कोरोना रिटर्न, पहले से ज्यादा दमदारी से
देश में कोरोना की दूसरी लहर देखने को मिल रही है. लगातार प्रतिदिन हजारों की तादाद में आ रहे मामले चिंता का विषय बन रहे है. माना जा रहा है कि सावधानी नहीं बरती गई तो पहले से ज्यादा नुकसान देखने को मिल सकता है.
कहते हैं इतिहास और परिस्थितियां अपने को दोहरातीं हैं और वो दोहराव हम देख रहे हैं बेहद करीब से. ऐसा लग रहा है कोई फिल्म फिर से देख रहे हैं इस बार स्लो मोशन में. ठीक वैसा ही नजारा सामने आ रहा है जैसा पिछले साल मार्च अप्रेल में था.
वहीं कोरोना के बढ़ते मरीज, वहीं डर, वहीं नाइट कफर्यू, सड़क पर खड़ी वहीं पुलिस, वहीं संडे लाकडाउन, वैसा ही लंबा लाकडाउन लगने की हर वक्त बनती आशंका. सड़क से सायरन मारती पुलिस की गाडियां और तेज भागती निकलती एबुंलेंस की अकुलाहट. बाजार में दुकानों के बाहर लगे वहीं गोले, मास्क लगाकर एक दूसरे से हटते बचते लोग, सामने वाले की छींक और खांसी से डरती जनता और इस सबसे अलग वहीं पुरानी सरकार जो इन अबूझ सी परिस्थितियों को समझने की कोशिश में अजीब फैसले लेने को विवश और बेबस.
वो सरकार जो कोरोना के खात्मे की घोषणा ठीक से कर भी नहीं पायी थी कि कोरोना रिटर्न हो गया और इस बार ज्यादा तीव्रता और भयावहता से. राहत की बात बस यही है कि अभी पिछले साल जितना मौतों का आंकडा नहीं आ रहा है जिसे देख रूह कांपे.
दुनिया में चर्चित किताबें सैपियंस और होमो डेयस लिखने वाली इस्त्रायली लेखक और इतिहासकार प्रो युवाल नोआ हरारी ने लिखा था कि पुरानी सदियों में आबादी तीन कारणों से कम होती थी युद्व अकाल और महामारी और ये तीनों परिस्थितियां अब नये जमाने में बदल गयीं हैं. अब युद्व होते नहीं, अकाल की भुखमरी की जगह मोटापे से ज्यादा मरते हैं लोग अब और महामारी गुजरे जमाने की चीज हो गयी.
मगर हरारी ने नहीं सोचा था कि 2016 में आयी उनकी किताब होमो डेयस में लिखी ये बातें चार साल बाद आकर कोरोना की महामारी गलत साबित कर देगी. हांलाकि एक बडा फर्क ये दिखा है कि महामारी के आगे पहले मानवता जिस प्रकार बेबस हो जाती थी इस बार ऐसा नहीं रहा. पुरानी बात करें तो 1918 के स्पेनिश फलू ने सिर्फ हिदुस्तान की पांच फीसदी आबादी करीब डेढ़ करोड़ लोगों को मौत की नींद सुला दिया था.
पुरी दुनिया में इस बीमारी ने पांच से दस करोड़ लोगों की जान ली थी मगर इन सौ सालों में हम बदले हैं. इस बार दिसंबर 2019 के अंत में महामारी की पहली आहट सुनायी दी तो एक महीने में ही 10 जनवरी 2020 को वैज्ञानिकों ने इसके जिम्मेदार वायरस की जीनोम संरचना तलाशकर आनलाइन प्लेटफार्म पर डाल दी और दुनिया के वैज्ञानिक लग गये इस वायरस का मुकाबला करने. साल भर के भीतर इस वायरस की अनेक वैक्सीन बाजार में आ गई.
महामारी से निपटने में वैज्ञानिकों ने तो अपना काम कर दिया है मगर फिर यहां पर हमेशा की तरह असफल रही हमारी आपकी लीडरशिप. जिसने इस बीमारी से लड़ने के लिये वैज्ञानिक और चिकित्सकीय उपाय नहीं बल्कि राजनीतिक हथकंडे अपनाये. अमरिका में हुई कोविड से साढ़े पांच लाख मौतों के जिम्मेदार कोई और नहीं पूर्व राष्टपति डोनाल्ड टंप ही रहे. जिन्होंने पहले चाइनीज फलू कहकर इस जानलेवा बीमारी की हंसी उड़ायी फिर मास्क पहनने से इनकार किया उसके बाद लगातार लाकडाउन को टाला.
चीन के हुक्मरानों ने भी यही किया बीमारी को तब तक छिपाया जब तक कि वो दुनिया में फैल नहीं गई. हमारे देश में भी शुरूआती दौर में इसे बेहद हल्के से लिया गया. लाकडाउन करने और हवाई अडडों पर निगरानी करने या अंतरराष्टीय फलाइट रोकने में महीनों लगा दिये और बाद में जब बीमारी फैली तो उसे घरों में अंधेरा कर दिया जलाने और थालियां पीटकर भगाने की अजीब इसी पीढियों पुरानी हरकतें दोहरायी गई.
मगर बाद में सरकार जैसे नींद से जागी और वो सब किया जिसे करने को वर्ल्ड हैल्थ आर्गेनाइजेशन ने कहा. आज हमारा देश दुनिया को वैक्सीन देने वाले देशों में अग्रणी है. मगर जब तक हम वैक्सीन राष्टवाद की जय जयकार करते हमारी सरकार से फिर एक बडी चूक हो ही गई. सरकार ने ये सोचा ही नहीं कि कोविड से निपटने में जो बडा तंत्र खड़ा किया था उसे सहेज कर रखें. सरकारों को ये सपने में भी गुमान नहीं था कि वैक्सीनेशन के आंकडों के साथ कोरोना के आंकडे फिर तेजी से बढ़ेंगे और इस बार दोगुनी रफतार और संक्रामक दर के साथ.
महाराष्ट में सौ दिन में पैंतीस हजार नये केस सामने आये हैं वो भी लाकडाउन सरीखे इंतजाम करने के बाद भी. भोपाल और इंदौर में पिछले एक हफते में कोरोना के मरीज तेजी से दोगुने हुए हैं. तेजी से आ रहे मरीजों की संख्या बता रही है कि आने वाले दिन कितने भयावह होंगे क्योकि पिछले साल में कोरोना से निपटने में जो आपात तैयारियां की गई थी वो ध्वस्त हो गई है. निजी अस्पताल और बारात घरों में किये गये इलाज और क्वोरंटीन के इंतजाम करने वालों को ना तो पैसा दिया गया और ना सम्मान तो ऐसे में इस बार कौन मदद को आयेगा.
आपात हालात से निपटने में जो केंद्र से पैसा मिला था वो प्रचार प्रसार और काढ़े में बहा दिया गया अब फिर सारे इंतजाम उसी राज्य सरकार को करना है जिसके पास जीएसटी के बाद कमाई के सीमित साधन बचे हैं. दुख ये है कि सरकारों के सख्ती बरतने का विरोध राजनीति करने वाले ही कर रहे हैं. होली नहीं मनाने देने के फैसले के खिलाफ एमपी में कांग्रेस नहीं बीजेपी के बड़े नेता ही कर रहे हैं. आने वाले दिनों में हालात बिगड़े तो इसके जिम्मेदार वैज्ञानिक नहीं बल्कि वो नेता रहेंगे जिन्होंने जनता को जोखिम में डालकर रैलियां और चुनाव करवाये और फिर सरकारी फैसलों का विरोध किया.
और अंत में मानव जाति रोगाणुओं को रोक नहीं सकती ये सदियां की प्राकृतिक विकास प्रक्रिया है जो आने वाले सालों में जारी रहेगी. इससे लड़ने के लिये जरूरी है कि हम इंतजाम करके रखें.
(नोट- उपरोक्त दिए गए विचार व आंकड़े लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.)