नैनों में था रास्ता, हृदय में था गांव
हुई न पूरी यात्रा, छलनी हो गए पांव
-निदा फ़ाज़ली


इन दिनों दो तरह की खबरें तैर रही हैं.
1. बेबस, बेकल, थके हुए तन, चमड़े से बाहर को झांकती हुई नसें, सूखी हड्डी पर रूखी पतली चमड़ी ढोने वाले हजारों शरीर दिल्ली और मुंबई जैसे शहरों से गांव की तरफ भाग रहे हैं. बसें, ट्रेन बंद.. आलम यह है कि लोग सैकड़ों किलोमीटर पैदल चलकर अपने गांव जाना चाहते हैं. तत्काल वजह.. काल के गाल में समाने का डर. असली वजह की चर्चा आगे करते हैं.


2. डॉक्टर्स ने केंद्रीय सरकार और दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल को शिकायत लिखकर कहा कि वे लोग कोरोना की जंग लड़ रहे मरीजों के साथ खड़े हैं और इस वजह से उनको किराये के मकान और सोसाइटी में घुसने से रोका जा रहा है. डॉक्टरों की तरफ से दी गई शिकायत में कहा गया था कि "उनको मकान मालिक घर में नहीं घुसने दे रहे. लिफ्ट बंद कर दी गयी है और उनको लिफ्ट्स का इस्तेमाल भी नहीं करने दिया जा रहा. ऐसा सिर्फ डॉक्टरों के साथ ही नहीं बल्कि कुछ नर्सिंग स्टाफ के साथ भी हो रहा है.'


इन दोनों खबरों ने शहरियों के सभ्य चेहरों को धोकर नंगा कर दिया. इतिहास में यह तथ्य गर्त में दब जाएगा, लेकिन मानवता का जब भी जिक्र होगा, यह आह के साथ याद किया जाएगा. वक्त की कैद में जब जिन्दगियां सिसक रही थीं, तब हमें बचाने के लिए संघर्ष करने वाले धरती के ईश्वर (डॉक्टर) को हम छत से महरूम कर रहे थे. जो खुद की जान जोखिम में डालकर हमारी जान बचा रहे थे उनके परिवार के साथ कथित सभ्य शहरियों ने क्या किया? जिनपर यह गुजरी होगी उनका पूरा परिवार इस टीस से उबर पाएगा?



महताबी रोशनी से नहाया हुआ शहर, चिल्लाती गाड़ियों की शोर से पटा शहर, ऊंची-ऊंची इमारतों में अट्टहास करने वाली जिन्दगियां आज गुमसुम खड़ी खिड़की से झांक रही हैं. इन शहरों में आए हुए तमाम मध्यवर्गीय लोगों के जज़्बाती रिश्ते अपने कस्बे से जुड़े हैं. सिस्टम के शातिरों ने जब गांव को अनाज की जगह भूख उगाने को मजबूर कर दिया तो किसानों के दुलारों ने शहरों में नौकरी कर ली. गांव में घरों के अंदर सिसकियों की आवाज पूरा गांव सुन लेता था और यथा संभव सांत्वना और मदद के साथ हाजिर होता रहा है. लेकिन शहर अपना यह कूड़ा चिप्स के पैकेट के साथ गांव में भेजने लगा है. अब वहां भी लोग 'गलाकाट प्रतियोगिता' को सफलता का मंत्र मानने लगे हैं.


आप सोचिए जिन ऊंची इमारतों को बनाने में मजदूरों ने अपनी हड्डियां गला दीं, उन इमारतों के लोगों ने इस महामारी के दौरान उन मजदूरों को यह भरोसा नहीं दिला पाया कि तुम रूको, ठहरो, भागो मत.. हम भी तुम्हारे अपने हैं. हम तुम्हें दवाई और रोटी से महरूम नहीं होने देंगे. जो हाथ आपके फर्श, टेबल और बर्तन को साफ कर रहे थे, आपने उनके आंसुओं को देखा तक नहीं. जिन किसानों ने अपने लहू से सींचकर अनाज, दूध और सब्जी आपको और आपके बेटों को खिलाया, उन किसानों के मजदूर बेटों को दो वक्त की रोटी आपने दी होती तो वे भागते नहीं.. वे अपने गांव के उस बखार (अनाज रखने की जगह) का रूख नहीं करते. सरकारों की इमदाद से ज्यादा समाज के दुलार की जरूरत होती है.



सोचिएगा आपके और उनके बीच भरोसे की खाई इतनी गहरी क्यों है? यह भरोसा एक दिन में कायम नहीं होता. इसके लिए अब शहरियों को अपने संस्कार में बदलाव करना होगा. बदलाव ही प्रकृति का नियम है. स्वार्थ की जंजीर में जकड़े समाज को अब संभलना होगा. वरना गैरबराबरी का यह स्वरूप आने वाले दिनों में बड़ा संकट बन सकता है. समाज बदलाव और क्रमिक सुधार खुद आगे बढ़कर करता है. इस महामारी से हम पार पाएंगे, सुबह रौशन होगी, काले बादल छटेंगे. इसके बाद अब हमें एक सभ्य समाज बनाने के लिए बिन पते की खत की तरह रहने वाले मजदूरों को इल्जाम के बजाए ईनाम देना होगा... भरोसे का ईनाम, प्यार का ईनाम... उनके सुखद भविष्य का ईनाम... गलाकाट प्रतियोगिता से दूर साथ-साथ चलने वाला समाज ही धरती को स्वर्ग बनाएगा.