अपराध वह हम्माम है, जिसमें सारे के सारे राजनैतिक दल नंगे हैं. क्या भाजपा, क्या कांग्रेस या अन्य क्षेत्रीय दलों की बात ही क्यों न हो? पहले और दूसरे फेज के चुनाव में भी ऐसे आरोपितों की संख्या भरपूर मात्रा में है. लेकिन, इसमें एक और पहलू है. आमतौर पर कहा जाता है कि राजनीति में द्वेषपूर्ण तरीके से भी एक दूसरे के खिलाफ मुकदमें कर दिए जाते हैं. यह बात बहुत हद तक सही भी है. लेकिन, एक होता है गंभीर किस्म का अपराध. ह्त्या, डकैती, बलात्कार, लूटपाट, दंगा भड़काना आदि. ऐसे उम्मीदवारों को आखिर चुनाव लड़वाने की कौन सी मजबूरी होती है, जबकि पिछले कुछेक दशक से एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (एडीआर) लगातार चुनावी राजनीति से अपराधियों को अलग करने की मुहिम चला रही है. बावजूद इसके, शीर्ष राजनीतिक दल कोई सबक नहीं लेते दिख रहे हैं.
भाजपा-कांग्रेस हैं साथ-साथ
पहले फेज की ही बात करें तो भाजपा के 77 उम्मीदवारों में से 28 के खिलाफ क्रिमिनल केसेज और 14 के खिलाफ गंभीर अपराध के मामले दर्ज हैं. वायनाड से ही राहुल गांधी के खिलाफ भाजपा उम्मीदवार के सुरेन्द्रन के खिलाफ 242 मामले दर्ज हैं, हालांकि इनमें से 237 केसेज मामले सबरीमाला प्रकरण से जुड़े आन्दोलन को ले कर हैं. इसी तरह, पहले फेज में कांग्रेस के 56 कैंडिडेट्स में से 19 के खिलाफ क्रिमिनल केसेज और 8 के खिलाफ गंभीर क्रिमिनल केसेज दर्ज है. कमोबेश यही हालत दूसरे फेज की भी है और उम्मीद है कि आने वाले चरणों की भी हालत यही होगी. यह तब है जब एक तरफ भाजपा नारा देती है, 'बहुत हुआ महिलाओं पर अत्याचार, अबकी बार मोदी सरकार'.
वहीं दूसरी तरफ, कांग्रेस ने इस बार के मेनिफेस्टो में हर साल महिलाओं के खाते में एक लाख रूपया देने की बात कही है. प्रियंका गांधी 'लड़की हूं, लड़ सकती हूं' का नारा दे कर यूपी का चुनाव लड़ चुकी है. हालांकि, ये सब महज नारे हैं, वादे हैं, गारंटी हैं, मंशा है. हालांकि, तथ्य और फैक्ट्स का क्या करेंगे? क्या इस बात पर सवाल नहीं उठेगा कि एक-एक कैंडिडेट की जन्मकुंडली खंगालने के बाद ही जब टिकट दिया जाता है, तब क्या दिल्ली में बैठे भाजपा या कांग्रेस आलाकमान को उन फैक्ट्स से अनजान रखा जाता हैं, जो तथ्य ऐसे वादों, गारंटी पर सवालिया निशान लगा देते है
मेंडक से सासाराम: रेप से पोक्सो तक...
तेलंगाना के भाजपा उम्मीदवार एम रघुनंदन मेडक लोकसभा क्षेत्र से उम्मीदवार है और उनके खिलाफ 29 मुकदमें लंबित हैं, जिसमें एससी/एसटी एक्ट से ले कर बलात्कार तक के मामले हैं. दूसरी तरफ कांग्रेस के एक उम्मीदवार हैं सासाराम से. उस सासाराम से जिसकी विरासत बाबू जगजीवन राम और मीरा कुमार जैसी महिला शक्ति के नाम से प्रसिद्ध है. ऐसे में, कांग्रेस की ऐसी क्या मजबूरी थी, जो उसने पोक्सो एक्ट जैसे संगीन जुर्म के आरोपी को अपना उम्मेदवार बनाया? क्या ऐसा जानबूझ कर किया गया? या फिर शीर्ष नेतृत्व को इन तथ्यों की जानकारी ही नहीं थी?
दरअसल, 8 अप्रैल 2024 को कुंद्रा थाना, भभुआ में पोक्सो एक्ट (लैंगिक अपराधों से बालकों का संरक्षण अधिनियम 2012) के तहत दर्ज एफ़आईआर संख्या 5792015240130 को बिना संज्ञान में लेते हुए, कैसे सासाराम से कांग्रेस ने अपना उम्मीदवार एक ऐसे व्यक्ति (मनोज राम) को बना दिया, जिसके बेटे (उज्जवल कुमार, जो गिरफ्तार भी हुआ) और जिस पर खुद इस केस के अभियुक्त के तौर पर नाम दर्ज है.(एफआईआर की प्रति संलग्न है). सवाल है कि जब बिहार या देश की जनता के बीच यह मैसेज जाएगा (एफिडेविट जमा करने के बाद) तब कांग्रेस क्या जवाब देगी?
आलाकमान है बेखबर या बाखबर
सवाल है कि क्या कैंडिडेट ने स्थानीय कांग्रेस नेतृत्व या दिल्ली से आए कांग्रेस प्रभारी/पर्यवेक्षकों को गुमराह किया? दिलचस्प यह भी है कि भभुआ के ही रहने वाले पीड़िता के पिता (पिछड़ी/अतिपिछड़ी जाति से) ने फरवरी 2024 में ही पुलिस को आवेदन दिया था लेकिन तब प्राथमिकी दर्ज नहीं हुई और जब वे पुलिस कप्तान से मिले तब कहीं जा कर 8 अप्रैल को यह प्राथमिकी दर्ज हो सकी. इस प्राथमिकी में उन्होंने साफ-साफ़ अपनी नाबालिग पुत्री के शोषण के लिए उज्जवल कुमार, पिता मनोज राम, मनोज राम, पिता रामजी राम समेत अपनी पत्नी और एक और महिला को नामजद अभियुक्त बनाया है. यह ठीक बात है कि कई बार राजनीति में गलत मंशा से भी किसी को फंसा दिया जाता है. लेकिन उक्त केस में अभी जांच होनी बाकी है. उम्मीदवार के बेटे को गिरफ्तार भी किया गया. जब तक जांच से पाक-साफ़ न निकल जाएं तब तक क्या इंतज़ार नहीं किया जा सकता था?
राजनीतिक पवित्रता का सवाल!
यह कह देने भर से कि तमाम कैंडिडेट्स (सभी दलों के) के खिलाफ मुकदमे होते हैं, मामला खत्म नहीं हो जाएगा. यह कुछ हद तक सही बात है. एडीआर की रिपोर्ट्स भी ऐसा ही कहती हैं. लेकिन, आंख मूँद कर ऐसी गलती कर देना तो अक्षम्य अपराध ही माना जाएगा. सुप्रीम कोर्ट से ले कर कई एनजीओ लगातार राजनीति में पारदर्शिता और शुद्धता की कोशिशें कर रही हैं. चाहे बात चन्दा की हो, आपराधिक रिकार्ड्स की हो या चुनावी खर्च की हो. यह बात भी सही है कि अक्सर राजनैतिक रूप से विरोधी दल सामने वाले पर मुकदमे करते-करवाते रहते हैं.
लेकिन, मुकदमों की भी अपनी एक प्रकृति होती है. अब किसी पर सीधे-सीधे चोरी/डकैती/बलात्कार जैसे केस हो, किसी पर नाबालिग के शोषण के आरोप हो तो मुझे ऐसा लगता है कि प्रथम दृष्टया ही ऐसे आरोपियों को तब तक चुनावी राजनीति में जगह नहीं मिलनी चाहिए जब तक कि वे पाक-साफ़ साबित न हो जाए. सरकारें चाहे तो इसके लिए फास्ट ट्रैक कोर्ट्स बना कर 2-3 महीने के भीतर ऐसे मुकदमों का निपटारा कर सकती है ताकि आरोपी अगर बेगुनाह हो तो उसके साथ भी अन्याय न हो सके.
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