पूरी तरह अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के साथ हैं. नीतीश कुमार का यह बयान जाहिर तौर पर कांग्रेस के लिए संदेश है. 

राज्यों के चुनाव और एकता का फूटा ढोल

अभी बुधवार यानी 20 सितंबर को महिला आरक्षण बिल पर बोलते हुए राहुल गांधी ने जाति-जनगणना की बात की. उससे पहले कांग्रेस महासचिव के सी वेणुगोपाल ने भी इसको लेकर बयान दिया था. गौर करने की बात है कि तृणमूल कांग्रेस सुप्रीम ममता बनर्जी जाति-जनगणना को मुद्दा बनाने के पक्ष में नहीं हैं, फिर भी कांग्रेस उसे लेकर आगे बढ़ रही है. अगर पांच राज्यों के चुनाव देखें तो उसमें भी भ्रम की स्थिति फैली हुई है. मध्य प्रदेश में समाजवादी पार्टी और आम आदमी पार्टी, दोनों ही ताल ठोंक रहे हैं. कांग्रेस की पंजाब और दिल्ली की प्रदेश इकाइयां लगातार केजरीवाल से दूरी बनाने को कह रही हैं.

केजरीवाल जब छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश में रैली करते हैं तो जितने हमलावर भाजपा पर होते हैं, उतने ही कांग्रेस के ऊपर भी. इसमें गठबंधन की रेल कहां जा रही है, यह बस सोचा ही जा सकता है. मुंबई में समन्वय समिति की प्रेस कांफ्रेंस में अडानी के मुद्दे को लेकर भी कांग्रेस का उसकी मर्जी थोपने वाला रवैया ही कायम रहा. ममता बनर्जी तो पूरी तरह इस मुद्दे के खिलाफ थीं, और साथ में कुछ अन्य दल भी यह नहीं चाहते थे, लेकिन कांग्रेस ने प्रेस कांफ्रेंस में ही अडानी का मुद्दा उठा दिया. सनातन धर्म को लेकर डीएमके नेता उदयनिधि का बयान भी आइएनडीआइए गठबंधन की फांस है. उसको लेकर तो खुद कांग्रेस में तस्वीर साफ नहीं है. इसीलिए, जब कमलनाथ ने पत्रकारों से रैली रद्द होने की बात कही, तो सुरजेवाला कह रहे थे कि अभी दलों में बातचीत चल रही है और रैली के बारे में कुछ भी समय से पता चल जाएगा. जब कांग्रेस के संभावित मुख्यमंत्री प्रत्याशी कमलनाथ और प्रदेश प्रभारी सुरजेवाला के बीच ही इतना संशय है, तो विपक्षी गठबंधन की हालत क्या होगी?

राहुल का कांपीटिशन हटा रही कांग्रेस

सीट शेयरिंग पर भी आइएनडीआइए गठबंधन के दलों के बीच बात कांग्रेस के हठधर्मी रवैए से नहीं बन पा रही है. दो राज्यों की जीत से उत्साहित कांग्रेस को पूरा यकीन है कि पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव में उसी को जीत मिलेगी. कुछ चुनाव सर्वेक्षण ऐसा दिखा भी रहे हैं. कांग्रेस का मानना है कि अगर सीट अभी से साझा करने का फॉर्मूला बन गया तो शायद उसे घाटा हो जाए. अगर चुनावी नतीजे उसके मन-मुताबिक आए तो फिर वह पूरी ठसक और धमक से अपना हिस्सा अधिक मांगेगी. इसीलिए, कांग्रेस फिलहाल वेट एंड वॉच पर काम कर रही है. इसी तरह वह नीतीश और ममता को भी किनारे बहुत ही धीमे से और छिपे तरीके से हटा रही है, ताकि राहुल गांधी का कोई कांपिटीशन न बच जाए. नीतीश कुमार की पार्टी उनको पीएम कैंडिडेट मानती है, तो ममता की पार्टी उनको. अभी तक गठबंधन के संयोजन पर बात भी इसीलिए नहीं बन पा रही है. यह तो जगजाहिर है कि राहुल समन्वय के मामले में बेहद कच्चे हैं औऱ कांग्रेस छोड़कर दूसरे दलों में या घर बैठे कई नेता इसकी तस्दीक कर सकते हैं.

कांग्रेस के इंतजार करने और देखने की नीति हालांकि बाकी दलों को बेचैन कर रही है और इसी वजह से गठबंधन का भविष्य भी खतरे में दिखाई दे रहा है. समय रहते इन गांठों को न सुलझाया गया, तो शायद चलने से पहले ही आइएनडीआइए का जहाज बैठ भी सकता है.

[नोट- उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. यह ज़रूरी नहीं है कि एबीपी न्यूज़ ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.]

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