पौष्टिक आहार से आखिर क्यों इतना दूर होता जा रहा है 'दूध'?
हिंदी के मशहूर कवि रामधारी सिंह "दिनकर" ने दूध का महत्व समझाने के लिये एक कविता लिखी थी- "दूध-दूध!' ओ वत्स! मंदिरों में बहरे पाषाण यहां हैं, दूध-दूध!' तारे, बोलो, इन बच्चों के भगवान् कहां हैं?' 'दूध-दूध'! दुनिया सोती है, लाऊं दूध कहां, किस घर से? 'दूध-दूध!' हे देव गगन के! कुछ बूंदें टपका अम्बर से! 'दूध-दूध!' गंगा तू ही अपने पानी को दूध बना दे, 'दूध-दूध!' उफ़! है कोई, भूखे मुर्दों को जरा मना दे? 'दूध-दूध!' फिर 'दूध!' अरे क्या याद दुख की खो न सकोगे? 'दूध-दूध!' मरकर भी क्या तुम बिना दूध के सो न सकोगे? वे भी यहीं, दूध से जो अपने श्वानों को नहलाते हैं. वे बच्चे भी यही, कब्र में 'दूध-दूध!' जो चिल्लाते हैं."
इस कविता का जिक्र इसलिए करना पड़ा कि हमारे देश में गरीबों का सबसे पौष्टिक आहार माना जाने वाला दूध आख़िर उनकी जेब से इतना दूर क्यों होता जा रहा है? पिछले साल भर में 12 रुपये प्रति लीटर तक की कीमतें बढ़ाने वाली तमाम दुग्ध उत्पादक कंपनियां सीना तानकर ये बताती हैं कि उन्हें ऐसा क्यों करना पड़ा. लेकिन सवाल उठता है कि देश की 140 करोड़ आबादी के लिए हर रोज 210 मिलियन टन दूध का उत्पादन करने वाली इन कंपनियों द्वारा कीमतें तय करने की प्रक्रिया पर सरकार का नियंत्रण आखिर क्यों नहीं है? शायद इसलिए कि दूध का उत्पादन करने में को-ऑपरेटिव सोसाइटियां ही अव्वल हैं और सरकार ने ऑयल कंपनियों की तरह ही दूध की कीमतें तय करने के लिए इन्हें भी खुल्ला छोड़ दिया है.
डेयरी क्षेत्र के जानकार मानते हैं कि सरकार ने सहकारी क्षेत्रों की तमाम कंपनियों को दूध की कीमतों में मनमाने तरीके से बढ़ोतरी करने की जो छूट दे रखी है, वो उसके लिए आत्मघाती कदम भी साबित हो सकता है जिसका अंदाजा सरकार में बैठे नौकरशाहों को भले ही हो लेकिन वे इस तथ्य को अपने मंत्री से चाहे डर के मारे ही सही लेकिन छुपा तो रहे हैं कि इस पर लगाम न कसने के सरकार को कितने नुकसान झेलने पड़ सकते हैं. मसलन, अब राजधानी दिल्ली में अमूल फुल क्रीम दूध की कीमत 63 रुपये प्रति लीटर से बढ़कर 66 रुपये हो गई है. विश्लेषकों के मुताबिक अगर यही रफ़्तार रही और सरकार ने कीमतों की बढ़ोतरी पर कोई अंकुश नहीं लगाया तो अगले साल होने वाले लोकसभा चुनाव तक ये 80 रुपये के आसपास तक पहुंच जायेगी जो लोगों के लिए महंगाई का एक बड़ा झटका होगा.
अब तो केंद्र सरकार के नियंत्रण वाली मदर डेयरी ने भी दूध की कीमतें बढ़ाने का संकेत दे दिया है जिसका ऐलान अगले दो-तीन दिन में ही सकता है. लिहाज़ा, ऐसी जरूरी चीज से जुड़ी कीमतों के राजनीतिक परिणामों का विश्लेषण करने वाले जानकार मानते हैं कि ऐसी सूरत में लोगों के पास अपना गुस्सा निकालने का एकमात्र यही विकल्प होगा कि वे सत्ताधारी पार्टी के खिलाफ वोट करने से परहेज़ नहीं करेंगे. हालांकि ये भी सच है कि कोरोना महामारी से दुग्ध उत्पादन करने वाली कंपनियों के सामने जो मुश्किलें खड़ी हुई थीं वो अभी पूरी तरह से खत्म नहीं हुई है. इसकी एक बड़ी वजह ये है कि पशुओं को खिलाने वाला चारा बहुत महंगा हो गया है. जून 2013 के बाद इसके दाम इस समय सबसे ज़्यादा हैं. दूसरी वजह है कि वैश्विक स्तर पर भारत के दूध की मांग भी बढ़ी है. दुनिया में 23 फीसदी दूध का उत्पादन भारत में होता है. पिछले साल के मुक़ाबले दूध खरीद दर भी 15 से 25 प्रतिशत तक बढ़ी है. ये सभी कारणों के चलते दूध के खुदरा दाम बढ़ रहे हैं.
जानकर कहते हैं कि दूध के दाम में लगातार बढ़ोतरी के कई कारण रहे हैं जिन पर सरकार हाथ नहीं डालना चाहती. मार्च 2020 में जब कोरोना महामारी की वजह से लॉकडाउन लगाया गया तो दूध की थोक सप्लाई बहुत ज्यादा प्रभावित हुई थी. होटल, रेस्टोरेंट, कैंटीन और मिठाई की दुकानें बंद हो गईं थीं और शादियां व जश्न मनाने के बाकी कार्यक्रम भी रद्द हो गए थे. इस वजह से डेयरी वालों की ओर से अप्रैल-जुलाई 2020 के बीच गाय के दूध की खरीद की कीमत 18 से 20 रुपए प्रति लीटर तक कम कर दी गई. वहीं भैंस के दूध की कीमत में 30-32 रुपए तक की कमी कर दी गई. इसका असर स्किम्ड मिल्क पावडर और काउ बटर और घी जैसी चीजों पर भी पड़ा जिसके चलते पूरा धंधा ही बैठने लगा.
नतीजा ये हुआ कि किसानों ने अपने मवेशियों की संख्या कम करनी शुरू कर दी या फिर उनके विस्तार पर तो लगभग ब्रेक ही लगा दिया क्योंकि दूध के दाम से उनके लिए चारा निकलना भी मुश्किल होने लगा था. परिणाम ये हुआ कि मवेशियों की खुराक ही कम कर दी गई और इनमें भी खासकर बछड़े और बछियों या गर्भवती जानवरों या दूध नहीं देने वाले पशु सबसे ज्यादा उपेक्षा के शिकार होने लगे. पशु वैज्ञानिकों के मुताबिक एक नवजात मवेशी को गर्भधारण के लिए तैयार होने में 15 से 18 महीने लग जाते हैं और इसमें 9 से 10 महीने की गर्भावस्था को शामिल कर लीजिए. मतलब ये कि उन्हें दूध देने में जन्म लेने के बाद 24 से 28 महीने तक लग जाते हैं. भैंसों के मामले में तो यह 36 से 48 महीने तक का समय माना जाता है.
वैसे ये भी एक तथ्य है कि भारत में एक औसत नागरिक महीने भर में खाने पर होने वाले कुल खर्चे में से लगभग 20 प्रतिशत दूध पर ही खर्च करता है. शहरों में ये खर्च और ज्यादा है. वहीं, नेशनल सैंपल सर्वे (एनएसएस) के मुताबिक ग्रामीण इलाकों के लोग दूध और दुग्ध उत्पादों पर महीने में 116 रुपये खर्च करते हैं. रिसर्च के मुताबिक बीते महीनों में दूध की मांग भी पहले से ज्यादा बढ़ी है. पिछले साल सितंबर में World Dairy Summit को संबोधित करते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने दूध उत्पादन में वृद्धि पर प्रसन्नता व्यक्त करते हुए कहा था कि "एक जीवंत डेयरी क्षेत्र भी हमारी "नारी शक्ति" को मजबूत करने का एक शानदार माध्यम है. आज भारत में डेयरी कोऑपरेटिव का एक ऐसा विशाल नेटवर्क है जिसकी मिसाल पूरी दुनिया में मिलना मुश्किल है." सवाल ये है कि एक नवजात शिशु को मां का दूध पीने के साल-सवा साल बाद इसी दूध की जरुरत होती है और अगर वह इतना महंगा होता चला गया तो फिर "नारी शक्ति" तो बेचारी बनकर ही रह जायेगी.
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