भारत, रूस, चीन और शंघाई सहयोग संगठन (एससीओ) के अन्य सदस्य देशों ने शुक्रवार 28 अप्रैल को नयी दिल्ली में बैठक की. रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने इस बैठक की अध्यक्षता की और इसमें अफगानिस्तान में स्थिति की भी समीक्षा किए जाने की संभावना है. रक्षा मंत्री ने इस बैठक में कहा, “अगर हम एससीओ को मजबूत और अधिक विश्वसनीय अंतरराष्ट्रीय समूह बनाना चाहते हैं तो हमारी सर्वोच्च प्राथमिकता आतंकवाद से प्रभावी ढंग से निपटना होनी चाहिए.”


इससे एक दिन पहले गुरवार 27 अप्रैल को भारत और चीन के रक्षा मंत्रियों की मुलाकात हुई थी. इसमें सीमा तनाव का मुद्दा छाया रहा. गलवान घाटी की घटना के बाद भारत की ज़मीन पर पहली बार दोनों देशों के रक्षा मंत्रियों की मुलाकात हो रही थी. रक्षामंत्री का लहजा इसमें सख्त रहा और उन्होंने अपने चीनी समकक्ष से हाथ भी नहीं मिलाया. उन्होंने दो-टूक कहा कि चीन पहले सीमा से सैनिक मोर्चाबंदी और जमावड़ा खत्म करे, तभी रिश्तों की बेहतरी हो सकती है.



द्विपक्षीय संबंधों के मुताबिक ही था रक्षामंत्री का लहजा


भारत और चीन के संबंधों में पिछले पांच-छह वर्षों में देखा जाए, तो लगातार गिरावट आ रही है. 2017 का डोकलाम हो या फिर 2020 में पूर्वी लद्दाख में हुआ संघर्ष हो. चीन की जितनी भी 'हरकतें' हैं, भारत अब उसके लिए बहुत सख्त हो गया है. भारत अपनी सीमा-सुरक्षा और संप्रभुता को लेकर हमेशा से ही संजीदा रहा है. चीन की जो विस्तावरवादी नीति है, उस पर भारत की हमेशा ही सजग दृष्टि रही है. भारतीय रक्षामंत्री ने स्पष्ट शब्दों और लहजे में यह जता दिया है कि जब तक सीमा पर शांति नहीं होगी, बाकी बातें संभव नहीं हैं. यही बात विदेश मंत्री एस जयशंकर भी कई बार कह चुके हैं. भारत यह साफ कर चुका है कि सीमाओं के पुनर्निर्धारण का कोई विचार नहीं है. जो मौजूदा द्विपक्षीय संधियां हैं, उसी के आधार पर दोनों देशों के संबंधों का निर्धारण और संचालन होगा. चीन को भी यह जितनी जल्दी समझ में आ जाए, उतना बढ़िया है. भारतीय रक्षामंत्री ने कल भी इस बात को दोहराया और अपने बॉडी-लैंग्वेज से भी उन्होंने दिखाया कि भारत का रुख काफी सख्त है. उन्होंने बाकी देशों के रक्षामंत्रियों के साथ जिस तरह गर्मजोशी से हाथ मिलाया और चीनी रक्षामंत्री शांगफू से केवल नमस्कार कर काम चलाया, वह भी बहुत कुछ दिखाता है. इससे साफ संकेत चीन के लिए कुछ नहीं हो सकता है. 


चीनी रक्षामंत्री का भारत आना ही यह दर्शाता है कि चीन की जो वुल्फ-वॉरियर डिप्लोमेसी है, यानी दो कदम आगे और एक कदम पीछे की जो नीति है, यह उसी का हिस्सा है. भारत ने अब यह जान लिया है कि युद्ध और वार्ता एक साथ नहीं चल सकती. या तो आप 2020 से पहले की जो स्थिति थी, सीमाओं की, उस पर वापस जाइए, तभी स्थितियां सामान्य हो सकती हैं. या फिर, चीजें ऐसी ही चलेंगी. यानी, वार्ता नहीं होगी. सीमा के दोनों तरफ सेना का जमावड़ा होगा. ये भारत ने स्पष्ट शब्दों में कह दिया है कि वह भी तब तक पीछे नहीं हटेगा, जब तक चीन वापस नहीं जाता है.  


आगे की राह चीन के लिए कठिन


भारत इकलौता ऐसा देश है शंघाई सहयोग संगठन (SCO) का, जो क्वाड (क्वड्रिलेटरल सेक्योरिटी डायलॉग, जिसके सदस्य जापान, ऑस्ट्रेलिया, भारत और ऑस्ट्रेलिया हैं)  का भी सदस्य है. इसलिए, भारत-चीन संबंधों में आगे की राह तो चीन के लिए ही कठिन है. क्वाड की सक्रिया भारत-प्रशांत क्षेत्र में बढ़ने के बाद चीन इसे अपने लिए खतरे की घंटी मानता है. भारत का जो स्थान क्वाड में है, वह चीन को खटकता है. उसे यह लगता है कि भारत की सक्रियता से उसको नुकसान होगा. इसको इस तरह से देख सकते हैं कि जैसे-जैसे क्वाड की सक्रियता बढ़ रही है, वैसे-वैसे चीन भारत को सीमाओं पर उलझाना चाहता है. पिछले दो दशकों में चीन का अमेरिका से जिस तरह का जियो-पॉलिटिकल संघर्ष बढ़ रहा है, भारत की वकत जैसे बढ़ रही है, उसमें अगर चीन ने भारत को शत्रु बरतना बंद नहीं किया और साझीदार मान कर अपनी नीतियां नहीं बदलीं, तो फिर दिक्कत चीन को ही होगी. चीन अगर भारत को प्रतियोगी या शत्रु की तरह देखता रहेगा तो दोनों देशों के बीच संबंध सामान्य होने में काफी समय लगेगा. 


एक मजेदार बात यह भी है कि जो चीनी रक्षा मंत्री ली शांगफू भारत आए थे, उन पर अमेरिका ने प्रतिबंध लगाया हुआ है. इसके बावजूद वह आए और भारत ने उनकी मेजबानी की. यानी, अमेरिका ने बैन कर दिया तो जरूरी नहीं कि हम भी बैन कर दें. एक और उदाहरण देखना चाहिए. रूस और यूक्रेन के युद्ध में भारत ने जिस तरह अपनी पोजीशनिंग की, वह सबके लिए एक मिसाल था. भारत ने खुद को हरेक तरह की गुटबाजी से मुक्त कर अपने राष्ट्रीय हितों को प्राथमिकता दी और उसी के अनुरूप खुद का बिल्कुल अलग स्टैंड लिया.


भारत अब बन रहा है एक नया ध्रुव


कई विशेषज्ञ तो अब ये भी कहते हैं कि भारत अंतरराष्ट्रीय संबंधों के मामले में एक पोल यानी ध्रुव बनता जा रहा है. भारत अपने विचारों से अंतरराष्ट्रीय संबंधों को प्रभावित कर रहा है. अनेक अंतरराष्ट्रीय मंचों पर रूस-यूक्रेन युद्ध के दौरान भारत ने जिस तरह स्वतंत्र तरीके से अपना स्टैंड लिया, मतदान किया, उसने अमेरिका को यह जता दिया कि भारत उनके अनुसार हांकी जाने वाली विश्व-व्यवस्था का हिस्सा नहीं बनने जा रहा है. भारत ने यह जताया है कि ऐसी विश्व-व्यवस्था होनी चाहिए, जो बहुध्रुवीय हो, जिसमें सबका अपना स्टैंड हो. साथ ही, भारत ने यह भी जता दिया है कि उसको अपने हितों के मुताबिक अंतरराष्ट्रीय संबंधों में बरतने का पूरा हक है. वह शंघाई सहयोग में भी रहेगा, क्वाड में भी रहेगा और द्विपक्षीय आधार पर अपने संबंध भी बनाएगा. भारत कुल मिलाकर एक बैलेंसर यानी संतुलनकर्ता की भूमिका चाहता है. 


यह भारत की विदेश नीति का स्वर्ण काल है, अगर हम कहें तो अतिशयोक्ति नहीं होगी. हम सबको इंगेज भी कर रहे हैं और बैलेेंस भी कर रहे हैं. ये दोनों काम एक साथ हों तो यह किसी भी देश की विदेशनीति का सबसे श्रेष्ठ काल होता है. घरेलू राजनीति अपनी जगह होती है और अंतरराष्ट्रीय राजनीति के अपने मुद्दे होते हैं. भारत की स्पष्ट पॉलिसी चीन को लेकर हमेशा से रही है. हमने जान-बूझकर चीन के साथ शंघाई सहयोग संगठन जॉइन किया, हम क्वाड में भी गए. जहां तक बात है, संतुलन की, तो एससीओ से भी उसे साधने में मदद मिलेगी. खासकर पाकिस्तान-अफगानिस्तान की तरफ से जो आतंकवाद की खेप आती है, उससे निपटने में ये संगठन बड़े काम का होगा. 


आज रक्षामंत्री राजनाथ सिंह ने एससीओ की बैठक में पाकिस्तान को संकेत दे ही दिया है कि आतंकवाद को खत्म किए बिना आगे की राह मुश्किल है. चीन की आतंकवाद, खासकर पाकिस्तानी आतंकवाद पर जो ढुलमुल नीति है, उस पर भारत को उसे आईना दिखाने और घेरने की जरूरत है. जो सेंट्रल एशियन देश हैं, उनकी आर्थिक समस्याओं के मुद्दे भी एससीओ के माध्यम से निपटाया जा सकता है. भारत को यह याद है कि शंघाई सहयोग संगठन में रूस का अपना स्वार्थ है, चीन का अपना स्वार्थ है और भारत को भी अपने हितों को प्राथमिकता देनी चाहिए और एससीओ के गठन के समय जो लक्ष्य निर्धारित किए गए, उनकी दिशा में काम करना चाहिए.  


(यह आर्टिकल निजी विचारों पर आधारित है)