BLOG: 1984 की राजनीतिक परिस्थितियां स्पष्ट करे कांग्रेस
कांग्रेस बता सकती है कि सन 1992-97, 2007-2012 और 2017 से अब तक पंजाब में कांग्रेस का शासन रहा और इस दौरान राज्य किन परिस्थितियों से गुजरा.
BLOG: हाल ही में आई कुछ खबरों के मुताबिक केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह सन् 1984 में हुए सिख विरोधी दंगों की वे फाइल्स खुलवाने जा रहे हैं, जिनमें मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री कमलनाथ का नाम आया है. यह एक तरह से कांग्रेस नेतृत्व को चुनौती ही है. सोनिया गांधी व कांग्रेस के लिए यह मुनासिब समय है कि वे 1984 की राजनीतिक परिस्थितियां स्पष्ट करें. बताएं कि तब उग्रवाद व अलगाववाद के चलते पंजाब के क्या हालात थे. इस तरह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी व अमित शाह के इस दांव का सामना किया जा सकता है. अगर्चे किसी भी सभ्य व लोकतांत्रिक समाज में जनमत के लिए प्रस्तुत किए गए तर्कों का गलत हो जाना एक फुसफुसा-सा सत्य है. इसके बावजूद कांग्रेस बता सकती है कि सन 1992-97, 2007-2012 और 2017 से अब तक पंजाब में कांग्रेस का शासन रहा और इस दौरान राज्य किन परिस्थितियों से गुजरा. दिल्ली में भी शीला दीक्षित के नेतृत्व में कांग्रेस 15 सालों तक सत्तारूढ़ रही, उस समय कांग्रेस का राष्ट्रीय नेतृत्व राजीव गांधी की विधवा सोनिया गांधी के हाथों में था.
1984 के सिख विरोधी दंगे बहुत भावुक कर देने वाला संवेदनशील मामला है, सो उनके बारे में बात करते हुए राहुल गांधी पूरी तरह सचेत रहते हैं. इंग्लैंड के सांसदों और स्थानीय नेताओं के साथ वार्ता में राहुल ने कहा “उसे लेकर मेरे दिमाग में कोई शंका नहीं है. वह एक ट्रेजडी थी, एक दुखद अनुभव. आप कहते हैं कि कांग्रेस पार्टी उसमें लिप्त थी. मैं इससे सहमत नहीं हूं. वह तो बस मारकाट थी. वह एक ट्रेजडी थी.”
पत्रकार अर्णब गोस्वामी को टीवी पर एक इंटरव्यू देते हुए राहुल गांधी ने स्वीकार किया था कि 1984 के सिख विरोधी दंगों में कुछ कांग्रेसी लिप्त थे. रेपिड फायर क्वेश्चन-ऑन्सर सेशन में कुछ इस तरह की बातें हुईं.
अर्णबः क्या कांग्रेसी लिप्त थे?
राहुलः क्या बेगुनाह लोग मारे गए थे? निःसंदेह!
अर्णबः क्या कांग्रेसी लिप्त थे?
राहुलः शायद कुछ कांग्रेसी लिप्त हो सकते थे.
अर्णबः क्या पीड़ितों को इंसाफ मिला?
राहुलः यह एक कानूनी प्रक्रिया होती है, जिससे उन्हें गुजरना पड़ा.
अर्णबः आप स्वीकार करते हैं कि कुछ कांग्रेसी इसमें संभावित रूप से लिप्त हो सकते थे?
राहुलः कुछ कांग्रेसियों को इसके लिए सजा दी गई.
अपनी राजनीतिक व चुनावी मजबूरियों के तहत राहुल वे बातें नहीं कह सके, जो 1999 में दक्षिण देहली से लोकसभा चुनाव लड़ते वक्त डॉ. मनमोहन सिंह ने कही थीं. हालांकि अच्छे से चुनाव लड़ने के बावजूद उन्हें भाजपा के विजय कुमार मल्होत्रा के हाथों हार का सामना करना पड़ा था.
1999 के चुनाव अभियान में मनमोहन सिंह ने इन दंगों के लिए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को जिम्मेदार ठहराने की कोशिश की. 2 सितंबर 1999 को देहली स्थित प्रेस क्लब ऑफ इंडिया में एक पत्रकार वार्ता को संबोधित करते हुए डॉ. मनमोहन सिंह ने 1984 के सिख विरोधी दंगों को “एक काला धब्बा और एक बेहद दुखद घटना” करार दिया. साथ ही उन्होंने यह भी स्पष्ट किया कि इसमें बतौर संगठन कांग्रेस का कोई हाथ नहीं था. उन्होंने यह भी कहा कि विभिन्न पुलिस थानों में दर्ज कराई गईं शिकायतों (एफआईआर) से साबित होता है कि इन दंगों में आरएसएस के कई कार्यकर्ता लिप्त थे.
बाद में मनमोहन सिंह ने यह सफाई पेश की कि इन दंगों के लिए उन्होंने पूरे तौर पर आरएसएस को जिम्मेदार नहीं ठहराया था. 13 दिसंबर 1999 को उन्होंने कहा “चुनावी फायदा उठाने के लिए मेरे बयान को तोड़-मरोड़ कर पेश किया गया. मैंने कहा था कि कांग्रेस, आरएसएस या अन्य संगठनों से जुड़े जो भी लोग इन दंगों में लिप्त थे, उन्हें इसकी सजा जरूर मिलनी चाहिए.”
1984 के दंगों में हुए सिखों के नरसंहार पर 11 अगस्त 2005 को बतौर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने राज्यसभा में बिना शर्त माफी मांगी. उस वक्त उन्होंने जो कुछ बोला, उसमें से आरएसएस का नाम गायब था। उन्होंने कहा कि वे किसी ‘झूठे सम्मान’ की खातिर नहीं खड़े हैं और उनका सिर शर्म से झुका हुआ है. उन्होंने तब 1999 की एक घटना भी याद की कि कैसे उस वक्त वे हरमिंदर साहिब में सोनिया गांधी के साथ थे और ‘दोनों ने साथ-साथ यह दुआ की कि हमें हिम्मत दें और राह दिखाएं कि अपने देश में दोबारा ऐसी घटनाएं कभी न हों.’ उन्होंने यह भी कहा कि ‘इंसान होने के नाते हमें यह गर्व प्राप्त है और हम में इतनी प्रतिभा है कि सब के लिए भविष्य की नई इबारत लिख सकें.’
कांग्रेस का एक प्रभावशाली वर्ग निजी तौर पर मानता है कि सिख विरोधी दंगों जैसे संवेदनशील मामलों में राहुल गांधी लिबरल और वामपंथी विचारकों से प्रभावित हैं। नहीं तो वे यह भी बता सकते थे कि मनीष तिवारी और अजय माकन जैसे कांग्रेस के नेताओं ने खुद पंजाब में फैले आतंकवाद के दंश झेले हैं। तिवारी के पिता डॉ. वीएन तिवारी प्रोफेसर और लगभग 40 किताबों के लेखक थे। 1984 में आतंकवादियों ने गोली मार कर उनकी हत्या कर दी। उधर अजय माकन के भाई, सांसद व पूर्व राष्ट्रपति डॉ. शंकरदयाल शर्मा के दामाद ललित माकन 31 जुलाई 1985 को दक्शिण देहली में हुए एक दुर्दांत हमले में मार दिए गए।
वैसे सरकार की छत्रछाया में होने वाली हिंसा और किसी आतंकवादी हमले में खासा अंतर होता है, लेकिन प्रो. तिवारी, ललित माकन और इस तरह हुई नृशंस हत्याओं के मामलों का गहरा असर हुआ. इस तरह की बातें भी कही जाती हैं कि पंजाब में लंबे समय तक चलने वाले आतंकवाद के दौरान कोई 30 हजार से ज्यादा निर्दोष लोग मारे गए, लेकिन उन पर किसी तरह का राजनीतिक विमर्ष शुरू नहीं हुआ. 1980 के दौर में भाजपा पार्टी के खास नेता मदनलाल खुराना की आदत थी कि उस वक्त पंजाब या हरियाणा में होने वाले हिंसक हमलों के बाद वे ‘हम लाशें गिनते-गिनते थक गए’ जैसे नारों से देहली की दीवारों को रंग देते थे.
इस लेख के लेखक ने अपनी अंगरेजी किताब “बैलेट—टेन एपीसोड्स देट हैव शैप्ड इंडियाज डेमोक्रेसी” (प्रकाशकः हैचेट) में बताया है कि पंजाब में 1980 के प्रारंभ में अलगाववादी आंदोलन फलफूल रहा था. उसे दबाने के इंदिरा गांधी के प्रयासों को आरएसएस का समर्थन प्राप्त था. संघ के विचारक नानाजी देशमुख ने हिंदी पत्रिका ‘प्रतिपक्श’ (25 नवंबर 1984) में एक आलेख लिखा था. उसके अंत में उन्होंने राजीव गांधी को शुभकामनाएं देते हुए उनका उत्साहवर्धन किया था। उस समय जबकि 1984-85 के आम चुनाव में एक माह से भी कम समय बचा था.
नानाजी देशमुख ने इंदिरा गांधी के बारे में लिखा था, “...आखिर इंदिरा गांधी ने बतौर एक महान शहीद इतिहास में स्थायी स्थान प्राप्त कर ही लिया. अपनी नैसर्गिक निर्भिकता व मेधा के बल पर उनमें यह क्शमता थी कि देश को एक दशक आगे ले जा पाएं... उनमें स्वयं में इतनी प्रतिभा थी कि एक भ्रष्ट और विभाजित समाज में प्रचलित पतनोन्मुखी राजनीतिक तंत्र को बखूबी चला सकें.” क्या प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और अमित शाह इन वास्तविकताओं का सामना करने को तैयार हैं?
(नोट- उपरोक्त दिए गए विचार व आंकड़े लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज ग्रुप सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.)