मोदी सरकार की इलेक्टोरल बॉन्ड योजना असंवैधानिक और अवैध है. सुप्रीम कोर्ट के आदेश से यह सुनिश्चित हो गया. अपने ऐतिहासिक फ़ैसले में 15 फरवरी को सुप्रीम कोर्ट ने चुनावी बॉन्ड योजना को रद्द भी कर दिया है. लागू होने के 6 साल बाद सुप्रीम कोर्ट ने इस स्कीम के तहत प्रावधानों को ही संविधान के मौलिक अधिकार का उल्लंघन बताया है. उच्चतम न्यायालय ने इसे नागरिकों के जानने के अधिकार का हनन क़रार दिया.


असंवैधानिक क़रार दिए जाने के बाद सुप्रीम कोर्ट के आदेश से राजनीतिक व्यवस्था, चुनावी निष्पक्षता, देश के नागरिकों के प्रति सरकार की सोच और मंशा को लेकर कई सारे सवाल खड़े होते हैं. तमाम सवाल भविष्य के नज़रिये से ज़ियादा प्रासंगिक और महत्वपूर्ण हैं.


सुप्रीम कोर्ट के आदेश में कई ऐसे पहलू हैं, जिन पर विस्तार से चर्चा होनी चाहिए. देश के आम लोगों के साथ ही सामाजिक और राजनीतिक संगठनों को उन पहलुओं पर ग़ौर से चिंतन करना चाहिए. आज़ादी के बाद से जिस राजनीतिक और सरकारी सिस्टम का भारत में विकास हुआ है, उसमें व्यावहारिक स्तर पर आम नागरिक कहाँ खड़े हैं, उनका क्या महत्व है, सरकार और राजनीतिक दलों के लिए नागरिक कितना मायने रखते हैं. इन सभी बिंदुओं पर विचार होना चाहिए.


बॉन्ड ही असंवैधानिक, फिर लेन-देन वैध कैसे?


राजनीतिक वित्तपोषण में पारदर्शिता के नाम पर इलेक्टोरल बॉन्ड लाया गया. जनवरी 2018 से लेकर जनवरी 2024 के बीच 16,518 करोड़ रुपये के इलेक्टोरल बॉन्ड ख़रीदे गए थे. इतनी बड़ी राशि का लेन-देन गुमनाम डोनर की ओर से राजनीतिक दलों को होता है, लेकिन अब सुप्रीम कोर्ट के आदेश से यह योजना ही अवैध हो गयी. सुप्रीम कोर्ट ने भविष्य में बॉन्ड जारी करने पर रोक लगा दी है. डोनर के नाम भी कुछ दिनों में देश के लोगों का पता चल जाएगा. अब बतौर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की राजनीतिक जवाबदेही भी बनती है. साथ ही सत्ताधारी दल होने के नाते बीजेपी को भी चंद सवालों का जवाब जनता के सामने रखना चाहिए कि आख़िर असंवैधानिक बॉन्ड के ज़रिये इतनी बड़ी राशि का लेन-देन वैध कैसे माना जाए.



क्या चुनावी बॉन्ड से प्राप्त राशि नहीं है अवैध?


योजना ही अवैध और असंवैधानिक थी. ऐसे में सवाल उठता है कि पिछले 6 साल के दौरान तमाम राजनीतिक दलों को जो राशि इलेक्टोरल बॉन्ड से प्राप्त हुई है, क्या उसे संवैधानिक प्रावधानों का उल्लंघन करके अवैध तौर से हासिल की हुई राशि नहीं मानी चाहिए. उस राशि को राजनीतिक दलों से वसूलने के लिए आगे की कार्रवाई नहीं होनी चाहिए. इन सवालों के जवाब सुप्रीम कोर्ट के आदेश में नहीं है. हालाँकि देश के नागरिकों के लिए इन सवालों की प्रासंगिकता है.


हमारा राजनीतिक और सरकारी तंत्र उस रूप में बना हुआ है कि अगर आम नागरिक ग़लत तरीक़े से छोटी-मोटी राशि हासिल करता है, तो उस राशि की रिकवरी के लिए तमाम क़ानूनी प्रावधान हैं. ऐसे में अवैध और असंवैधानिक योजना से हासिल की गयी इतनी बड़ी राशि की वसूली के लिए कोई व्यवस्था क्यों नहीं है. अगर नहीं है, तो क्यों नहीं बननी चाहिए. योजना को लेकर मोदी सरकार को कटघरे में खड़ा करने वाले तमाम विपक्षी दलों के नेता भी इस रिकवरी वाले मसले और सवाल पर चुप्पी साधे बैठे हैं.


डोनर का नाम सार्वजनिक होना ही काफ़ी नहीं


सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले के बाद यह मसला सिर्फ़ चुनावी और राजनीतिक वित्त पोषण में पारदर्शिता या सत्तारूढ़ दल को फ़ाइदा तक ही सीमित नहीं रह जाता है. 2018 से 2024 तक जो भी लेन-देन हुआ है, उसके तहत डोनर के नाम का सार्वजनिक हो जाना ही समस्या का समाधान नहीं है. जैसा कि आरोप लगता रहा है, डोनर चंदे के नाम पर सरकार या राजनीतिक दलों से अगर कोई फ़ाइदा उठाना चाहते थे, तो उस फ़ाइदे का स्वरूप क्या रहा है, किसी प्रोजेक्ट में उन डोनर को बतौर निजी व्यक्ति या कंपनी के रूप में लाभ तो नहीं मिला है..ऐसे ही कई सवाल हैं, जो नाम सार्वजनिक होने के बाद उठाए जाने चाहिए.


इलेक्टोरल बॉन्ड से जुड़े हर पहलू की जाँच हो


नाम सार्वजनिक होने के साथ ही मामला आगे बढ़ना चाहिए. सुप्रीम कोर्ट की निगरानी में इलेक्टोरल बॉन्ड से जुड़े हर पहलू की जाँच होनी चाहिए. इसमें रिकवरी, कंपनियों, उद्योगपतियों या बड़े-बड़े कारोबारियों को फ़ाइदा जैसे पहलू शामिल हैं. इस दिशा में तमाम विपक्षी दलों की ओर से भी आवाज़ बुलंद करने की ज़रूरत है. हालाँकि जिस तरह की राजनीतिक व्यवस्था है, उसमें विपक्षी दलों की ओर से ऐसा किया जाएगा, इसकी संभावना कम ही है. देश के आम लोगों को ही इसके लिए अलग-अलग तरीक़ों से माहौल बनाना होगा. यह तभी संभव है, जब राजनीतिक चंदा और इलेक्टोरल बॉन्ड से जुड़ी हर बारीकी पर देशव्यापी तौर से लंबी चर्चा हो.


पारदर्शिता के नाम पर मौलिक हक़ का हनन


सुप्रीम कोर्ट के आदेश को निष्कर्ष और दिशा निर्देश से आगे जाकर देखने की ज़रूरत है. चुनावी बॉन्ड की घोषणा तत्कालीन केंद्रीय वित्त मंत्री अरुण जेटली ने एक फरवरी 2017 को आम बजट भाषण में किया था. यह योजना 2 जनवरी 2018 से लागू हो गया था. उस वक़्त मोदी सरकार की ओर से इस योजना का मकसद राजनीतिक चंदे में पारदर्शिता बताया गया था. तत्कालीन वित्त मंत्री अरुण जेटली के साथ ही बीजेपी के तमाम बड़े नेताओं ने इस योजना की ज़रूरत को लेकर क़सीदे पढ़े थे. सबकी दलीलों में पारदर्शिता को प्रमुख पहलू बताया गया था. विडंबना देखिए कि सुप्रीम कोर्ट के आदेश में इसी पारदर्शिता को कटघरे में खड़ा करते हुए योजना को ही असंवैधानिक बता दिया गया है.



मोदी सरकार के लिए सबसे बड़ा झटका


चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया डी वाई चंद्रचूड की अध्यक्षता वाली पांच जजों की संविधान पीठ ऐतिहासिक फ़ैसला सुनाया. संविधान पीठ ने दो अलग-अलग लेकिन सर्वसम्मत फ़ैसले सुनाए. संविधान पीठ में जस्टिस बी आर गवई, जस्टिस जे बी पारदीवाला, जस्टिस मनोज मिश्रा और जस्टिस संजीव खन्ना भी शामिल थे. सुप्रीम कोर्ट का यह फ़ैसला लगातार दो कार्यकाल में मोदी सरकार के लिए अब तक का सबसे बड़ा झटका कहा जा सकता है.


डोनर को गुमनाम रखने के पीछे की मंशा


सुप्रीम कोर्ट ने तत्काल प्रभाव से स्कीम को रद्द कर दिया है और इस स्कीम के तहत जिन-जिन लोगों या कंपनियों ने बॉन्ड ख़रीदकर डोनेट किया है, उनके नाम सार्वजनिक करने का भी आदेश दिया है. सरकार यही नहीं चाहती थी. डोनर के नाम को छिपाने के पीछे सरकार की क्या मंशा थी, यह देशवासियों को जानने का हक़ है और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को इसे बताना भी चाहिए. पारदर्शिता का हवाला देकर इस योजना को मोदी सरकार लाई थी, लेकिन सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद यह स्पष्ट हो गया है कि पारदर्शिता का नहीं होना ही इस योजना की सबसे बड़ी ख़ामी है.


नागरिकों को लेकर मोदी सरकार का रुख़


उच्चतम न्यायालय में सुनवाई के दौरान मोदी सरकार की ओर से योजना के बचाव में जितनी भी दलील रखी गयी, उससे केंद्र सरकार की मंशा को समझा जा सकता है. सुप्रीम कोर्ट के आदेश में विस्तार से केंद्र सरकार की दलीलों का ज़िक्र है. इसके तहत मोदी सरकार ने कहा है कि


"नागरिकों को राजनीतिक दलों की फंडिंग के संबंध में जानने का सामान्य अधिकार नहीं है. जानने का अधिकार नागरिकों को उपलब्ध कोई सामान्य अधिकार नहीं है." ((Citizens do not have a general right to know regarding the funding of political parties. Right to know is not a general right available to citizens.))


क्या राजनीतिक दल नागरिकों से ऊपर हैं?


एक तरफ़ को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पारदर्शिता की बात करते हैं, दूसरी ओर उनकी सरकार सुप्रीम कोर्ट में कहती है कि नागरिकों को राजनीतिक दलों की फंडिंग के बारे में जानने का हक़ नहीं है. लोकतांत्रिक व्यवस्था में पूरा तंत्र ही नागरिकों के लिए बना है. पूरी व्यवस्था में नागरिक ही सर्वोपरि हैं. लेकिन मोदी सरकार का कहना है कि नागरिकों को ही जानने का अधिकार नहीं है. इस दलील से समझा जा सकता है कि बार-बार पारदर्शिता का राग अलापने वाली सरकार आम नागरिकों को ही सिस्टम से बाहर कर दे रही है. फिर सवाल प्रासंगिक हो जाता है कि क्या पूरी व्यवस्था सिर्फ़ राजनीतिक दलों के लिए है.


नागरिकों का महत्व क्यों किया गया कम?


सरकार चाहती है कि नागरिकों के एक-एक रुपये का हिसाब-किताब रखा जाए. सरकार की ओर से लगातार ऐसी व्यवस्था का ही निर्माण किया जा रहा है. नागरिक क्या खाएंगे, क्या पहनेंगे, किसके साथ रहेंगे, कहाँ घूमने जाएंगे, कहाँ पैसे ख़र्च करेंगे...ऐसी तमाम चीज़ें सरकार जानना चाहती है. इसके विपरीत नागरिकों को यह जानने का बिल्कुल अधिकार नहीं है कि किन लोगों ने, किन कंपनियों ने राजनीतिक दलों को कितने चंदे दिए. सरकार का यह रवैया दर्शाता है कि पूरे सिस्टम में नागरिकों का महत्व उतना ही है, जितना सरकार या राजनीतिक दल तय करेंगे. यह बेहद गंभीर पहलू है, जिस पर कोई कोर्ट नहीं विचार करेगी. इस पर देश के आम लोगों को ही गंभीरता से विचार करना होगा.


केंद्र सरकार की यह भी दलील थी कि कंपनियों की ओर से राजनीतिक दलों को दिए गए योगदान के प्रभाव की जाँच उच्चतम न्यायालय नहीं कर सकता है क्योंकि यह लोकतांत्रिक महत्व का मुद्दा है और इसे विधायिका या'नी संसद पर छोड़ देना चाहिए. इस दलील को अगर स्वीकार भी कर लिया जाए, तो मोदी सरकार ने तो संसद से ही यह प्रावधान बनना दिया कि इलेक्टोरल बॉन्ड योजना ही सूचना के अधिकार के दायरे से बाहर है. या'नी इस मसले में राजनीतिक दलों और डोनर के बीच नागरिकों की कोई हैसियत नहीं है. इस दलील से भी समझा जा सकता है कि मोदी सरकार राजनीतिक दलों को नागरिकों से भी ऊपर मान रही है.


राजनीतिक आस्था या नागरिक अधिकार महत्वपूर्ण


मोदी सरकार की ओर से सुप्रीम कोर्ट में यह भी दलील पेश की गयी कि इलेक्टोरल बॉन्ड कौन ख़रीद रहा है और उसके माध्यम से वो किस दल को चंदा दे रहा है, अगर आम नागरिक जान जाएंगे, तो इससे किसी व्यक्ति की राजनीतिक संबद्धता की गोपनीयता ख़त्म हो जाएगी. मोदी सरकार का कहना था कि किसी की पसंदीदा पार्टी को धन दान करना एक प्रकार की राजनीतिक आत्म-अभिव्यक्ति है, जो गोपनीयता के केंद्र में है. दरअसल इस दलील के ज़रिये मोदी सरकार यह बताना चाह रही थी कि राजनीतिक दल किससे लेन-देन कर रहे हैं, यह हम नहीं बताएंगे और न ही नागरिकों को इसे जानने का हक़ देंगे. इलेक्टोरल बॉन्ड के बचाव में दिए गए तर्कों से तो यही कहा जा सकता है कि मोदी सरकार के लिए निजी राजनीतिक आस्था..संवैधानिक नागरिक अधिकारों से अधिक महत्वपूर्ण है.


बॉन्ड से चंदा के तौर पर बड़ी राशि का खेल


इलेक्टोरल बॉन्ड के तहत कोई भी राजनीतिक चंदा दे सकता है। इसमें निजी व्यक्ति भी हो सकता या फिर कोई कंपनी भी हो सकती है. इस योजना में सबसे दिलचस्प पहलू यह था कि इसके तहत पाँच मूल्य वर्ग (Denomination) में बॉन्ड जारी हो रहा था.  हज़ार रुपये का बॉन्ड, दस हज़ार रुपये का बॉन्ड, एक लाख रुपये का बॉन्ड, दस लाख रुपये का बॉन्ड और एक करोड़ रुपये के मूल्य का बॉन्ड. 15 फरवरी के फ़ैसले के तहत जस्टिस संजीव खन्ना के हिस्से वाले आदेश में पूरी जानकारी शामिल की गयी है कि इस योजना में किस मूल्यवर्ग के कितने बॉन्ड की बिक्री हुई. इसमें मार्च 2018 से जुलाई 2023 के दौरान 27 फ़ेज़ में बेचे गए बॉन्ड की जानकारी है. 



  • इस दौरान सबसे अधिक एक करोड़ वाले बॉन्ड की बिक्री हुई. कुल 24,012 बॉन्ड की बिक्री हुई. इनमें सबसे अधिक 12,999 बॉन्ड एक करोड़ वाले थे. कुल बॉन्ड का यह 54.13% था.

  • यह तो बॉन्ड की संख्या हुई. राशि की बात करें, तो, इस अवधि में 94% योगदान 1 करोड़ रुपये मूल्यवर्ग के चुनावी बांड से आया. यह राशि 12,999 करोड़ रुपये हो जाती है.

  • हैरान करने वाली बात है कि इस दौरान सिर्फ़ 99 बॉन्ड एक हज़ार रुपये वाला बिका. उसी तरह से महज़ 208 बॉन्ड 10 हजार रुपये वाले बिके. एक लाख रुपये मूल्यवर्ग वाले 3,088 बॉन्ड बिके. वहीं 7, 618 बॉन्ड 10 लाख रुपये वाले बिके.

  • राशि के आधार पर 10 लाख रुपये वाले बॉन्ड की हिस्सेदारी 5.52% रही. एक लाख रुपये मूल्य वर्ग वाले बॉन्ड की हिस्सेदारी 0.22% और दस हज़ार रुपये वाले बॉन्ड की हिस्सेदारी 0.001% रही.

  • राशि के आधार पर एक करोड़ और दस लाख रुपये वाले बॉन्ड की कुल हिस्सेदारी 99.77% रही.


करोड़ के मूल्यवर्ग में राजनीतिक चंदा कौन देगा?


इलेक्टोरल बॉन्ड के मूल्यवर्ग से जुड़े इन आँकड़ों से बेहद दिलचस्प निष्कर्ष निकाला जा सकता है. इलेक्टोरल बॉन्ड स्कीम यह कहकर लाया ही गया था कि इससे राजनीतिक चंदे में भ्रष्टाचार और काला धन की गुंजाइश ख़त्म होगी. हालाँकि जिस तरह से व्यापक तौर पर सिर्फ़ एक करोड़ और दस लाख के बॉन्ड का इस्तेमाल हुआ है और डोनर के नाम को गुमनाम रखा गया..उससे कहानी कुछ और ही बनती है.


एक बात स्पष्ट है कि भारत जैसे देश में आम लोगों की राजनीतिक चंदे में कोई ख़ास रुचि नहीं रही है. भारत में आज भी तक़रीबन 80 करोड़ लोग खाने के लिए सरकारी स्तर पर मिलने वाले तथाकथित मुफ़्त अनाज के मोहताज हैं. देश की क़रीब 90 फ़ीसदी आबादी अपनी रोज़-मर्रा की ज़रूरतों के लिए जूझ रही है. आर्थिक विषमता के दंश से जूझ रही 90 फ़ीसदी आबादी राजनीतिक चंदा देने की हैसियत ही नहीं रखती है.


करोड़ों का चंदा मुफ्त़ में कोई नहीं देगा!


इन परिस्थितियों में एक करोड़ और दस लाख करोड़ का इलेक्टोरल बॉन्ड कौन ख़रीद रहा था, यह अनुमान लगाना मुश्किल नहीं है. निश्चित है कि इलेक्टोरल बॉन्ड बड़े-बड़े कारोबारी और बड़ी कंपनियाँ ही ख़रीद रही थीं और राजनीतिक दलों को दे रही थीं. अब यह भी छिपा हुआ पहलू नहीं है कि कोई किसी को भी इतनी बड़ी राशि बिना स्वार्थ के देगा नहीं. स्पष्ट है कि इस योजना के ज़रिये बड़े-बड़े कारोबारी, बड़ी-बड़ी कंपनियाँ और राजनीतिक दलों के बीच लेन-देन हो रहा था. कंपनियाँ इतनी बड़ी राशि बतौर चंदा देगी तो, इसके एवज में कुछ न कुछ तो राजनीतिक दलों से चाहेगी ही. उसमें भी सत्ताधारी दलों से अपेक्षाएं अधिक होंगी. इन सब पहलुओं पर देश के आम लोगों को सोचने की ज़रूरत है.


किस राजनीतिक दल को सबसे अधिक लाभ?


इलेक्टोरल बॉन्ड को लेकर एक और महत्वपूर्ण पहलू है. किन-किन राजनीतिक दलों को इस योजना से कितनी-कितनी राशि बतौर चंदा हासिल हुआ. उसमें भी सबसे अधिक लाभ किस दल को मिला. सुप्रीम कोर्ट के आदेश में इन आँकड़ों का भी ज़िक्र है. जस्टिस संजीव खन्ना के आदेश वाले हिस्से में 2017-18 से 2022-23 तक के आँकड़ों को दर्शाया गया है.



  • इस दौरान इलेक्टोरल बॉन्ड से बीजेपी 2017-18 में 210 करोड़ रुपये, 2018-19 में 1,450. 89 करोड़ रुपये, 2019-20  में 2,555 करोड़ रुपये और 2020-21 में 22.385 करोड़ रुपये हासिल हुए. वहीं 2021-22 में 1,033.70 करोड़ रुपये और 2022-23 में 1,294.1499 करोड़ रुपये हासिल हुए.

  • कुल मिलाकर इन 6 साल में बीजेपी को इलेक्टोरल बॉन्ड से 6,566 करोड़ रुपये से अधिक की राशि प्राप्त हुई.

  • इस पूरी अवधि में कांग्रेस को इलेक्टोरल बॉन्ड से 1,123 करोड़ रुपये से अधिक की राशि प्राप्त हुई.

  • उसी तरह से तृणमूल कांग्रेस को बॉन्ड से 1,092.98 करोड़ रुपये की राशि प्राप्त हुई.

  • बॉन्ड से बीजू जनता दल को 774 करोड़ रुपये और डीएमके को 616.50 करोड़ रुपये मिले.

  • बॉन्ड से भारत राष्ट्र समिति के खाते में 912.68 करोड़ रुपये और वाईएसआर कांग्रेस के खाते में 382.44 करोड़ रुपये गए. इस मद से तेलुगु देशम पार्टी को 146.6 करोड़ रुपये मिले.

  • आम आदमी पार्टी को 94.28 करोड़ रुपये बॉन्ड से मिले, जिसमें पार्टी ने 2018-19 को लेकर बॉन्ड को लेकर अलग से जानकारी जमा नहीं की थी.

  • इस दौरान इलेक्टोरल बॉन्ड का 54.78 फ़ीसदी हिस्सा बीजेपी के खाते में गया. कांग्रेस के पास 9.37% हिस्सा गया. तृणमूल कांग्रेस  के पास 9.118% और भारत राष्ट्र समिति  के पास 7.61% हिस्सा गया. बीजू जनता दल के खाते में 6.457% और डीएमके के खाते में 5.14% हिस्सा गया. वाईएसआर कांग्रेस के पास 3.19% हिस्सा गया.

  • इस अवधि में इलेक्टोरल बॉन्ड से राजनीतिक दलों को 8,970.3765 करोड़ रुपये की राशि प्राप्त हुई, जिसमें से 6,566.12 करोड़ रुपये अकेले बीजेपी के पास गयी.


बॉन्ड से सत्ताधारी दल को सबसे अधिक लाभ


राजनीतिक दलों के लाभ से जुड़े आँकड़ों से भी एक निष्कर्ष बिना किसी मेहनत के निकलता है. इलेक्टोरल बॉन्ड से उन्हीं दलों को अधिक लाभ हुआ है, जो या तो केंद्र में सत्ता में हैं या फिर राज्य की सरकार में हैं. बीजेपी के केंद्र के साथ ही कई राज्यों की सत्ता पर क़ाबिज़ है. इसलिए इस योजना के तहत बीजेपी के पास सबसे राशि गयी है. उसी तरह से इस अवधि में कांग्रेस राजस्थान, छत्तीसगढ़, महाराष्ट्र जैसे राज्यों में सत्ता में थी. तृणमूल कांग्रेस की सत्ता पश्चिम बंगाल में है. ओडिशा में बीजू जनता दल की सरकार है. तमिलनाडु में डीएमके सरकार में है. भारत राष्ट्र समिति की सरकार तेलंगाना में थी. वाईएसआर कांग्रेस की सरकार आंध्र प्रदेश में है. आम आदमी पार्टी की सरकार लंबे समय से दिल्ली में और फरवरी 2022 से पंजाब में है.


कॉर्पोरेट डोनेशन में बीजेपी का आधिपत्य


अगर सिर्फ़ कॉर्पोरेट डोनेशन की बात करें, तो, एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स ने 2016-17 से 2021-22 के दौरान राष्ट्रीय पार्टी को प्राप्त राशि से जुड़े आँकड़ों को सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई के दौरान पेश किया था. इस 6 साल की अवधि में बीजेपी, कांग्रेस, एनसीपी, सीपीआई (एम), तृणमूल कांग्रेस, सीपीआई और बसपा को कुल मिलाकर 3,894.838 करोड़ रुपये की राशि बतौर कॉर्पोरेट डोनेशन मिली थी. इस राशि में से 3,299.85 करोड़ रुपये अकेले बीजेपी के खाते में गयी थी. इससे समझा जा सकता है कि केंद्र की सत्ता पर क़ाबिज़ बीजेपी को कॉर्पोरेट डोनेशन से कितना लाभ हुआ था. कोई भी कंपनी बिना किसी लाभ के एक पाई खर्च नहीं करती है. ऐसे में कॉर्पोरेट जगत से इतनी बड़ी राशि के केंद्र की सत्ता वाली पार्टी के पास जाना..अपने आप में कई सवाल खड़े करता है.


साँठ-गाँठ के आरोप की भी हो जाँच


सत्ताधारी दलों और बड़े-बड़े कारोबारियों, उद्योगपतियों या कंपनियों के बीच साँठ-गाँठ के आरोप हमेशा ही लगते रहे हैं. इलेक्टोरल बॉन्ड के माध्यम से इस साँठ-गाँठ को और मज़बूती मिलने की आशंका से भी कतई इंकार नहीं किया जा सकता है. डोनर का नाम सार्वजनिक होने के बाद इस पहलू की भी जाँच निष्पक्षता से हो. भविष्य में पारदर्शिता के साथ ही राजनीतिक फ़ंडिंग की दशा-दिशा तय करने में इस तरह की जाँच की महत्वपू्र्ण भूमिका हो सकती है.


डोनर का नाम 13 मार्च तक पता चल जाएगा


सुप्रीम कोर्ट ने इस योजना को असंवैधानिक बता दिया है. साथ ही राजनीतिक दलों को इलेक्टोरल बॉन्ड के जरिये चंदा देने वाले डोनर के नाम को सार्वजनिक करने का भी आदेश दे दिया है. बान्ड भारतीय स्टेट बैंक या'नी एसबीआई के चुनिंदा शाखाओं से ही ख़रीदा जा सकता था. इसलिए सुप्रीम कोर्ट ने एसबीआई को निर्देश दिया है कि  वो दान देने वालों के नामों की जानकारी 6 मार्च तक निर्वाचन आयोग दे.


एसबीआई को इस ब्योरे में यह भी बताना होगा कि किस तारीख को बॉन्ड भुनाया गया और हर बॉन्ड की  राशि कितनी थी. एसबीआई से ब्योरा मिलने के बाद चुनाव आयोग को 13 मार्च तक पूरी जानकारी अपनी आधिकारिक वेबसाइट पर सार्वजनिक करनी होगी. एसबीआई चुनावी बॉन्ड जारी नहीं ही करेगा. साथ ही 12 अप्रैल 2019 से अब तक खरीदे गए चुनावी बॉन्ड के ब्योरे को निर्वाचन आयोग से साझा करेगा. एसबीआई को उन राजनीतिक दलों की भी जानकारी देनी होगी, जिन्हें 12 अप्रैल 2019 से अब तक चुनावी बॉन्ड के जरिए धनराशि मिली है.


गोपनीयता के नाम पर अनुच्छेद 19 (1)(a) का उल्लंघन


सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले से यह तो साफ हो गया कि देश के नागरिकों और मतदाताओं को यह जानने का पूरा हक़ है कि बॉन्ड के ज़रिये कौन व्यक्ति या कंपनी किस राजनीतिक दल को कितना चंदा दे रहा था. केंद्र सरकार की दलील को ख़ारिज करते हुए कोर्ट ने स्पष्ट कर दिया था कि बॉन्ड से जुड़ी योजना और प्रावधान संविधान से हासिल सूचना के अधिकार और बोलने एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार का उल्लंघन करते हैं.


सुप्रीम कोर्ट के मुताबिक़ इस योजना से मौलिक अधिकार अनुच्छेद 19 (1)(a) का उल्लंघन होता है. अनुच्छेद 19 (1)(a) के तहत देश के हर नागरिक को बोलने और अभिव्यक्ति की आज़ादी मिली हुई है. चुनावी बॉन्ड योजना के तहत योगदान वाले लोगों को गुमनाम रखा गया था, जिसे उच्चतम न्यायालय ने सूचना के अधिकार का उल्लंघन बताया. संविधान पीठ ने स्पष्ट किया कि नागरिकों की निजता के मौलिक अधिकार में राजनीतिक गोपनीयता, संबद्धता का अधिकार भी निहित है.


बॉन्ड के नाम पर बाक़ी संशोधन भी असंवैधानिक


इसके साथ ही सुप्रीम कोर्ट ने साफ किया है कि इस योजना के लिए राजनीतिक दलों को असीमित कॉर्पोरेट योगदान की अनुमति देने के लिए कंपनी एक्ट के सेक्शन 182 (1) के प्रावधान को मनमाने तरीक़े से हटाया गया, जो मौलिक अधिकार अनुच्छेद 14 (विधि के समक्ष समता) का उल्लंघन है.


दरअसल उस वक्त़ इलेक्टोरल बॉन्ड को लागू के लिए मोदी सरकार ने  फाइनेंस एक्ट, 2017 के माध्यम से जनप्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 की धारा 29C,  कंपनी अधिनियम, 2013 के सेक्शन 182, आयकर अधिनियम, 1961 की धारा 13A, भारतीय रिजर्व बैंक अधिनियम 1934 की धारा-31 और विदेशी योगदान विनियमन अधिनियम, 2010 (FCRA) के सेक्शन 2(1) में संशोधन किया था. सुप्रीम कोर्ट ने इन संशोधनों को भी असंवैधानिक बताया.


लोकतांत्रिक व्यवस्था की शुचिता का सवाल


यह राजनीतिक जवाबदेही से जुड़ा बेहद महत्वपूर्ण मसला है. किसी भी लोकतांत्रिक व्यवस्था का केंद्र बिन्दु नागरिक होता है. किसी योजना में नागरिकों को ही दरकिनार कर दिया जाए, उससे अधिक ग़लत लोकतांत्रिक व्यवस्था में कुछ और नहीं हो सकता है. राजनीतिक दल एक कड़ी हैं, जो देश के शासन व्यवस्था में नागरिकों और सरकार नाम की चीज़ में पुल का काम करते हैं. ऐसे में नागरिकों से छिपाकर राजनीतिक दलों का चंदा हासिल करना किसी भी तरह से सही नहीं ठहराया जा सकता है.


इलेक्टोरल बॉन्ड महज़ चुनाव सुधार या राजनीतिक चंदे तक सीमित मसला नहीं है. भारत में राजनीतिक दलों या सरकार और बड़े-बड़े उद्योगपतियों या कंपनियों के बीच साँठ-गाँठ के आरोप दशकों से लगते रहे हैं. इस नज़रिये से इलेक्टोरल बॉन्ड स्कीम का संबंध लोकतांत्रिक व्यवस्था की शुचिता और पारदर्शिता के साथ ही सरकार और राजनीतिक दलों की जवाबदेही से भी जुड़ा है.


न कैश जान पाएंगे, न बॉन्ड जान पाएंगे


आज़ादी के बाद से ही राजनीतिक दलों जो चंदा मिलते आ रहा है, उसका अधिकांश हिस्सा नक़द में दिखाए गए अज्ञात डोनेशन के ज़रिये हासिल होता रहा है. चुनावी बॉन्ड प्रस्ताव के साथ ही अज्ञात स्रोतों से नक़द या'नी कैश के तौर पर दिए जाने वाले राजनीतिक चंदे की राशि को 20 हज़ार रुपये से घटाकर दो हज़ार रुपये करने का प्रस्ताव किया गया था. यह भी अब छिपी हुई बात नहीं है कि इलेक्टोरल बॉन्ड स्कीम के तहत सत्ताधारी बीजेपी को सबसे अधिक राजनीतिक चंदा हासिल हुआ. बाक़ी दल मिलाकर भी इस मामले में बीजेपी से काफ़ी पीछे हैं.


बॉन्ड से राजनीतिक चंदे में बेतहाशा इज़ाफ़ा


इलेक्टोरल बॉन्ड से जुड़ा एक और महत्वपूर्ण तथ्य है. जब से यह स्कीम शुरू हुई, राजनीतिक चंदे में बेतहाशा इज़ाफ़ा हुआ है. एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स के मुताबिक़ वित्तीय वर्ष 2017-18 और 2021-22 के बीच या'नी चार साल में राजनीतिक चंदे में 743 फ़ीसदी की वृद्धि दर्ज की गयी. चुनावी बॉन्ड ने राजनीतिक दलों के लिए चंदे के उस पिटारे को खोल दिया, जिसका कोई ओर-छोर नहीं है. न कोई जवाबदेही है और न ही कोई लिमिटेशन था. सत्ताधारी दल के लिए अपनी राजनीतिक हैसियत बढ़ाने का यह एक कारगर ज़रिया बन गया.


बॉन्ड से चंदा को लेकर चुनाव आयोग की भूमिका


राजनीति में किस दल का प्रभाव ज़्यादा रहेगा, यह बहुत कुछ राजनीतिक चंदा पर भी निर्भर करता है. बिना नाम का खुलासा हुए  बॉन्ड से बड़ी से बड़ी राशि बतौर चंदा देना और लेना दोनों आसान हो गया था. सूचना के अधिकार के दायरे से बाहर होने की वज्ह से डोनेशन देने वाला गुमनाम था और उस गुमनाम शख़्स से किस दल को कितना चंदा मिल रहा है, इससे मतदाता अनजान थे. पहले बीस हज़ार रुपये से ज़्यादा के सभी चंदे और ट्रांजेक्शन का बही-खाता चुनाव आयोग के पास होता था. चुनाव आयोग बाकायदा इन्हें सार्वजनिक भी करता था.


इलेक्टोरल बॉन्ड को लेकर चुनाव आयोग का रवैया भी बदलते रहा है. जब बॉन्ड को लेकर केंद्र सरकार की ओर से एलान किया गया था, तब  चुनाव आयोग ने इसके ख़िलाफ़ में केंद्र सरकार को एक चिट्ठी भी लिखी थी. शुरूआती दो-तीन साल तक सुप्रीम कोर्ट में भी आयोग का रुख़ बॉन्ड के विरोध में ही रहा था. जहाँ केंद्र सरकार चंदा देने वाले लोगों या संस्थाओं का ख़ुलासा करने के पक्ष में शुरू से नहीं रही है, वहीं चुनाव आयोग का शुरू में मानना था कि सार्वजनिक तौर से डोनर के नाम के ज़ाहिर होने से चंदे के मामले में पारदर्शिता सुनिश्चित करने में मदद मिलेगी. हालांकि धीरे-धीरे इस मामले में भी चुनाव आयोग के रवैये में बदलाव साफ तौर से देखा गया.


विदेशी कंपनियों से चंदा और क़ानून में बदलाव


मोदी सरकार ने नियम-क़ानून में बदलाव लाकर यह सुनिश्चित किया कि राजनीतिक दलों को कॉर्पोरेट चंदा मिलने में कोई परेशानी नहीं हो.  इलेक्टोरल बॉन्ड लाने के साथ ही मोदी सरकार ने विदेशी कंपनियों को भारत में रजिस्टर्ड अपनी सहायक कंपनियों के ज़रिये से राजनीतिक दलों को चंदा देने की अनुमति दे दी. इसके लिए ही  विदेशी योगदान विनियमन अधिनियम, 2010 (FCRA) के सेक्शन 2(1) में संशोधन किया गया था.  इससे पहले एफसीआरए और विदेशी मुद्रा प्रबंधन अधिनियम, 1999 (FEMA) दोनों के तहत विदेशी कंपनियों से राजनीतिक चंदा हासिल करने पर पूरी तरह से पाबंदी थी. नए नियम से यह व्यवस्था बना दी गयी कि विदेशी कंपनियां भारत में रजिस्टर्ड कंपनियों के माध्यम से राजनीतिक दलों को चंदा दे सकती हैं और वैसी कंपनियों को विदेशी  स्रोत नहीं माना जायेगा.


कॉर्पोरेट फ़ंडिंग बढ़ाने के लिए संशोधन


इतना ही नहीं, उस वक़्त इलेक्टोरल बॉन्ड के अमल के लिए के लिए कंपनी अधिनियम, 2013 के सेक्शन 182 में भी संशोधन किया गया. संशोधन से पहले कंपनियां पिछले तीन वर्षों में अपने शुद्ध लाभ का 7.5 फ़ीसदी तक ही राजनीतिक चंदा दे सकती थीं. संशोधन करके दलों के लिए कॉर्पोरेट चंदे की ऊपरी सीमा को प्रभावी ढंग से हटा दिया गया. यह एक ऐसा बदलाव था, जिससे यह सुनिश्चित हो गया कि अब नुक़सान में रहने वाली कंपनियां भी राजनीतिक दलों को असीमित चंदा दे सकती थीं.


इसके साथ ही आयकर अधिनियम के सेक्शन 13A में भी बदलाव किया गया, जिससे राजनीतिक दलों को बॉन्ड से हासिल राशि का विस्तृत रिकॉर्ड रखने की बाध्यता से छूट मिल गयी. यही नहीं दलों को चुनाव आयोग से जानकारी साझा करने से भी मुक्ति मिल गयी. इलेक्टोरल बॉन्ड के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने 12 अप्रैल 2019 को एक अंतरिम आदेश दिया था. इसमें सभी राजनीतिक दलों को सीलबंद लिफ़ाफ़े में चुनावी बॉन्ड से मिली राशि का ब्यौरा चुनाव आयोग को सौंपने को कहा गया था.


सरकार सब कुछ जान सकती है, नागरिक नहीं


चूंकि बॉन्ड एसबीआई से ही ख़रीदा जा सकता था. चुनावी बॉन्ड को अधिकृत बैंक खाते के माध्यम से ही राजनीतिक दल नक़दी में बदलवा पाते थे. ऐसे में नागरिकों को या बाक़ी विपक्षी दलों को जानकारी हो या न हो.. सरकार चाहे तो चंदा देने वाले लोगों या कंपिनयों को बारे में हर जानकारी हासिल कर सकती थी.


इस बात को भी मतदाताओं को समझना होगा कि राजनीतिक चंदा का सरोकार महज़ सरकार और राजनीतिक दलों की कार्यप्रणाली से जुड़ी पारदर्शिता और जवाबदेही तक ही सीमित नहीं है. राजनीतिक दलों के  विस्तार और चुनाव में भारी ख़र्च की परिपाटी का भी सीधा संबंध राजनीतिक चंदा से है. शुरू से ही बाहुबल और धनबल का प्रभाव राजनीति और चुनाव जीतने के समीकरण पर पूरी तरह से हावी रहा है. ऐसे में जिस दल के पास ज़्यादा चंदे की राशि पहुँचेगी, उसके लिए चुनाव जीतना और राजनीतिक तंत्र में हावी होना आसान हो जाता है.


पारदर्शिता के विमर्श को मिलना चाहिए बढ़ावा


इलेक्टोरल बॉन्ड से सत्ताधारी दल को इसका भरपूर लाभ मिलेगा और बाक़ी विपक्षी दलों के लिए स्थिति मुश्किल होती जाएगी, यह पहले से ही तय था. डोनर को भी इस बात का अच्छे से एहसास था कि वो जिस भी राजनीतिक दल को चंदा दे रहे हैं, सरकार चाहे तो उनके बारे में जानकारी हासिल कर सकती है. यह भी एक प्रमुख कारण था, जिससे इलेक्टोरल बॉन्ड से विपक्षी दलों को सत्ताधारी दलों की तुलना में बेहद कम राशि प्राप्त हुई है.


अब चुनाव सुधार की दिशा में तेज़ी से क़दम उठाए जाने की ज़रूरत है, ताकि देश में चुनाव की निष्पक्षता को लेकर सवाल उठना बंद हो. इस दिशा में राजनीतिक चंदा को लेकर पूरी तरह से पारदर्शिता होनी चाहिए. इसमें किसी भी तरह के भ्रष्टाचार की गुंजाइश सत्ताधारी दल की ओर से नहीं होनी चाहिए. जबकि इलेक्टोरल बॉन्ड में इसकी भरपूर गुंजाइश थी.


सिर्फ़ इलेक्टोरल बॉन्ड ख़त्म होने से चुनावी फंडिंग कम हो जाएगा या इससे राजनीतिक फ़ंडिंग पर बहुत असर पड़ेगा, ऐसा नहीं कह सकते हैं. अभी भी चुनावी फंडिंग का अधिकतर हिस्सा नक़दी में आता है. इलेक्टोरल बॉन्ड ख़त्म होने से राजनीतिक फ़डिंग में पारदर्शिता के विमर्श को बढ़ावा मिलेगा. सरकार की ओर से भविष्य में नकली या दिखावे वाली पारदर्शिता के नाम पर इसी तरह की कोई और योजना शुरू करने की कोशिश पर भी अंकुश लगेगा. इसकी भी उम्मीद की जानी चाहिए.


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