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कोरोना महामारी पीएम मोदी के लिए झटका? जैसे 1962 की चीन के साथ जंग नेहरू के लिए थी बुरा सपना!

देश में फैली कोरोना महामारी के बीच मोदी सरकार ने केंद्र में सात साल पूरे कर लिए हैं. मई 2014 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पहली बार देश की बागडोर संभाली थी. लेकिन सात साल पूरे होने के बावजूद पीएम मोदी के चेहरे पर वो मुस्कान, रौब और गर्व नहीं दिखाई पड़ रहा है जिसके लिए वे हमेशा से जाने जाते हैं. साफ है कि पिछले कई दिनों से देश जिस महामारी के दौर से गुजरा है, उसका दर्द पीएम के चेहरे और बॉडी-लैंग्वेज पर साफ दिखाई पड़ रहा है. वहीं कोरोना की दूसरी लहर के एक-डेढ़ महीने के दौरान देश में अस्पताल, बेड्स और ऑक्सीजन के लिए चारों तरफ हाहाकार मची थी. देश-दुनिया के अखबारों और न्यूज चैनल्स पर अर्थियों और श्मशान घाट की तस्वीरें और वीडियो छाए हुए थे. वो भारत जो कुछ महीनों पहले तक एलएसी पर चीन को सबक सिखाने, पाकिस्तान को सर्जिकल स्ट्राइक कर उसकी औकात दिखाने, कश्मीर से धारा-370 हटाने, वर्षों से अटके पड़े राम मंदिर के निर्माण की मंजूरी, मेक इन इंडिया, आत्मनिर्भर भारत और वैक्सीन-डिप्लोमेसी के दम पर दुनिया भर में अपने नाम का डंका बजा रहा था, उसकी इमेज पूरी तरह से धूमिल हो चुकी थी. चीन की वायरस के सामने भारत का हर नागरिक, सरकार और सिस्टम असहाय दिखाई पड़ रहा था.

ये एहसास कुछ-कुछ ऐसा था जैसा कि 1962 के युद्ध के बाद तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू और पूरे देश के साथ हुआ था. नेहरू को करीब से जानने वाले और उनकी बायोग्राफी लिखने वाले भी मानते हैं कि चीन के हाथों मिली हार के बाद नेहरू जी टूट से गए थे. नेहरू जी को हार का सदमा और चीन की दोस्ती में मिली दगाबाजी ने अंदर तक हिला दिया था. तो क्या कोरोना महामारी में मिली हार पीएम मोदी को भी हमेशा टीस की तरह चुभती रहेगी? या जैसा कि पीएम मोदी के करीबी और उनके साथ काम करने वाले मानते हैं कि वे ‘फीनिक्स’ की भांति फिर से खड़े हो जाएंगें. जैसा कि पूर्व में कई बार हो चुका है. पीएम मोदी ना केवल खड़े हो जाते हैं बल्कि आसमान में उड़ान भी भरने लगते हैं.

1962 के युद्ध से पहले भारत और प्रधानमंत्री नेहरू का भी देश-दुनिया में परचम लहरा रहा था. आजादी के तुरंत बाद नेहरू ने देश में औद्योगिकरण को तेज कर दिया था. देश में ‘लोकतंत्र के नए मंदिरों’ का निर्माण हो रहा था. देश में जगह-जगह बड़े-बड़े अस्पताल और आईआईटी जैसे विश्व-स्तरीय तकनीकी संस्थानों को स्थापित किया जा रहा था. जब पड़ोसी मुल्क पाकिस्तान सहित एशिया और अफ्रीका के नए देशों में सेनाएं तख्ता-पलट कर रही थीं तब नेहरू ने दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र पर एक आंच नहीं आने दी. 1947 से 1962 तक के आम चुनावों में नेहरू की लोकप्रियता का ग्राफ बेहद उंचा था. 1962 (फरवरी महीने में) हुए आम चुनावों में नेहरू के नेतृत्व में कांग्रेस पार्टी को 494 में से 361 सीटें मिली थीं. हालांकि 1957 के आम चुनावों की तुलना में कांग्रेस को 10 सीटें कम मिली थीं.

50 और 60 के दशक में जब पूरी दुनिया दो गुटों में बंटकर अमेरिका और रूस की पीछे हो रही थी तब नेहरू ने गुटनिरपेक्ष मंच खड़ाकर एक तीसरी दुनिया को जन्म देने में अहम भूमिका निभाई थी. विश्व-स्तर पर नेहरू की लोकप्रियता अपने समकालीन राजनेताओं ईसानहॉवर, कैनेडी, निकिता ख्रुसचेव, टिटो, सुर्कणो, नासिर और माओ से कहीं ज्यादा थी और शायद यही वजह थी कि इनमें से कुछ राजनेता नेहरू के खिलाफ साजिशें रचने लगे. जैसा कि माना जाता है कि 62 के युद्ध में चीन भारत को हराना नहीं चाहता था, बल्कि नेहरू के गाल पर तमाचा लगाना चाहता था कि नेहरू को एशिया का सबसे बड़ा वर्ल्ड लीडर नहीं बनने दिया जाएगा.

1962 में नेहरू के ग्लोबल स्तर पर दुश्मन या कहें कि प्रतिद्धंदी जरूर थे, लेकिन डोमेस्टिक-फ्रंट पर ना के बराबर थे. ये कहा जाता है कि जब नेहरू संसद में बोलने के लिए खड़े होते थे तो विपक्ष के नेता तक भी चूं करने की हिम्मत नहीं करते थे. सभी बेहद ही ध्यान लगाकर सुनते थे. कुछ लोग मानते हैं कि यहीं कारण है कि नेहरू की चीन को लेकर नीति को सरकार के किसी नुमाईंदे या फिर विपक्ष ने ज्यादा सवाल नहीं खड़े किए थे. जिसका नतीजा भारत को चीन के हाथों मिली हार के रूप में झेलना पड़ा. इसके उलट अब अगर आज की परिस्थितियों में प्रधानमंत्री मोदी को देखते हैं तो उनकी विश्व-स्तरीय छवि के खिलाफ तो दूसरे देश हैं ही, साथ ही देश के भीतर भी विपक्ष, मीडिया, एनजीओ और बुद्धजीवी वर्ग का एक बड़ा तबका उनके पीछे हाथ धोकर पड़ा रहता है. लेकिन पीएम मोदी हर बार सभी को धोबी-पछाड़ देते आए हैं.  

लेकिन पिछले डेढ-दो महीने में सबकुछ बदल गया है. इस बार पीछे पड़ने के कई बड़े कारण हैं. पहला तो कोरोना महामारी के दौरान स्वास्थ्य सेवाएं और ऑक्सीजन की भारी कमी. कोरोना काल की दूसरी लहर से पहले तक इस देश में प्रधानमंत्री मोदी को हर मर्ज की दवा समझा जाता था. माना जाता था कि जहां सभी लोग की सोच खत्म होती है, वहां से उनकी शुरू होती है. एक विजनरी-लीडर यानी भविष्य को जानने और समझने वाला माना जाता था. एक ऐसा राष्ट्राध्यक्ष जो ‘थिंक लोकली’ और ‘एक्ट ग्लोबली’ पर अमल करता था. फिर पीएम मोदी से कोरोना की दूसरी लहर की आंधी समझने में गलती कैसे और कहां हुई? दुनिया के बाकी देशों में कोरोना की दूसरी लहर पहले ही आ चुकी थी फिर चाहे वो अमेरिका हो, ब्रिटेन, दक्षिण कोरिया, इटली और फ्रांस हों. फिर भारत ने दूसरी लहर से निपटने के लिए मुकम्मल तैयारियां क्यों नहीं की? क्यों नहीं ऑक्सीजन प्लांट समय से लगाए गए? पहली लहर के दौरान जो अतिरिक्त हॉस्पिटल बनाए गए थे उन्हें बंद क्यों कर दिया गया था? क्यों नहीं भारत ने दूसरे देशों की दूसरी लहर से सबक ली? क्यों नहीं अस्पतालों में बेड्स की संख्या बढ़ाई गई? कोरोना वायरस को महामारी क्यों बनने दिया गया? जबकि पहली लहर के दौरान पीएम के लॉकडाउन, मास्क और सोशल डिस्टेंसिंग के नारे ने पूरे देश को एक बड़े संकट से बचा लिया था.

अगर ये मान भी लिया जाए कि कोरोना की दूसरी लहर चीन का कोई बायोलॉजिकल वैपन था (हालांकि, अभी तक इसका कोई प्रमाण नहीं मिला है), तो फिर भी भारत ने जरूरी तैयारी क्यों नहीं की? खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सेना और वैज्ञानिकों को ‘ऑउट ऑफ द बॉक्स’ आइडिया और फिफ्थ-जेनरेशन वॉरफेयर, हाईब्रीड वॉरफेयर पर लेक्चर देते आए हैं तो क्यों नहीं बायोलॉजिकल वैपन के खिलाफ कोई तैयारी की गई. वो भी तब जबकि एक साल से पूर्वी लद्दाख से सटी एलएसी पर चीन से टकराव जारी है. चीन को पहले डोकलाम, फिर गलवान घाटी और कैलाश हिल रेंज पर पटकनी देने के बाद ये सोचना गलत था कि चीन चुप बैठने वाला है. चीन समझ गया है कि युद्ध के मैदान में भारतीय सेना को हराना एक टेढ़ी खीर साबित हो सकता है. एलएसी पर टकराव के दौरान मुंबई के पॉवर-ग्रिड पर चीन की तरफ से साइबर अटैक किया गया था. लेकिन इस खतरे को समय रहते भारत के साईबर-एक्सपर्ट ने ठीक कर लिया था. यानी चीन जानता है कि साइबर-फील्ड में भी भारत को हराना मुश्किल हो सकता है. तो क्या वाकई भारत को झुकाने के लिए वुहान से निकले वायरस को महामारी के तौर पर भारत पर छोड़ दिया गया. लेकिन कैसे? ये ऐसा सवाल है जिसका जवाब आने वाले समय में ही ठीक ठीक तरीके से दिया जा सकेगा. फिलहाल बायो-वॉर पर कोई सटीक जवाब नहीं है.

जिस तरह से पहली लहर में चीनी वायरस ने अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस, जापान, इटली पर अटैक किया उससे कहीं ना कहीं शक जरूर होता है और अब भारत में कोविड की दूसरी लहर ने भारी तबाही मचा दी है. हजारों लोग अभी भी अस्पताल में हैं. लाखों लोगों की मौत हो चुकी है. भारत के बाद अब वियतनाम में भी ऐसा वायरस फैल रहा है जिसके वैरिएंट भारत और ब्रिटेन से मिलते-जुलते हैं. ये महज इत्तेफाक है या कुछ और की ये सभी वे देश हैं जो चीन के प्रतिद्धंदी हैं या फिर कट्टर दुश्मन हैं. सवाल ये भी खड़ा हो रहा है कि जिस वुहान वायरस ने भारत में भारी तबाही मचाई, उसका असर पड़ोसी देश पाकिस्तान, भूटान, नेपाल, अफगानिस्तान, बांग्लादेश या फिर श्रीलंका पर इतना क्यों नहीं हुआ? ये ऐसे सवाल हैं जिस पर सामरिक मामलों के जानकारों को भी माथा-पच्ची करने की बेहद जरूरत है.

भले ही भारत में आज पीएम केयर्स फंड से देश के हर जिले में ऑक्सजीन प्लांट लगाने का काम शुरू हो चुका है. भले ही देश-विदेश से ऑक्सजीन और टैंकर लाकर ऑक्सजीन की कमी पूरी हो चुकी हो. भले ही सेना और डीआरडीओ की मदद से अस्पतालों की कमी पूरी कर ली गई हो, वैक्सीन के काम में तेजी लाई जा रही हो लेकिन अब ये सब कुछ लकीर पिटने जैसा है.

अब इस बात की दुहाई दी जा रही है कि देश में इतनी ऑक्सीजन, दवाई, प्लाज्मा और बेड्स की कमी नहीं थी, जितना कि एक सुनियोजित तरीके से सरकार के खिलाफ काम करने वाली शक्तियों ने ट्वीटर और दूसरे सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स पर कैंपेन चलाया था. लेकिन हकीकत ये है कि अब पीएम मोदी के खिलाफ ‘नैरेटिव’ सैट हो चुका है. जैसा कि पूर्व-रॉ प्रमुख, विक्रम सूद ने अपनी हालिया किताब ‘द अल्टीमेट गोल’ में लिखा है- “नैरेटिव जरूरी नहीं है कि सच की बुनियाद पर ही खड़ा हो. लेकिन ये मजबूत होना चाहिए और जो अर्थ आप निकालना या निकलवाना चाहते हैं वैसा होना चाहिए.”

साफ है आने वाले समय में भले ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी आम चुनाव जीतकर फिर से देश की बागडोर अपने हाथों में ले लें. हाल ही में एबीपी न्यूज-सी वोटर के सर्वे में भी सामने आया है कि कोरोना महामारी के दौरान पीएम की लोकप्रियता में कमी जरूर आई लेकिन अभी भी 62 प्रतिशत जनता उनके काम करने के तरीके से संतुष्ट है. लेकिन पीएम की सर्वशक्तिमान और ग्लोबल-लीडर वाली इमेज पर दाग जरूर लग चुका है, जिसे पूरी तरह मिटाना खुद पीएम, उनकी सरकार, पार्टी, कार्यकर्ता, आईटी सेल और भक्तों के लिए बेहद मुश्किल होने जा रहा है.

(नोट- उपरोक्त लेख में दिए गए विचार व आंकड़े लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज़ ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.)

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