कई दिनों की राजनीतिक रस्साकशी के बाद आख़िरकार उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी और कांग्रेस के बीच आगामी लोक सभा चुनाव को लेकर सीट बँटवारे पर सहमति बन गयी. लखनऊ में दोनों दलों के संयुक्त प्रेस कॉन्फ्रेंस में 21 फरवरी को सीट बँटवारे की औपचारिक घोषणा भी कर दी गयी है.


उत्तर प्रदेश में कुल 80 लोक सभा सीट है. 'इंडिया' गठबंधन के तहत कांग्रेस उत्तर प्रदेश में 17 सीट पर चुनाव लड़ेगी. वहीं बाक़ी 63 सीट पर समाजवादी पार्टी के प्रत्याशी चुनाव लड़ेंगे. कांग्रेस अमेठी, रायबरेली, कानपुर नगर, सीतापुर, फतेहपुर सीकरी, बांसगांव, प्रयागराज, महराजगंज, वाराणसी, बाराबंकी, देवरिया, अमरोहा, झांसी, बुलंदशहर, सहारनपुर, मथुरा और गाजियाबाद सीट पर चुनाव लड़ेगी. गठबंधन के तहत समाजवादी पार्टी मध्य प्रदेश की खजुराहो सीट पर चुनाव लड़ना चाहती थी, जिसके लिए कांग्रेस सहमत हो गयी है.


सपा-कांग्रेस में सीट बँटवारे पर सहमति


दोनों ही दलों में सीट को लेकर खींचतान क़रीब एक महीने से जारी था. जनवरी में समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष अखिलेश यादव ने एलान किया था कि उनकी पार्टी कांग्रेस को 11 सीट देने को तैयार है. यह तब की बात है, जब जयंत चौधरी की राष्ट्रीय लोक दल.. विपक्ष गठबंधन 'इंडिया' हिस्सा थी. उस वक़्त कांग्रेस 11 सीटों पर राज़ी नहीं हो रही थी. कांग्रेस की ओर से बार-बार सीट बढ़ाने को लेकर दबाव बनाया जा रहा था. कांग्रेस 20 सीट की मांग पर अड़ी थी. तक़रीबन एक महीने से कांग्रेस के तमाम बड़े नेता बार-बार करते रहे कि सीट बँटवारे पर अभी सहमति नहीं बनी है और बातचीत जारी है.


अखिलेश यादव देरी होने का हवाला देते रहे. उन्होंने सीट बँटवारे पर सहमति बनने के बाद ही राहुल गांधी की भारत जोड़ो न्याय यात्रा में शामिल होने के लिए हामी भरने को लेकर दबाव बनाया. इसके बावजूद कांग्रेस का शीर्ष नेतृत्व सीट की संख्या को लेकर मीडिया में बयान देने से बचता रहा. साथ ही चाहे मल्लिकार्जुन खरगे और जयराम रमेश दोनों ही दोहराते रहे  कि उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी के साथ ही मिलकर कांग्रेस चुनाव लड़ेगी. 



कांग्रेस के दबाव की राजनीति सफल रही


अब सहमति बनने के बाद राजनीतिक गलियारों में इस तरह की चर्चा ज़ोरों पर है कि अखिलेश यादव की दबाव की राजनीति के आगे कांग्रेस झुक गयी. कांग्रेस को 20 की जगह पर 17 सीट पर तैयार होना पड़ा. हालाँकि सीटों पर जो सहमति बनी है और उत्तर प्रदेश के राजनीतिक समीकरण पर नज़र डालेंगे, तो कहानी कुछ और है. दरअसल उत्तर प्रदेश में कांग्रेस झुकी नहीं है, बल्कि अखिलेश यादव को बदलते राजनीतिक समीकरण में कांग्रेस की बात मानना पड़ा है. इसमें ही समाजवादी पार्टी की भलाई है.


इसके साथ ही चुनाव लड़ने के लिए 17 सीट मिल जाना कांग्रेस के लिए बहुत ही बड़ी बात है. उत्तर प्रदेश में अखिलेश यादव की प्रेशर पॉलिटिक्स के आगे कांग्रेस झुक गयी है, इसके बजाए यह कहना अधिक सही होगा कि कांग्रेस की कमज़ोर जनाधार के बावजूद राजनीतिक ताक़त को देखते हुए अखिलेश यादव को अधिक सीट देने को मजबूर  होना पड़ा है. उत्तर प्रदेश के राजनीतिक समीकरण का ग़ौर से विश्लेषण करने पर इन दोनों ही पहलू को बेहतर तरीक़े से समझा जा सकता है.



जयंत चौधरी के पाला बदलने का भी असर


जयंत चौधरी के एनडीए का रुख़ करने के बाद से उत्तर प्रदेश में अखिलेश यादव के लिए राजनीतिक माहौल बिल्कुल बदल गया. वर्तमान में एक पाले में अखिलेश यादव और कांग्रेस हैं इस गठबंधन का मुख्य मुक़ाबला बीजेपी की अगुवाई वाले एनडीए गठबंधन हैं, जिसका दायरा काफ़ी विस्तृत हो गया है. उत्तर प्रदेश में एनडीए में बीजेपी के साथ ही अब जयंत चौधरी की आरएलडी, अनुप्रिया पटेल की अपना दल (सोनेलाल), संजय निषाद की निषाद पार्टी और ओम प्रकाश राजभर की सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी है.


बीजेपी के सहयोगियों का जनाधार सीमित इलाकों में है. इस लिहाज़ से सारे छोटे दल हैं, लेकिन बीजेपी के साथ होने से इनका स्ट्राइक रेट या'नी जीतने की संभावना तक़रीबन सौ फ़ीसदी रहती है. इतना भी तय है कि बीजेपी यहाँ अपने सहयोगियों को कुल मिलाकर 6 या 7 सीट से अधिक नहीं देने वाली है और इन सभी सीटों पर सहयोगी दलों की जीत की संभावना भी प्रबल रहेगी.


अखिलेश यादव के सामने मौजूद चुनौती


अखिलेश यादव के सामने सिर्फ़ बीजेपी से मुक़ाबले की ही चुनौती नहीं है. हम सब जानते हैं कि मायावती न तो एनडीए का हिस्सा हैं और न ही विपक्षी गठबंधन 'इंडिया' का. मायावती की पार्टी बसपा के अकेले चुनाव लड़ने का सीधा फ़ाइदा बीजेपी को मिलेगा. अखिलेश यादव से लेकर कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व को इसका एहसास है. अखिलेश यादव के सामने मायावती के रूप में बीजेपी विरोधी वोट के बिखराव को रोकने की भी चुनौती है.


कांग्रेस की स्थिति उत्तर प्रदेश में उतनी अच्छी नहीं है, इसके बावजूद अखिलेश यादव के लिए कांग्रेस को अपने साथ रखना मजबूरी है. वर्तमान में उत्तर प्रदेश में कांग्रेस का जैसा जनाधार है और आम लोगों में पार्टी की छवि को लेकर जिस तरह की धारणा है, उस स्थिति में कांग्रेस के पास यहाँ खोने के लिए कुछ नहीं है.


कांग्रेस की दयनीय स्थिति, फिर भी 17 सीट


पिछले लोक सभा चुनाव में कांग्रेस उत्तर प्रदेश में सिर्फ़ एक सीट रायबरेली पर ही जीत हासिल करने में सफल हुई थी. गांधी परिवार की परंपरागत सीट अमेठी तक कांग्रेस के हाथ से निकल गया था. 2019 के इस आम चुनाव में अकेले दम पर लड़ते हुए कांग्रेस का वोट शेयर  उत्तर प्रदेश में महज़ 6.36% रहा था. वहीं 2014 के लोक सभा चुनाव में राष्ट्रीय लोक दल के साथ मिलकर चुनाव लड़ने पर भी 7.53% वोट शेयर के साथ कांग्रेस को सिर्फ़ दो सीट रायबरेली और अमेठी पर ही जीत मिली थी. इस चुनाव में कांग्रेस के वोट शेयर में तक़रीबन 11 फ़ीसदी की गिरावट आई थी. यह हाल तब रहा है, जब रायबरेली और अमेठी पर समाजवादी पार्टी अपने उम्मीदवार खड़ा नहीं करती है.


2022 के विधान सभा चुनाव में तो कांग्रेस की और भी बुरी स्थिति हुई थी. अकेले दम पर चुनाव लड़ने वाली कांग्रेस को सिर्फ़ दो विधान सभा सीट से संतोष करना पड़ा था. वहीं 2017 के विधान सभा चुनाव में समाजवादी पार्टी के साथ मिलकर चुनाव लड़ने के बावजूद कांग्रेस महज़ 7 सीट ही जीत पाई थी. इन आँकड़ों से समझा जा सकता है कि पिछले एक दशक में उत्तर प्रदेश में कांग्रेस किस कदर तक कमज़ोर हुई है. इन आँकड़ों से ब-ख़ूबी समझा जा सकता है कि उत्तर प्रदेश में कांग्रेस सीट के लिहाज़ से सफाया होने के ख़तरे से जूझ रही है.


उत्तर प्रदेश में राहुल गांधी की भारत जोड़ो न्याय यात्रा में भीड़ अच्छी-ख़ासी दिख रही है. इस तरह की यात्रा में भीड़ जुटना या जुटाना अलग बात है, लेकिन वास्तविकता यही है कि उत्तर प्रदेश में कांग्रेस अस्तित्व और छवि दोनों संकट से जूझ रही है. उत्तर प्रदेश के अलग-अलग इलाकों में राजनीतिक हक़ीक़त का जाइज़ा लेने के बाद इस बात को बेहतर तरीक़े से समझा जा सकता है कि यहाँ आम लोगों के बीच कांग्रेस को लेकर बेहद नकारात्मक सोच बनी हुई है. इस परिस्थिति में भी समाजवादी पार्टी के साथ गठबंधन के तहत चुनाव लड़ने के लिए 17 सीट पा जाना कांग्रेस के लिए किसी चमत्कार से कम नहीं है.


अखिलेश यादव के लिए कांग्रेस है मजबूरी


इसके विपरीत 2024 का लोक सभा चुनाव अखिलेश यादव के लिए बेहद मायने रखता है. उत्तर प्रदेश की चुनावी राजनीति में अखिलेश यादव अब तक ख़ुद को स्थापित नहीं कर पाए हैं. वर्ष 2012 में समाजवादी पार्टी  ने अपना सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन किया, लेकिन उसमें मुलायम सिंह यादव की भूमिका थी. इस चुनाव के बाद समाजवादी पार्टी दो लोक सभा चुनाव और दो विधान सभा चुनाव अखिलेश यादव की अगुवाई में लड़ी है. हम सब जानते हैं कि इन चारों ही चुनाव में समाजवादी पार्टी कुछ ख़ास नहीं कर पाई. समाजवादी पार्टी उत्तर प्रदेश की सत्ता से 2017 से दूर है. पिछले एक दशक में केंद्रीय राजनीति में भी समाजवादी पार्टी की प्रासंगिकता धीरे-धीरे कमोबेश नगण्य के स्तर पर पहुँच चुकी है. ऐसे में अखिलेश यादव के लिए 2024 का चुनाव पार्टी संगठन को बचाए रखने के लिहाज़ से भी महत्वपूर्ण है.


बीजेपी से हारकर अखिलेश यादव 2017 में सत्ता गँवा चुके हैं. उसके बाद से समाजवादी पार्टी की स्थिति लगातार कमज़ोर ही हुई है. विधान सभा चुनाव 2017 में कांग्रेस के साथ मिलकर चुनाव लड़ने के बावजूद समाजवादी पार्टी सिर्फ़ 47 सीट जीत पाती है. उसे 177 सीटों का नुकसान उठाना पड़ता है. कांग्रेस के साथ से भी समाजवादी पार्टी को कोई लाभ नहीं मिलता है. उसी तरह से 2022 के विधान सभा चुनाव में आरएलडी समेत कई छोटे-छोटे दलों के साथ मिलकर चुनाव लड़ने के बावजूद समाजवादी पार्टी योगी आदित्यनाथ को सत्ता से नहीं हटा पाती है. समाजवादी पार्टी का पहिया 111 सीट पर ही जाकर रुक जाता है.


उसी तरह से 2014 के लोक सभा चुनाव में 18 सीटों के नुक़सान के साथ समाजवादी पार्टी  महज़ 5 सीट जीत पाती है. आम चुनाव 2019 में मायावती के साथ होने के बावजूद समाजवादी पार्टी का आँकड़ा पाँच ही रहता है. यहाँ तक कि इस चुनाव में समाजवादी पार्टी के वोट शेयर में 4 फ़ीसदी से अधिक की गिरावट भी होती है.


परंपरागत वोट बैंक और सपा की चुनौती


अखिलेश यादव के सामने एक और चुनौती है. आगामी लोक सभा चुनाव ऐसा पहला चुनाव होगा, जब समाजवादी पार्टी के संस्थापक मुलायम सिंह यादव सशरीर मौजूद नहीं होंगे. उनका अक्टूबर 2022 में निधन हो गया था. पिछले एक दशक से अखिलेश यादव ही पार्टी के लिए हर बड़ा फ़ैसला करते आ रहे हैं. इसके बावजूद मुलायम सिंह यादव के होने से समाजवादी पार्टी के कोर वोट बैंक को एकजुट रखने में मदद मिलती थी.


उत्तर प्रदेश में क़रीब तीन-साढ़े तीन दशक तक एक बड़े तबक़े का भावनात्मक तौर से जुड़ाव मुलायम सिंह यादव के साथ रहा है. हालाँकि अब उनके नहीं होने से समाजवादी पार्टी के लिए परंपरागत सौ फ़ीसदी कोर वोट बैंक को बनाए रखना इस बार बड़ी चुनौती होगी. 2024 के लोक सभा चुनाव में समाजवादी पार्टी के प्रदर्शन पर किसी न किसी रूप में इस फैक्टर का भी असर देखने को मिल सकता है.


उत्तर प्रदेश में बीजेपी मज़बूत स्थिति में


समाजवादी पार्टी 2019 में मुरादाबाद, रामपुर, संभल, मैनपुरी और आजमगढ़  लोक सभा सीट जीतने में सफल रही थी. बाद में रामपुर और आजमगढ़ सीट पर 2022 में हुए उपचुनाव में रामपुर और आजमगढ़ सीट समाजवादी पार्टी खो चुकी है. फ़िलहाल पार्टी के पास मात्र तीन लोक सभा सीट है. दूसरी तरफ़ बीजेपी के पास कई ऐसे फैक्टर हैं, जिससे उत्तर प्रदेश में उसकी स्थिति बेहद मज़बूत नज़र आ रही है.


प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता के साथ ही योगी आदित्यनाथ को लेकर प्रदेश की एक बड़ी आबादी में जिस तरह का जुड़ाव है, उससे बीजेपी का पलड़ा भारी नज़र आता है. इसके साथ ही इस बार राम मंदिर फैक्टर का लाभ भी बीजेपी को सबसे अधिक उत्तर प्रदेश में मिलने की संभावना है. मायावती ने अलग रुख़ अपनाकर भी उत्तर प्रदेश में बीजेपी के लिए सफ़र को और आसान कर दिया है.


उत्तर प्रदेश में जिस स्थिति में बीजेपी है, समाजवादी पार्टी के लिए अकेले दम पर चुनौती पेश करना दिन में तारे देखने जैसा ही कहा जा सकता है. पिछले लोक सभा चुनाव में बीजेपी उत्तर प्रदेश में तक़रीबन 50 फ़ीसदी वोट हासिल करने में सफल रही थी. इसका साफ मतलब है कि पूरा विपक्ष मिल भी जाता, तब भी उत्तर प्रदेश में बीजेपी भारी नज़र आती है. यहाँ तो मायावती ने बीजेपी विरोधी वोट में बँटवारा सुनिश्चित कर दिया है. इसके अलावा पश्चिमी उत्तर प्रदेश की 8 से 10 सीटों पर थोड़ा बहुत जनाधार रखने वाली जयंत चौधरी की पार्टी आरएलडी भी अब बीजेपी के साथ है.


अखिलेश का पीडीए का नारा और वास्तविकता


इन सारे समीकरणों को देखते हुए अखिलेश यादव कांग्रेस को भी खोने का ख़तरा मोल नहीं ले सकते थे. कांग्रेस चाहे कितनी भी दयनीय स्थिति में हो, उसके पास अभी भी प्रदेश में तक़रीबन 7 फ़ीसदी के आसपास वोट शेयर पाने का माद्दा है, भले ही वो रायबरेली को छोड़कर कोई और सीट जीत पाने में सक्षम हो या नहीं. अखिलेश यादव इस तथ्य से भली-भाँति वाक़िफ़ है कि अगर कांग्रेस ने भी उत्तर प्रदेश में अकेले लड़ने का मन बना लिया होता, फिर अखिलेश यादव के लिए 2014 और 2019 जैसा प्रदर्शन भी दोहराना आसान नहीं होगा.


अखिलेश यादव दावा चाहे जो भी करें, उत्तर प्रदेश की राममय और योगीमय राजनीतिक वातावरण में फ़िलहाल समाजवादी पार्टी की सियासी ज़मीन उतनी मज़बूत नहीं है कि अकेले दम पर बड़ी जीत हासिल कर पाए. पीडीए (पिछड़े, दलित और अल्पसंख्यक) का नारा देकर अखिलेश यादव इस बार उत्तर प्रदेश की सियासी लड़ाई में बीजेपी को पटख़नी देना चाहते हैं. इन तीनों तबक़ो को मिलाने से समाजवादी पार्टी की ओर से अब तक जितने उम्मीदवारों का एलान किया गया, उससे भी पता चलता है कि अखिलेश यादव पीडीए को आधार बनाकर ही आगे बढ़ रहे हैं.


पीडीए के नाम पर प्रदेश में 85 फ़ीसदी वोट पर अखिलेश यादव की नज़र है. हालाँकि सिर्फ़ नारा से पिछड़ों, दलितों और अल्पसंख्यकों में समाजवादी पार्टी का जनाधार बढ़ जाएगा, ऐसा होना आसान नहीं है. उसमें भी बग़ैर कांग्रेस तो सोचा भी नहीं जा सकता है. अगर उत्तर प्रदेश में कांग्रेस का साथ नहीं मिलता, तो अखिलेश यादव के लिए और भी मुश्किल खड़ी हो सकती है. दलित वोट बैंक का एक बड़ा हिस्सा मायावती को जाएगा, इसमें किसी तरह के शक-ओ-शुब्हा की गुंजाइश रत्ती भर भी नहीं है, भले ही बसपा कोई सीट जीते या नहीं. अल्पसंख्यक या'नी मुस्लिम वोट बैंक के एक बड़े हिस्से का समर्थन कांग्रेस को मिलेगा, यह भी तय है. पिछड़े तबक़े की बात करें, तो समाजवादी पार्टी के कोर वोट बैंक या'नी यादवों के वोट को एकमुश्त हासिल करना भी इस बार अखिलेश यादव के लिए आसान नहीं रहने वाला है.


कांग्रेस के साथ से नुक़सान की भी संभावना


ऐसे कांग्रेस के साथ से समाजवादी पार्टी को नुक़सान भी हो सकता है. इस पक्ष को जानते हुए भी अखिलेश इतनी अधिक सीट देने को तैयार हो गए. हम सब जानते हैं कि 2017 के विधान सभा चुनाव में कांग्रेस के साथ थी. इसका ख़म्याज़ा समाजवादी पार्टी को ही भुगतना पड़ा था. समाजवादी पार्टी और कांग्रेस के साथ होने के बावजूद बीजेपी ऐतिहासिक प्रदर्शन करने में कामयाब रही थी. इस चुनाव में बीजपी उत्तर प्रदेश की कुल 403 में से 312 विधान सभा सीटों पर जीत गयी थी. जबकि समाजवादी पार्टी 177 सीटों के नुक़सान के साथ महज़ 47 सीटों पर सिमट गयी थी और कांग्रेस को सिर्फ़ 7 सीट पर ही जीत मिली थी. वहीं अगले विधान सभा चुनाव में समाजवादी पार्टी ने कांग्रेस से दूरी बनायी. नतीजों में समाजवादी पार्टी के प्रदर्शन में 2017 के मुक़ाबले काफ़ी सुधार भी देखा गया था.


कांग्रेस शीर्ष नेतृत्व का दबाव काम आया


कांग्रेस का शीर्ष नेतृत्व अखिलेश यादव की मजबूरी को अच्छे से समझ रहा था. इसलिए 20 सीट का दबाव बनाया जा रहा था. कांग्रेस के लिए इस बार उत्तर प्रदेश में सीट जीतने से अधिक महत्वपूर्ण पार्टी का जनाधार या'नी वोट शेयर बढ़ाना है. इसके ज़रूरी था कि वो अधिक से अधिक सीट की माँग पर अड़ी रहे. उत्तर प्रदेश में फ़िलहाल ऐसी कोई लोक सभा सीट नहीं है, जहाँ कांग्रेस इस स्थिति में हो कि जीत की गारंटी हो. उत्तर प्रदेश में ऐसे उम्मीदवारों की पहचान करना भी इस बार कांग्रेस के लिए मुश्किल हो रही है, जहाँ समाजवादी पार्टी से गठबंधन के बावजूद उनमें पार्टी को विजय दिलाने का सामर्थ्य हो. न जनाधार है और न ही प्रदेश के लोगों में पार्टी को लेकर अच्छी छवि है, उसके बावजूद कांग्रेस गठबंधन के तहत 17 सीट पर चुनाव लड़ने जा रही है. यह एक तरह से कांग्रेस की जीत ही मानी जानी चाहिए. दूसरी तरफ़ इसे अखिलेश यादव की मजबूरी के तौर पर ही देखा जाना चाहिए.


कांग्रेस के मन-मुताबिक़ ही सीट बँटवारा


इन सारे पहलुओं पर विचार करने से स्पष्ट है कि उत्तर प्रदेश में सीट बँटवारे के मामले में अखिलेश यादव के दबाव की राजनीति सफल नहीं रही. इसके विपरीत उत्तर प्रदेश में कमज़ोर स्थिति के बावजूद कांग्रेस अखिलेश यादव से चुनाव लड़ने के लिए कमोबेश मन-मुताबिक़ सीट हासिल करने में कामयाब हुई है. यह एक तरह से कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व की रणनीति की जीत है. कम से कम चुनाव लड़ने के लिए कांग्रेस को इतनी सीट उत्तर प्रदेश में मिल गयी है. यह वास्तविकता है कि कांग्रेस से समाजवादी पार्टी को बहुत लाभ नहीं होगा. इसके उलट सीट जीतने में हो या नहीं हो, समाजवादी पार्टी की मदद से उत्तर प्रदेश में कांग्रेस के लिए अपना वोट शेयर बढ़ाने की संभावना बढ़ गयी है.


कांग्रेस को अधिक सीट मतलब बीजेपी को लाभ


समाजवादी पार्टी और कांग्रेस के बीच जिस तरह का सीट बँटवारा हुआ है, उसमें बीजेपी के नज़रिये से एक महत्वपूर्ण पहलू है. बीजेपी उत्तर प्रदेश में पहले से ही बेहद ताक़तवर है. इस बार सहयोगियों के साथ मिलकर बीजेपी की नज़र उत्तर प्रदेश की सभी 80 लोक सभा सीट पर है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बीजेपी के लिए 370 और एनडीए के लिए 400 पार का जो दावा किया है, उसके लिए ज़रूरी है कि उत्तर प्रदेश की सभी सीट एनडीए जीत जाए. उत्तर प्रदेश में  2014 में एनडीए को 73 (बीजेपी 71 और सहयोगी 2 सीट) और 2019 में 64 सीट (बीजेपी 62 और सहयोगी 2 सीट) पर जीत मिली थी . या'नी 2019 की तुलना में यहाँ एनडीए के लिए अभी भी 16 सीट बढ़ाने की गुंजाइश है.


अब कांग्रेस के 17 सीटों पर लड़ने से बीजेपी के लिए उत्तर प्रदेश में सफ़र और भी आसान हो सकता है. जितनी अधिक सीट पर कांग्रेस लड़ेगी, उन सीटों पर बीजेपी के जीतने की संभावना ज़ियादा रहेगी. इसका कारण यह है कि विपक्षी गठबंधन 'इंडिया' के तहत उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी के उम्मीदवारों के जीतने की संभावना कांग्रेस के मुक़ाबले अधिक है. ऐसा कांग्रेस की दयनीय स्थिति की वज्ह से है. ऐसे में उत्तर प्रदेश में जितनी अधिक से अधिक सीट पर समाजवादी पार्टी लड़ती, उससे बीजेपी के सामने विपक्ष की चुनौती में ज़ियादा दमख़म दिखता. कांग्रेस ने अधिक सीट का दबाव बनाकर अखिलेश यादव को जिस संख्या के लिए मना लिया, उससे बीजेपी का शीर्ष नेतृत्व ख़ुश हो रहा होगा.


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