माओत्से तुंग ने नवंबर 1938 में सीसीपी यानी चीनी कम्युनिस्ट पार्टी की सेंट्रल कमेटी की एक बैठक में कहा था कि 'सत्ता बंदूक की नली से निकलती है.' उसके बाद से ही चीनी कम्युनिस्ट क्रांति में वह नारा मूलमंत्र बन गया. लेकिन माओ का यह नारा कार्ल मार्क्स के उस नारे से बिल्कुल अलग था जिसमें उन्होंने कहा था- 'दुनिया के मज़दूरों एक हों.'


भारत को चीन के खतरनाक इरादों का अहसास तो असल में 1962 के बाद ही हुआ, जब तत्कालीन प्रधानमंत्री नेहरु की कूटनीतिक गलती के चलते आजादी मिलने के महज 15 साल बाद ही हमें एक ताकतवर मुल्क के साथ जंग लड़नी पड़ी. अपनी उसी बंदूक की नली के बल पर चीन तबसे ही भारत की सरजमीं पर कब्जा करने की कोशिश करता आया है, फिर चाहे वो लद्दाख का इलाका हो या पूर्वोत्तर भारत में अरुणाचल का क्षेत्र हो. लेकिन अब रक्षा के मोर्चे पर भारत से उसे बराबरी का जवाब मिलना शुरु हो गया है,जिससे वो बौखला उठा है.


चीन के इन्हीं इरादों को भांपते हुए केंद्र की मोदी सरकार ने अपनी रक्षा तैयारियों को मजबूत करने के मकसद से साल 2018 में सामरिक लिहाज से एक महत्वपूर्ण फैसला लिया था. वह फैसला था कि अरुणाचल प्रदेश में रणनीतिक रूप से स्थित तवांग में सैनिकों की तीव्र आवाजाही सुनिश्चित करने के लिए 13,700 फुट की ऊंचाई पर सेला दर्रे में सुरंग बनाई जाएगी. फरवरी 2018 में लोकसभा में बजट पेश करते हुए तत्कालीन वित्त मंत्री अरुण जेटली ने चीन की सीमा से सटे इस इलाके में सुरंग बनाने की घोषणा अपने बजट प्रस्तावों में की थी. तब अपने बजट संबोधन में जेटली ने कहा था कि "जोजिला दर्रे में 14 किलोमीटर से भी अधिक लंबी सुरंग की निविदा का काम तेजी से चल रहा है. अब मैं सेला दर्रे में सुरंग के निर्माण का प्रस्ताव रखता हूं. सेला दर्रा अरुणाचल प्रदेश में तवांग और कामेंग जिलों के बीच स्थित है और इसे रणनीतिक दृष्टि से अहम माना जाता है."


रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने उसी सेला सुरंग के आखिरी चरण का गुरुवार को दिल्ली से उद्घाटन किया. दिल्ली में राष्ट्रीय युद्ध स्मारक से राजनाथ ने बटन दबाया और सुरंग में विस्फोट के साथ ही परियोजना के आखिरी चरण का काम शुरू हो गया. सेला सुरंग का निर्माण कार्य जून 2022 तक पूरा होने की उम्मीद है. यह सुरंग सेला दर्रे से होकर गुजरती है और उम्मीद है कि इस परियोजना के पूरा होने पर तवांग के जरिए चीन सीमा तक की दूरी 10 किलोमीटर कम हो जाएगी. सुरंग से असम के तेजपुर और अरुणाचल प्रदेश के तवांग में स्थित सेना के 4 कोर मुख्यालयों के बीच यात्रा के समय में कम से कम एक घंटे की कमी आएगी.


ये सुरंग भारत के लिए बहुत बड़ी उपलब्धि साबित होने वाली है और इसके पूरा हो जाने के बाद चीन से मुकाबला करने के लिए भारतीय सेना की ताकत काफी हद तक बढ़ जाएगी. लिहाजा चीन इससे भी खार खाए हुए है. दरअसल, तेजपुर में भारतीय सेना का 4 कॉर्प्स का मुख्यालय है जो अरुणाचल प्रदेश पर दृष्टि रखता है. भारत-चीन सीमा पर स्थित तवांग का द्वार भी तेजपुर ही है. असम के नगांव जिले में स्थित एक बड़े सैन्य बेस मीसा से उत्तरी तट पर स्थित तेजपुर तक वाहनों का आवागमन सिर्फ ब्रह्मपुत्र पर बने कलियाभोमोरा पुल पर ही अभी तक निर्भर है. यदि किसी संघर्ष की स्थिति में उस पर हमला होता है या वह क्षतिग्रस्त होता है, तो उस सड़क से पश्चिमी अरुणाचल प्रदेश तक पहुंच पाना बहुत कठिन होता है. ऐसी स्थिति से बचने के लिए ही ये भूमिगत सुरंग बनाई जा रही है.


तकरीबन 15 किलोमीटर लंबी इस सुरंग की अनुमानित लागत पांच हजार करोड़ रुपये की है और यह देश में पहला ऐसा सड़क मार्ग होगा, जो किसी नदी के नीचे बनी सुरंग के माध्यम से दो हिस्सों को जोड़ेगा. दरअसल, 1962 के युद्ध में चीनी सेना तवांग को पार करके ही तेजपुर से 20 किलोमीटर की दूरी तक पहुंच गई थी और युद्ध विराम के बाद ही पीछे हटी थी. उस लिहाज से ये सुरंग भारत की ताकत बढ़ाने के साथ ही चीनी सेना के लिए एक बहुत बड़ा स्पीड ब्रेकर साबित होगी.


बता दें कि चीन की सीमा से सटा सेला दर्रा वह है जिसे हमारा बॉर्डर रोड ऑर्गनाइजेशन (बीआरओ) सालभर खुला रखने की कोशिश करता है. लेकिन लैंडस्लाइड और भारी बर्फबारी की वजह से कई बार इसे बंद करना पड़ जाता है. गर्मियों में भी यहां थोड़ी सर्दी रहती ही है. सर्दियों में यहां का टेंपरेचर -10 डिग्री सेल्सियस पहुंच जाता है. इसके उत्तर दिशा में स्थित सेला झील एक बड़ी झील है और ये उन 101 झीलों में से है जिन्हें तिब्बती बौद्ध पवित्र मानते हैं. यह 4,160 मीटर (13,650 ft) की ऊंचाई पर है. सर्दियों में ये झील पूरी तरह से जम जाती है. यह झील नुरांनग नदी में गिरती है, जो तवांग नदी की ही सहायक है.


सामरिक विशेषज्ञ सुशांत सरीन का मानना है कि चीन को ध्यान में रखते हुए अगर किसी सरकार ने कुछ काम किया है तो वो मोदी सरकार ही है नहीं तो सभी हाथ मलते रहे. वे कहते हैं, ''उस इलाक़े में इन्फ़्रास्ट्रक्चर को लेकर इस सरकार ने ख़ूब काम किया है. काम अब भी जारी है. चीन हमारे इलाक़े में घुसा,तो इस सरकार ने भी सेना और लड़ाकू विमानों की तैनाती कर दी. मोदी सरकार नेहरू की तरह बैठी नहीं है बल्कि तैयारियों में लगी है. मुझे लगता है कि भारत के दो रक्षा मंत्रियों ने चीन के मामले में देश का सबसे ज़्यादा नुकसान किया है. एक नेहरू के रक्षा मंत्री वीके कृष्ण मेनन और दूसरे मनमोहन सिंह के एके एंटोनी.'' 


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