सचिन पायलट के बगैर क्या बचा लेगी कांग्रेस अपना मजबूत किला?
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राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा मोदी सरकार के खिलाफ माहौल बनाने में कितनी कामयाब होगी. ये फिलहाल कोई नहीं जानता, लेकिन खुद कांग्रेस के लिए राजस्थान का किला बचाना अब हल्दी घाटी के युद्ध से कम नहीं दिखाई दे रहा है. वहां इसी साल नवंबर में विधानसभा के चुनाव होने हैं लेकिन मुख्यमंत्री अशोक गहलोत और इस कुर्सी के प्रबल दावेदार सचिन पायलट के बीच उलझा हुआ छत्तीस का आंकड़ा न तो अभी तक सुलझा है और न ही उसके सुलझने के कोई आसार ही दिख रहे हैं.
अपनी ही पार्टी के भीतर चल रही सियासत की वर्चस्व वाली लड़ाई की इस आग में घी डालने की शुरुआत सचिन पायलट आज यानी सोमवार से कर रहे हैं. वे 16 से 28 जनवरी तक प्रदेश के उन इलाकों में जन सभाएं करने वाले हैं,जहां जाटों व राजपूतों की संख्या ज्यादा है. इसे सचिन की स्वाभिमान यात्रा का नाम दिया जा रहा है,लेकिन मजे की बात ये है कि 28 जनवरी को ही प्रधानमंत्री राज्य के भीलवाड़ा जिले में पहुंचकर केंद्र की कुछ अहम घोषणा का ऐलान करने वाले हैं और इसे चुनाव- प्रचार के एक बड़े एक्सीलेटर के रुप में देखा जा रहा है कि बीजेपी को ये किला कांग्रेस के हाथों से कैसे छीनना है.
सचिन पायलट के इस यात्रा-अभियान ने कांग्रेस के भीतर और बाहर भी बेहद हलचल मचा दी है और सियासी हलकों में अपने हिसाब से इसके राजनीतिक मायने भी निकाले जा रहे हैं. पार्टी के कुछ नेता इसे प्रेशर टैक्टिस यानी दबाव की राजनीति मान रहे हैं, लेकिन बड़ी और अहम बात ये है कि कांग्रेस नेताओं का एक वर्ग इसे गांधी परिवार के साथ ही पार्टी अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे के लिए भी एक 'अल्टीमेटम' मान रहा है. हालांकि ये भी याद रखना होगा कि राजनीति में सचिन बेशक कम अनुभवी हों, लेकिन उनकी रगों में उन्हीं राजेश पायलट का खून बह रहा है.
राजेश पायलट ने बड़ा संकट आने पर भी न अपनी पार्टी का साथ छोड़ा और न ही उसका झंडा छोड़ा, शायद इसीलिए सचिन पायलट इस पर जोर दे रहे हैं कि उनकी इस यात्रा का कोई नकारात्मक संदेश नहीं जाना जाना चाहिए. लोगों के बीच जाकर उनसे सीधा संवाद करने की इस कवायद को वे राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा का फॉलोअप करते हुए ये दावा भी कर रहे हैं कि वे नवंबर आने तक पार्टी कार्यकर्ताओं की इस ऊर्जा को जिन्दा रखना चाहते हैं.
हालांकि पार्टी में ही सचिन पायलट के विरोधियों को उनकी ये दलील हज़म नहीं हो रही है,इसलिये वे तमाम तरह के सवाल उठा रहे हैं.मसलन, ये पूछा जा रहा है कि ये प्रदेश कांग्रेस का कार्यक्रम है या फिर पायलट की निजी यात्रा है और उनकी संगठन में फिलहाल क्या हैसियत है और सवाल ये भी उठाया जा रहा है कि इस यात्रा की अनुमति प्रदेश इकाई ने दी है या फिर दिल्ली से इसकी इजाजत मिली है. दरअसल, सीएम गहलोत और उनके समर्थकों को सबसे बड़ी चिंता ये सता रही है कि सचिन पायलट अपने इस 13 दिनीं अभियान के दौरान गहलोत सरकार की कहीं तेरवही का इंतजाम तो नहीं कर रहे हैं.कांग्रेस का एक नेता आज देश को एक नया विकल्प देने के लिए 3500 किलोमीटर की यात्रा के जरिये सियासी माहौल बदलने की एक ईमानदार कोशिश करते हुए दिख रहा है.फिलहाल तो कोई नहीं जानता कि उनकी ये कोशिश साल 2024 की होली के बाद कैसे रंग खिलायेगी, लेकिन कांग्रेस नेतृत्व को ये गंभीरता से सोचने की जरूरत है कि देश के राजनीतिक नक्शे पर आज उसकी हैसियत क्या है.
आखिर कांग्रेस के सामने ऐसी क्या मजबूरी है कि वो एक बुजुर्ग और उसके सामने खड़े युवा व ऊर्जावान नेता के बीच फैसला लेने में इतना बेबस नजर आ रही है? ये बेबसी ही 2023 में अगर कांग्रेस से राजस्थान का किला छीन ले जाये तो उसमें हैरानी किसी को भी इसलिये नहीं होनी चाहिए क्योंकि देश की सबसे पुरानी पार्टी में आंतरिक लोकतंत्र मरणासन्न अवस्था में है,जहां एक सीएम पूरी पार्टी को ब्लैकमैल करने की ताकत रखता है.ईमानदारी से आकलन करें तो कांग्रेस की यही हालत प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को मजबूत करने का सबसे आधार बनी भी है और आगे भी बनती जा रही है, इसलिए ओशो रजनीश ने कहा था कि, "राजनीति का सबसे बड़ा और बेशर्म खिलाड़ी सबसे पहले अपने दरवाजों-खिड़कियों से शीशे हटवा देता है,ताकि उस पर कोई पत्थर ने फेंक सके."
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