देश में कोरोना का कहर है तो सड़कों पर गांवों का शहर है. एक भी मुख्य सड़क बची नहीं है जहां पर गांव जाने वाले गरीबों का रेला नहीं लगा है. हर सड़क पर गरीबी और लाचारी ही बिखरी पड़ी है. देश को लॉकडाउन करने से पहले गरीबों को गांवों तक पहुंचा दिया गया होता या फिर उनमें भरोसा जगा दिया गया होता कि आप जहां हैं, वही रहें, सरकार किसी को भूखा नहीं सोने देगी. तो क्या तब हालात अलग होते? लेकिन ऐसा नहीं किया गया. हां सरकार ने ऐलान तो बड़े पैकेज का किया लेकिन तब तक देर हो चुकी थी और उसका असर नाकाफी रहा.


अब पूरे देश में लॉकडाउन होने के कारण सैकड़ों प्रवासी पैदल ही अपने घरों की ओर लौटने को मजबूर हैं. इन लौटने वालों में हिंदुस्तान के मस्तक से गुजरती तकलीफ और वेदना की लकीरें दिखती हैं. भूख और गरीबी की अटूट जंजीरें, बिलखते बच्चे, तड़पती माताएं और छटपटाते पिता इस भीड़ का हिस्सा हैं.


यह इसलिए है क्योंकि ना हम और ना हमारा शासन-प्रशासन ये सब देखने के लिए तैयार है. जिन्होंने गरीबों के लिए नीतियां बनाई, उनकी कल्पना से परे कहीं ज्यादा गरीबी हमारे हिंदुस्तान की माटी में गड़ी हुई थी. कोरोना की बीमारी तो हवाई जहाज के रास्ते रईस ले आए, लेकिन अब चलते-चलते गरीबों के हवाई चप्पल घिस रही हैं.


सड़कों पर लगी गरीबों की कतारें सामाजिक और आर्थिक विभाजन का मार्मिक आभास कराती हैं और बताती हैं कि जैसे तस्वीरें हिंदुस्तान ने 1947 में विभाजन के वक्त देखी थी, उसमें और आज के कोरोना काल में तनिक भी अंतर रह नहीं गया. देश की सड़कों पर खींची जा चुकी मुफलिसी की तमाम लकीरें ये बताती हैं कि खूबसूरत और चमकते-धमकते शहरों के अंदर कितना अंधेरा है. शायद इसीलिए ये लोग जिनका शरीर भी ठीक से साथ नहीं दे रहा, इनको अब अपने गांव की झोपड़ी के अंधकार में ही जिदंगी का आफताब नजर आने लगा है.


पिछले 3-4 दिन से पैदल ही चलते जा रहे ये वो लोग हैं, जो शहरों के बंगलों-बिल्डिंगों के लिजलिजे तहखानों में जानवरों की तरह पड़े थे. हमारे आस-पास ही रहते थे, कभी दिखते थे, कभी हम देखना नहीं चाहते थे लेकिन अब ये दाल-भात की तलाश में सड़कों पर बखूबी नजर आने लगे हैं, वो भी हजारों की संख्या में. कोरोना के डर से सोशल डिस्टेंसिंग की बात करते बुलंद भारत की ये सबसे बदनसीब तस्वीर है.


अब तक शहरों में भूखे बच्चे आसमान ओढ़कर सोते थे, मां पत्थरों को तोड़कर रोटी कमाती थी और उसी से इन मासूमों को कभी एक वक्त तो कभी दो वक्त की रोटी मिलती थी. लेकिन लॉकडाउन ने जब उस रोटी पर भी कर्फ्यू लगा दिया तो शहरों ये करें क्या करें, जिएं तो जिएं कैसे. कुछ लोग कहते हैं ये गरीब-गुर्गे भागकर यूं गांव जाएंगे तो बीमारी साथ ले जाएंगे, बात भी सच है लेकिन हर कोई गटर की पाइप लाइन में रह तो नहीं सकता.


घरों में ‘रामायण’ और सड़कों पर भूख से ‘महाभारत’


एक तफ जहां देश की सड़कों पर भूख की महाभारत नजर आ रही है तो वहीं देश के नेता घरों में बैठकर टीवी पर रामायण देख रहे हैं. सरकार शायद देखने में देर कर चुकी है तो सवाल यही कि क्या सरकार इस स्थिति से बेखबर थी. क्या सरकार और उसके अधिकारियों को ये नहीं पता था कि....


* देश में 27 करोड़ लोग गरीबी रेखा के नीचे जीते हैं


* देश में 19 करोड़ लोग भूखे पेट सोते हैं


तो सरकार ने क्यों नहीं पहले ही सोच लिया कि भूखे लोगों को रोटी नहीं मिलेगी और हाल यही होगा. अब सरकारें किराया माफ करवाएं या फिर बसें चलवाएं, फर्क क्या पड़ता है. अब तो राहत के सारे ऐलान भी बेमानी से लगते हैं क्योंकि हर तरफ अफरा तफरी का माहौल है. दिल्ली बॉर्डर से बस चलने की सूचना क्या मिली, पूरी की पूरी सड़क पट गई. तिल रखने तक की जगह नहीं बची है. जब ये पता है कि कोरोना छूने से फैलता है, तब इससे खतरनाक और क्या हो सकता है.


लोगों को लग रहा है, कोरोना तो अमीरों की बीमारी है लेकिन लोग ये भूल गए हैं गरीब भी तो विदेश जाने वाले या विदेश से लौटे अमीरों के पास ही काम करते हैं. ऐसे में खुदा ना खास्ता, एक भी संक्रमित इस स्थिति में गांव तक पहुंच गया, तो फिर हालात बेकाबू हो जाएंगे, और सबकुछ हाथ से निकलने लग जाएगा.