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'2024 में कहीं अस्तित्व पर संकट न आ जाए, विपक्षी एकजुटता के लिए पहल कांग्रेस की होनी चाहिए मजबूरी'

खोई हुई राजनीतिक ज़मीन वापस पाने की दिशा में रायपुर के 85वें महाधिवेशन से कांग्रेस को क्या हासिल होगा, ये तो भविष्य में ही पता चलेगा. एक बात जरूर है कि कांग्रेस की भविष्य की राह दिन-ब-दिन मुश्किल और जटिल होते जा रही है.

राष्ट्रीय स्तर पर बीजेपी जितनी मजबूत है, उसे 2024 के लोकसभा चुनाव में चुनौती देने के लिए कांग्रेस को कुछ ठोस कदम उठाने होंगे. कांग्रेस ने भले ही मल्लिकार्जुन खरगे को पार्टी का अध्यक्ष बना दिया हो, लेकिन उनकी तरफ से अध्यक्ष बनने के 4 महीने बाद भी कोई ऐसा निर्णय या रणनीति सामने नहीं आई है, जिससे ये दिखता हो कि पार्टी देशव्यापी स्तर पर बीजेपी का विकल्प बन सकती है.

पुराने ढर्रे पर ही क्यों चल रही है कांग्रेस?

रायुपर के महाधिवेशन में कांग्रेस की संचालन समिति ने फैसला किया है कि पार्टी की शीर्ष नीति निर्धारक इकाई 'कांग्रेस कार्य समिति' (CWC) के सदस्यों का चुनाव नहीं होगा.  पार्टी अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे सदस्यों को नामित करेंगे.  कांग्रेस से ताल्लुक रखने वाले प्रधानमंत्री, पूर्व प्रधानमंत्री और पार्टी के पूर्व अध्यक्ष सीडब्ल्यूसी के स्थायी सदस्य होंगे. इस तरह की व्यवस्था भी बनाई जा रही है. इस फैसले की असली मंशा ही है कि सोनिया गांधी और राहुल गांधी अपने आप पार्टी की नयी कार्य समिति के सदस्य हो जाएंगे. इन फैसलों से एक बात और निकलकर सामने आ रही है कि भले ही पार्टी की कमान गांधी परिवार से बाहर के किसी शख्स को सौंप दी गई हो, लेकिन कांग्रेस पुराने ढर्रे पर ही चलने वाली है. हद तो तब हो गई जब दिखावे के लिए संचालन समिति की इस बैठक में न तो सोनिया गांधी शामिल हुईं और न ही राहुल गांधी. वैसे पिछले कुछ दशकों से परंपरा रही है कि पार्टी अध्यक्ष ही सीडब्ल्यूसी के सदस्यों को मनोनीत कर देते हैं, लेकिन अभी वो वक्त था जिसमें पार्टी को ये दिखाना था कि वो अब पुराने ढर्रे से बदलकर नई राजनीति की दिशा में आगे बढ़ रही है.

राष्ट्रीय स्तर पर मजबूत विपक्ष वक्त की जरूरत

भारतीय लोकतंत्र के लिए ये बेहद जरूरी है कि राष्ट्रीय स्तर पर एक मजबूत विपक्ष हो. लेकिन ये हम सब जानते हैं कि 2014 से ऐसा कतई नहीं है. संख्या बल के हिसाब से तो कह ही सकते हैं. विपक्ष है भी तो बिखरा हुआ. कांग्रेस को इस दिशा में गंभीरता से प्रयास करना चाहिए. हालांकि उसकी ओर से इस दिशा में कोई संजीगदी दिख नहीं रही है. 2024 के आम चुनाव में अब कमोबेश एक साल का ही वक्त रह गया है. बीजेपी राष्ट्रीय स्तर पर इतनी मजबूत है कि एकजुट विपक्ष ही उसकी सत्ता के लिए थोड़ी बहुत चुनौती पेश कर सकता है. थोड़ी बहुत इसलिए कि यूनिट के तौर पर संगठन और कार्यकर्ता के लिहाज से बीजेपी का मुकाबला करना किसी भी पार्टी के लिए फिलहाल मुश्किल है.

बिखरा विपक्ष बीजेपी के ही फायदे में

कांग्रेस को एक बात भलीभांति समझ लेनी चाहिए कि मौजूदा समय में उसकी राजनीतिक हैसियत इतनी नहीं है कि बाकी विपक्षी दल उसके पास आएंगे. दूसरी बात जितने भी बीजेपी विरोधी दल है, हम कह सकते हैं कि उनमें सिर्फ कांग्रेस ही एकमात्र पार्टी है जिसका जनाधार सिर्फ एक राज्य तक सीमित नहीं है, उसके पास कमोबेश राष्ट्रव्यापी आधार है. कांग्रेस को छोड़ दें तो फिलहाल ममता बनर्जी, नीतीश कुमार और के चंद्रशेखर राव अपने-अपने हिसाब से विपक्षी दलों को लामबंद करने में जुटे हैं. इनमें ममता बनर्जी का सियासी ज़मीन पश्चिम बंगाल, नीतीश का बिहार और केसीआर का तेलंगाना में ही है. चाहे ये तीनों कितना भी प्रयास करें, फिलहाल राष्ट्रीय स्तर पर इनकी राजनीतिक हैसियत क्षेत्रीय क्षत्रप की ही है. इन तीनों नेताओं के दिमाग में भले ही राष्ट्रीय मंसूबे पल रहे हों, लेकिन बगैर कांग्रेस के उन मंसूबों से बीजेपी को नुकसान की बजाय फायदा ही होगा. जितना विरोधी वोट बंटेगा, बीजेपी उतनी मजबूत होते जाएगी.

कांग्रेस का दायित्व है विपक्ष को एकजुट करना

ऐसे हालात में कांग्रेस का ये राजनीतिक दायित्व भी बन जाता है कि वो विपक्षी पार्टियों को एकजुट करने के लिए गंभीरता से पहल करे और वो भी बिना समय गवाए क्योंकि 2024 के चुनाम में अब ज्यादा समय नहीं रह गया है. ये कांग्रेस के लिए ही ज्यादा फायदेमंद रहेगा. ममता, नीतीश और केसीआर की राजनीति एक सूबे पर आधारित रही है और अगर 2024 में उनका दायरा नहीं बढ़ा, तब भी उनकी राजनीति पर ज्यादा असर नहीं पड़ने वाला. लेकिन कांग्रेस अगर 2024 में बेहतर प्रदर्शन कर बीजेपी को चुनौती नहीं दे पाई तो उसके सामने अस्तित्व का भी संकट खड़ा हो सकता है. ये बात तय है कि अकेले कांग्रेस 2024 में नरेंद्र मोदी की सत्ता को चुनौती नहीं दे सकती. इसमें शायद ही किसी राजनीतिक विश्लेषक को संदेह हो. केंद्र की राजनीति में जितनी बड़ी ताकत बीजेपी बन गई है, उसको देखते हुए कांग्रेस के सामने एकजुट विपक्ष ही एकमात्र रास्ता है और इसके लिए अभी से ही कांग्रेस को सभी विपक्षी दलों से संवाद करना चाहिए. ये बात ममता, नीतीश और केसीआर को भी अच्छे से पता है कि बगैर कांग्रेस विपक्षी दलों का कोई भी गुट बीजेपी के लिए खतरा नहीं बन सकता है. नीतीश ये बात कह भी चुके हैं कि कांग्रेस को बीजेपी विरोधी दलों को एकजुट कर गठबंधन बनाना चाहिए. नीतीश का तो इतना तक कहना है कि अगर कांग्रेस ऐसा कर पाएगी तो 2024 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी को 100 से भी कम सीट पर रोका जा सकता है. हालांकि ये नीतीश का मानना है, लेकिन इतना तो तय है कि बीजेपी को थोड़ी भी चुनौती मिलेगी तो वो सिर्फ और सिर्फ एकजुट विपक्ष से ही मिल सकती है.

एकजुट विपक्ष का सबसे ज्यादा फायदा कांग्रेस को

2024 में अगर बीजेपी को चुनौती देना है तो विपक्षी एकता की बागडोर कांग्रेस को अपने हाथों में लेनी होगी.  इसके लिए उसे देशभर के तमाम बीजेपी विरोधी दलों से बातचीत कर उनकी चिंताओं पर भी गौर करना होगा. इस प्रक्रिया में हो सकता है कि उसे कुछ राज्यों में कुछ सीटों का नुकसान उठाना पड़े, लेकिन राजनीतिक दूरदर्शिता यही कहती है कि कांग्रेस को इस नुकसान में भी फायदा ही है. अगर सभी विरोधी दलों के एकजुट होने से 2024 में बीजेपी के विजय रथ को रोकने में कामयाबी मिलने की तनिक भी संभावना बनती है, तो ये कांग्रेस के लिए सबसे ज्यादा फायदेमंद होगा. विपक्षी दलों की एकजुटता से कांग्रेस की सीटें बढ़ने के साथ ही उसके जनाधार का दायरा भी व्यापक होगा.

कांग्रेस अपने सबसे खराब दौर में

कोई भी रणनीति बनाने से पहले कांग्रेस को ये बात हमेशा जे़हन में रखनी चाहिए कि पिछले दो लोकसभा चुनाव में उसका क्या हश्र हुआ था. 2014 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस 19.31 फीसदी वोटों के साथ महज़ 44 सीटों पर सिमट गई थी. उसे 162 सीटों और 9 फीसदी से ज्यादा वोटों का नुकसान हुआ था. कांग्रेस का वोट शेयर कभी इतना कम नहीं हुआ था. ये कांग्रेस का अब तक सबसे खराब प्रदर्शन था. स्थिति इतनी बुरी थी कि लोकसभा में आधिकारिक तौर से विपक्षी दल का दर्जा हासिल करने भर भी सीटें नहीं हासिल कर पाई थी. ये एक तरह से खतरे की घंटी जैसी थी. कांग्रेस ने इस प्रदर्शन से भी कोई सबक नहीं लिया. तभी तो इसके अगले चुनाव यानी 2019 में भी कांग्रेस का प्रदर्शन कुछ ऐसा ही रहा. वोट बैंक में तो कुछ ज्यादा सुधार नहीं हुआ, हालांकि सीटें 44 से बढ़कर 52 हो गई.

राज्यों में भी सिमटती गई कांग्रेस

पिछले 9 साल में राज्यों में भी कांग्रेस की सियासी ज़मीन लगातार दड़कते ही जा रही है. अब तो ये गिनती भी बेमानी लगती है कि इन सालों में कांग्रेस को दो लोकसभा समेत कितनी विधानसभा चुनाव में मात खानी पड़ी है. फिलहाल सिर्फ़ 3 राज्यों हिमाचल प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में ही कांग्रेस की अपने बलबूते सरकार है. उसमें भी छत्तीसगढ़ और राजस्थान में इस साल चुनाव होना है और पार्टी इन दोनों ही राज्यों में अंदरूनी कलह से जूझ रही है. राजस्थान में तो पिछले 4 साल से मुख्यमंत्री अशोक गहलोत और सचिन पायलट के बीच ज़बानी जंग निचले स्तर तक पहुंच चुकी है. वहीं छत्तीसगढ़ में मुख्यमंत्री भूपेश बघेल और स्वास्थ्य मंत्री टीएस सिंह देव के बीच आपसी खींचतान का समाधान भी पार्टी नहीं निकाल पाई है. टीएस सिंह देव ने तो अधिवेशन के बीच में ही ये बयान देकर पार्टी की चिंता और बढ़ा दी है कि मौका मिला तो मैं भी मुख्यमंत्री बनूंगा और जनता के लिए काम करूंगा. इसमें कोई दो राय नहीं है कि जिस तरह के हालात हैं, इस साल राजस्थान और छत्तीसगढ़ की सत्ता को बचाने में कांग्रेस के पसीने छूट जाएंगे.

कार्यकर्त्ताओं में जोश की कमी

कांग्रेस की इस वक्त दो सबसे बड़ी समस्या है. पहला कार्यकर्त्ताओं में जोश की कमी और दूसरा कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व का राज्यों के नेताओं में घटता खौफ. चुनावी मुद्दों की बात छोड़ दें, तो बीजेपी इन दो मुद्दों में ही इतनी मजबूत दिखती है, जिसकी वजह से वो चुनाव दर चुनाव जीत हासिल करते जा रही है. बीजेपी वैचारिक और राजनीतिक दोनों स्तर पर अपने कार्यकर्ताओं को भरपूर महत्व देती है. साथ ही साथ उसके शीर्ष नेतृत्व का पार्टी नेताओं में भय भी बना रहता है. ऐसा नहीं है कि राज्यों में बीजेपी के बड़े नेताओं के भीतर अंदरूनी कलह नहीं है, लेकिन गहलोत-पायलट की तरह बयानबाजी करने की हिम्मत शायद ही कहीं नज़र आती हो.

कांग्रेस को ये नहीं भूलना चाहिए कि वो वहीं पार्टी है जिसकी अगुवाई में भारत को आजादी मिली, जिसने भारत के लोगों को राजनीति का ककहरा सिखाया है, जो आजादी के बाद चुनावी राजनीति शुरू होने के बाद के 70 में से करीब 50 साल केंद्र की सत्ता पर काबिज रही है. ये सब जिन वजहों से मुमकिन हो पाया था, उनमें से सबसे प्रमुख था कार्यकर्ताओं को दिया जाने वाला महत्व, जो धीरे-धीरे कम होते गया. पार्टी को इस दिशा में भी गंभीरता से कदम उठाए जाने की जरूरत है. अब हालात ऐसे बन गए हैं कि कांग्रेस के अस्तित्व पर सवाल खड़े किए जा रहे हैं, इस सवाल का जवाब कांग्रेस अपनी खोई सियासी ज़मीन को पाकर ही दे सकती है और इस लिहाज से उसे कार्यकर्ताओं की एक बड़ी फौज खड़ी करनी होगी.

(नोट- उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज़ ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.)

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