सोचिए जरा जिस पत्नी के साथ सात जन्मों तक साथ निभाने के किसी ने फेरे लिए हों, उसी की लाश कंधे पर उठाकर 12 किमी पैदल चलना पड़े तो भला उस पर क्या बीती होगी ? उस दर्द की, उस पीड़ा की, उस वेदना की कल्पना मात्र से रोम रोम सिहर उठता है. ये 21वीं सदी को वो हिन्दुस्तान है जो चांद सितारों पर जाने की बातें करता है, मंगलयान भेजता है लेकिन एक गरीब को उसकी पत्नी के अंतिम संस्कार के लिए अस्पताल से घर शव ले जाने के लिए गाड़ी मुहैय्या नहीं करवा पाता. ये पूरे सिस्टम का राम नाम सत्य नहीं तो भला और क्या है ! दरअसल पत्नी नहीं व्यवस्था की लाश ढोई है दीना मांझी ने. दिल को झकझोर देने वाली ये घटना ओडिशा के कालाहांडी ज़िले के भवानीपटना की है जहां दीना मांझी को अपनी पत्नी के शव को कंधे पर रखकर 12 किलोमीटर पैदल चलना पड़ा.
जिस अस्पताल में दीना मांझी की पत्नी की मौत हुई थी, उस अस्पताल ने कथित तौर पर शव ले जाने के लिए एंबुलेंस देने से इनकार कर दिया. सवाल ये क्या आदिवासी दीना मांझी का इस देश के संसाधनों पर हक नहीं या फिर वो उस देश का नागरिक नहीं जिसके हुक्मरान सामाजिक अधिकारों और गरीबों को उनके हक की बड़ी बड़ी बातें करते नहीं थकते ? देश में गरीबों आदिवासियों की योजनाओं के नाम पर करोड़ों अरबों के वारे न्यारे होते हैं. बताया जाता है कि दीना मांझी को बारह किलोमीटर की कंधे पर शव के साथ पदयात्रा के बाद एंबुलेंस तब मिली जब कुछ लोगों ने मामले में दख़ल दिया. दीना मांझी की पत्नी अमांग भवानीपटना के एक अस्पताल में टीबी के इलाज के लिए भर्ती थीं, जहां उनकी मौत हो गई. दीना के मुताबिक उनका गांव वहां से करीब 60 किलोमीटर की दूरी है. वो ग़रीब है और उसके पास वाहन का किराया देने के लिए पैसे नहीं थे.
दीना मांझी का कहना है कि पत्नी की मौत मंगलवार रात हुई. अस्पताल के कर्मचारियों ने उससे बार बार शव हटाने के लिए कहा. इसके बाद बुधवार को वो खुद कंधे पर शव लेकर चल पड़ा. उसने कहा, "मैं अस्पताल के कर्मचारियों से अपनी पत्नी का शव ले जाने के लिए वाहन की गुजारिश करता रहा लेकिन कुछ हासिल नहीं हुआ. मैं गरीब आदमी हूं इसलिए किराए पर वाहन नहीं ले सकता. मेरे पास शव को कंधे पर ले जाने के अलावा कोई और चारा नहीं था."
बुधवार की सुबह उसने अपनी पत्नी के शव को कपड़े में लपेटा और कंधे पर रखकर गांव की ओर चल पड़ा. इस ह्रृदय विदारक शव पदयात्रा में दीना मांधी की 12 साल की बेटी चौला भी शामिल थीं. क्या हमारा ये तथाकथित सभ्य समाज उस मासूम की मनोदशा का अंदाजा भी लगा सकता है जिसकी मां की लाश उसके पिता कंधे पर उठाकर अंतिम संस्कार के लिए ले जा रहे हों ! बड़ी बड़ी अट्टालिकाओं में रहने वालों, शहर की सोसायटी में बसने वालों, अपनी दुनिया अपनी सहूलियत के मुताबिक बसाने वालों दीना मांधी भी हममें से एक भारतीय है. कल्पना कीजिए आपकी 12 साल की बेटी को अगर ये मंजर देखना पड़े तो क्या आप आसमान सिर पर नहीं उठा लेंगे ? फिर एक आदावासी की बेटी को उस शवयात्रा में क्यों शामिल होना पड़ता है जहां पिता मां का शव कंधे पर लेकर चल रहा होता है और वो सिवाए जार जार रोने के कुछ नहीं कर पाती. क्या एक पिता और बेटी की ये बेबसी इंसानी सभ्यता के मुंह पर तमाचा नहीं ?
फरवरी में सूबे की नवीन पटनायक सरकार ने गरीबों के शवों को अस्पताल से उनके घर तक ले जाने के लिए वाहन उपलब्ध कराने की योजना शुरु की थी लेकिन उसका हाल सबके सामने है अब. इससे पहले ऐसी खबरें देश के अलग अलग हिस्सों से आती रही हैं कि शवों को बाइक, ट्रॉली रिक्शा के जरिए ले जाया जाता है. ओडिशा के ही बालासोर में भी कुछ ऐसी ही घटना सामने आई जब ट्रेन से गिरकर हुई महिला की मौत के बाद उसका शव पोस्टमोर्टम कर छोड़ दिया गया था. ऐसे में एंबुलेंस या शववाहन नहीं मिलने पर परिवार वालों को शव के हाथ पैर तोड़कर उसे गठरी की तरह बनाना पड़ा फिर लाश को जानवर की तरह बांस में टांगकर अंतिम संस्कार के लिए परिवारवाले कंधे पर ढो कर ले गए.
दीना मांझी की दिल दहला देने वाली बेबसी ने बरबस ही दशरथ मांझी की याद दिला दी. वही दशरथ माझी जिसने अपनी पत्नी की खातिर पहाड़ का सीना अपने हौसले से चीर दिया था. जो काम सरकारें नहीं कर पाई, पूरा तंत्र नहीं कर पाया, उसे दशरथ मांझी के दो मामूली हाथों ने फौलादी हौसले से अंजाम दिया था.
वैसे दोनों माझी की कहानी में एक समानता है - अपनी जीवनसंगिनी के लिए पूरे सिस्टम को दोनों ने अपने हौसले से ठेंगा दिखाया. आप जरा दीना मांझी की मन:स्थिति को समझने की कोशिश कीजिएगा. कंधे पर उसकी लाश जिसकी खुशी के लिए, मुस्कान के लिए ना जाने उसने क्या क्या न्यौछावर नहीं किया होगा और साथ रोती बिलखती चल रही वो बेटी जिसकी आंखों में आए आंसू के एक कतरे से भी दीना विचलित हो उठता होगा. क्या इस लम्हे को एक पल भी जीने के बारे में हम आप सोच भी सकते हैं ?
स्मार्ट सिटी के दिवा स्वप्न दिखाने वालों स्मार्ट बाद में बनाना पहले हमें वो विलेज चाहिए जहां किसी को जीते जी सम्मान ना मिले तो कम से कम मरने के बाद तो ससम्मान अंतिम विदाई मिल जाए !