देश के कई इलाकों में चक्रवात मोचा (Cyclone Mocha) अपना भयानक रूप दिखा सकता है. भारतीय मौसम विभाग (आईएमडी) के मुताबिक, बंगाल की खाड़ी और इससे सटे दक्षिण अंडमान सागर पर एक कम दबाव क्षेत्र बना हुआ है जो कि डिप्रेशन में बदल सकता हैं. दक्षिण अंडमान सागर से निकला तूफान 'मोचा' बंगाल की खाड़ी और उससे सटे इलाके के ऊपर से गुजरेगा. इसकी वजह से उत्तरी ओडिशा और पश्चिम बंगाल के तटवर्ती इलाकों में तेज हवाएं और बरसात हो सकती है.
पहले से इसकी सूचना होने की वजह से नावों, ट्रॉलरों और मछली पकड़ने वाली नौकाओं के मालिकों को समुद्र में न जाने के लिए अपील की गई है. आपदा-प्रबंधन कर्मी उन इलाकों में सतर्क हैं, जहां नुकसान होने का अंदेशा है और जानमाल की हानि को कम से कम किया जाने का प्रयास किया जा रहा है. केरल में मलप्पुरम जिले के तानुर इलाके में एक हाउसबोट पर सवार लोग इतने भाग्यशाली नहीं थे, शायद. रविवार यानी 7 मई की शाम वह हाउसबोट डूब गई जिससे उसमें सवार बच्चों समेत 21 लोगों की मौत हो गई. भारत में आपदा-प्रबंधन को अभी भी गंभीरता से नहीं लिया जाता है और इसीलिए हम कभी आगजनी, कभी डूबने तो कभी किसी और हादसे की खबर सुनते हैं.
भारत में 2005 से आपदा-प्रबंधन का विकास
भारत में आपदा-प्रबंधन का अभी इवोल्यूशन-प्रॉसेस ही चल रहा है. पहले यानी 2005 से पूर्व, जब इस संदर्भ में हमारे यहां अधिनियम नहीं थे, तो बड़े ही ऊबड़-खाबड़ तरीके से इसका प्रबंध होता था, जिसमें भी प्राथमिक तौर पर रिलीफ यानी मुआवजे और राहत कार्य पर ध्यान दिया जाता था. आपदा के बाद एक रेस्क्यू ऑपरेशन यानी बचाव कार्य होता था, जिसमें हम साथ ही साथ रिलीफ भी बांटते थे. फिलहाल, परिस्थितियां बदली हैं. इसमें राज्य स्तर पर, जिले स्तर और पंचायत व नगर निकायों के स्तर पर भी, संभावित खतरों से संस्थागत तौर पर निबटने की तैयारी होती है. उसी तरह राष्ट्रीय स्तर पर हम राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन संस्थान, राष्ट्रीय आपदा प्राधिकरण और राष्ट्रीय आपदा विमोचन दल भी बनाया गया. एक समग्रता के तौर पर हमारे देश में सोच विकसित हुई और आपदा-प्रबंधन किस तरह किया जाए, उसी तरह तैयारी की गयी. चूंकि यह विषय राज्यों का है, तो ये केंद्र सरकार उनको सपोर्ट करती है कि आपदा आने के पूर्व वे किस तरह तैयार रहें, ताकि आपदा आने के बाद नुकसान कम से कम हो.
अभी दो दिनों पहले केरल में जो बोट डूबने और दो दर्जन से अधिक टूरिस्ट के मौत की खबर है, या वैसी ही अन्य राज्यों की खबर का संदर्भ है. तो उनमें से कुछ मानव जनित हैं और कुछ प्राकृतिक. जैसे भूकंप, चक्रवात, बाढ़ इत्यादि प्राकृतिक हैं, नाव डूब जाना, आगजनी इत्यादि मानवजनित हैं. एक पर आपका वश नहीं, दूसरा असावधानी से होता है. प्राकृतिक आपदा के संदर्भ में हम कोशिश करते हैं कि पहले से तैयार रहें, लेकिन वह अनिश्चितता होती है. यह दोनों ही संदर्भ में है. दोनों को हम किस तरह मैनेज करते हैं, कैसा प्रबंध करते हैं, यह महत्वपूर्ण है. इधर कुछ वर्षो से आपने गौर किया होगा कि हादसों की संख्या और इंटेंसिटी पहले से काफी बढ़ गयी है. उसके अनुरूप हमारी तैयारी को देखना होगा.
सावधानी से कम कर सकते हैं हादसों को
हमारे देश में जो अभी राष्ट्रीय आपदा प्राधिकरण है, उसके साथ ही कई राज्यों जैसे बिहार है, ओडीशी है. इन सबने मिलकर एक गाइडलाइन तैयार की है, ताकि उसी के अनुरूप राज्य, जिले और पंचायत स्तर पर तैयारी की जा सके. इसमें जिम्मेदारी सहित काम करेंगे तो प्रभाव कम होगा. गाइडलाइन्स के साथ काम भी शुरू हुआ है. राज्य स्तर पर भी और जिला स्तर पर भी. एक छोटा उदाहरण है बिहार के पटना का. पहले वहां डूबने की घटनाएं बहुत होती थीं. कारण कि नावों का रजिस्ट्रेशन नहीं होता था, गोताखोर वही थे जो गंगा किनारे हमें मिल गए थे, मिल जाते थे. हालांकि, जब राज्य स्तरीय प्राधिकरण बना तो उनको प्रशिक्षण मिला और डूबने की घटनाओं में उनका सहयोग लेते हैं. तो, कई जगह नवोन्मेष करना पड़ता है, किताबों में जो प्रैक्टिस में नहीं है, लेकिन हमें वह करना होगा. अच्छे प्रैक्टिस के कारण अन्य राज्य उसको अपनाते हैं. हाल ही में घटी केरल की नाव-दुर्घटना है, या आगजनी की घटनाओं की बात करें तो थोड़ी-बहुत लापरवाही होती है, यह तो मानना पड़ेगा. जैसे गरमी आ रही है, तो जो छोटी फैक्टरी है, छोटे-छोटे घर हैं, उनको अगर देख लिया जाए. वायरिंग को देख लें, व्यक्ति और समुदाय अगर सचेत रहें तो बहुत कमी ला सकते हैं.
मुआवजे पर हम इसलिए अधिक जोर देते हैं क्योंकि उस लेवल की हमारी तैयारी नहीं है जो घटना से पहले हम उसे रोक दें, या घटना का स्वरूप पहले से तय नहीं है. लोगों पर इसीलिए प्रभाव अधिक पड़ता है. अगर उनको रिलीफ नहीं दिया जाए, तो मुश्किल और बढ़ेगी. तो रिलीफ तो जरूरी है लेकिन प्री-डिजैस्टर तैयारी हमारी जरूर हो. आपदा की पहले से तैयारी और उस हिसाब से बजटीय आवंटन को पहली बार 15वें वित्त आयोग ने संस्तुति दी है. पहली बार यह हुआ है कि जोखिम को रोकने के लिए, फ्लड, सूखे या आगजनी को रोकने के लिए बजट का प्रावधान किया गया है. अब यह तो राज्य सरकारों पर निर्भर करता है कि वह कितने प्रभावी तरीके से उसका इस्तेमाल कर पाते हैं, वरना होगा यह कि रिस्क तो हमारा बहुत रहा आपदाओं का, लेकिन आवंटित धनराशि का भी हम इस्तेमाल नहीं कर पाए. हर राज्य अपने जोखिम की पहचान करे और उसी मुताबिक फंड का इस्तेमाल करे. जोखिम तो बिहार हो या उत्तराखंड हो, मध्य प्रदेश हो या उत्तर प्रदेश हो, हरेक जगह का अलग होगा.
हमारी मानसिकता भी चीजों को बदलती है. हमारी व्यक्तिगत मानसिकता क्या है, सामाजिक मानसिकता क्या है, उसी के आधार पर फिर तय होता है कि हमारी होलिस्टिक मानसिकता क्या है? अगर हम व्यक्तिगत तौर पर इसको लेकर संवेदनशील होते हैं, तो समाज भी होगा. व्यक्ति भी समाज का ही तो हिस्सा है. अगर इन दोनों में डिसकनेक्ट हुआ, तो निश्चित रूप से इसका प्रभाव गवर्नेंस पर पड़ता है. जिस खतरे को हम रोज देखते हैं, उस पर हम कितने तैयार हैं, सरकार की क्या भूमिका हो सकती है, यह सोचना होगा. जनता की तरफ से सरकार की तरफ जाना होगा, सरकार की तरफ से जनता तक आने का कोई फायदा नहीं मिलेगा. समुदाय को एंगेज कर जनजागरण की बहुत जरूरत है.
(यह आर्टिकल निजी विचारों पर आधारित है)