दिल्ली बजट पर रार है बहाना, केंद्र और केजरीवाल में अधिकारों को लेकर है असली टकराव, सुप्रीम कोर्ट से ही बची है उम्मीद
अरविंद केजरीवाल सरकार और नरेंद्र मोदी सरकार के बीच तकरार कोई नई बात नहीं है. केंद्र सरकार बनाम दिल्ली सरकार की लड़ाई ऐसे तो 30 साल पुरानी है. लेकिन पिछले 8 साल से जब से दिल्ली में आम आदमी पार्टी की सरकार बनी है और अरविंद केजरीवाल यहां के मुख्यमंत्री की जिम्मेदारी निभा रहे हैं, तब से केंद्र सरकार और दिल्ली सरकार की लड़ाई रोज मीडिया की सुर्खियों में रहती है.
तकरार के लिए कोई न कोई मुद्दा सामने आ ही जाता है. नया मुद्दा दिल्ली का बजट है, जिसको लेकर केजरीवाल और केंद्र की मोदी सरकार आमने-सामने है. दरअसल 21 मार्च (मंगलवार) को वित्तीय वर्ष 2023-24 के लिए विधानसभा में दिल्ली का बजट पेश होना पहले से तय था. लेकिन इसके एक दिन पहले दिल्ली के मुख्यमंत्री केजरीवाल ने जानकारी दी कि केंद्र सरकार से बजट को मंजूरी नहीं मिलने की वजह से 21 मार्च को बजट पेश नहीं किया जा सकेगा.
दिल्ली के बजट पर तनातनी
इसके साथ ही केजरीवाल और केंद्र सरकार को टकराव का नया मुद्दा मिल गया था. केंद्रीय गृह मंत्रालय से मिली जानकारी के मुताबिक केजरीवाल सरकार की ओर से भेजे गए बजट प्रस्ताव में विज्ञापन के लिए ज्यादा आवंटन का प्रावधान किया गया था और विकास कार्यों के लिए कम राशि का आवंटन था. इस मुद्दे को आधार बनाकर केंद्र ने केजरीवाल सरकार से स्पष्टीकरण की मांग की थी. वहीं केजरीवाल सरकार इन आरोपों को निराधार बता रही थी. इनकी ओर से दावा किया गया कि दिल्ली का कुल बजट 78,800 करोड़ रुपये का है. इसमें 22,000 करोड़ रुपये बुनियादी ढांचे पर खर्च के लिए हैं. वहीं विज्ञापनों पर खर्च के लिए महज़ 550 करोड़ रुपये रखा गया है.
कानूनी से ज्यादा सियासी मसला
बजट को लेकर सरकारों के बीच का टकराव आम आदमी पार्टी और बीजेपी के बीच का भी झगड़ा बन गया. दोनों ही दलों के नेता एक-दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप में जुट गए. केजरीवाल ने तो केंद्र पर सीधे-सीधे गुंडागर्दी का आरोप लगा दिया है. उनका कहना है कि देश के इतिहास में पहली बार हुआ है कि एक निर्वाचित सरकार के बजट पर रोक लगा दी गई. वहीं उपराज्यपाल कार्यालय से कहा गया कि एलजी विनय कुमार सक्सेना ने नौ मार्च को ही कुछ मुद्दों पर अपनी आपत्तियों को दर्ज कराते हुए बजट से जुड़े प्रस्ताव को मुख्यमंत्री के पास भेज दी थी. इसके बाद कानूनी बाध्यता की वजह से दिल्ली सरकार ने केंद्रीय गृह मंत्रालय को चिट्ठी लिखकर राष्ट्रपति की मंजूरी मांगी थी. गृह मंत्रालय ने 17 मार्च को ही अपनी टिप्पणी से दिल्ली सरकार को अवगत करा दिया था. केजरीवाल ने तो इस सिलसिले में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को भी चिट्ठी लिख डाली थी और उनसे दिल्ली का बजट नहीं रोकने का अनुरोध किया था. हालांकि 21 मार्च को ही केंद्र सरकार की ओर से दिल्ली के बजट को मंजूरी दे दी गई.
टकराव से दिल्ली की जनता पर असर
ये सब अपने-अपने दावे हैं. बीजेपी और आम आदमी पार्टी दोनों ही हर मुद्दे पर अपने-अपने राजनीतिक फायदे के हिसाब से एक-दूसरे पर शब्द बाण चलाते रहते हैं. लेकिन सबसे बड़ा सवाल उठता है कि किसी न किसी मुद्दे को लेकर केंद्र सरकार और दिल्ली सरकार के बीच तकरार होते ही रहती है और उसका नुकसान सबसे ज्यादा किसे उठाना पड़ता है. इस सवाल का हर किसी के पास एक ही जवाब है कि दिल्ली जनता इन दोनों की लड़ाई में हमेशा पिसते रहती है. कभी एमसीडी चुनाव में विलंब होता है, तो कभी अलग- अलग विभागों में अधिकारियों की नियुक्ति में देरी होती है. टकराव की वजह से ही एमसीडी चुनाव के बाद भी कई महीनों तक उसमें काम नहीं हो पाता है. इसके अलावा भी बहुत सारे मुद्दे हैं, जिनके लंबित होने का सीधा असर दिल्ली की जनता पर पड़ता है. हर बार की तरह यहां की आम जनता सिर्फ़ मूक दर्शक बनकर आम आदमी पार्टी और बीजेपी के बीच की नूरा-कुश्ती देखने को मजबूर नज़र आती है. इसका समाधान क्या है, ये बहस का बिन्दु है.
निर्वाचित सरकार के अधिकारों से जुड़ा मुद्दा
बजट को सिर्फ़ एक बहाना है. दरअसल पूरा मामला निर्वाचित दिल्ली सरकार के अधिकारों से जुड़ा हुआ है. ये रोज-रोज जो टकराव देखने को मिलता है उसके पीछे की मूल वजह पूर्ण राज्य नहीं होते हुए भी दिल्ली में निर्वाचित सरकार की व्यवस्था है, जिसके पास संवैधानिक तौर से बहुत ही सीमित अधिकार उपलब्ध हैं. केजरीवाल के मुख्यमंत्री बनने के बाद पिछले कुछ सालों में अधिकारों की लड़ाई और तेज़ हो गई है. मामला दिल्ली हाईकोर्ट से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक भी पहुंच चुका है और अभी भी सर्वोच्च अदालत में ये लड़ाई जारी है.
दिल्ली पूर्ण राज्य नहीं है, LG हैं प्रशासक
दिल्ली के उपराज्यपाल या फिर कहें केंद्र सरकार और अरविंद केजरीवाल सरकार के बीच अधिकारों और शक्तियों को लेकर बार-बार टकराव के पीछे की कहानी 1991 से शुरू होती है. दिल्ली विधानसभा के साथ एक केंद्र शासित प्रदेश है. पूर्ण राज्य नहीं होने के बावजूद यहां विधानसभा और राज्य सरकार की व्यवस्था की गई है. इसके साथ ही केंद्र शासित प्रदेश के प्रशासक के तौर पर दिल्ली में उपराज्यपाल (Lieutenant Governor) भी होते हैं, जिनकी नियुक्ति राष्ट्रपति करते हैं. यहां बात गौर करने वाली है कि एलजी केंद्र सरकार के प्रतिनिधि हो गए.
विवाद की शुरुआत संविधान के 69वें संशोधन से
संविधान के 69वें संशोधन अधिनियम, 1991 से दिल्ली की राजनीति ने नई करवट ली. इसके जरिए संघ राज्यक्षेत्र दिल्ली को विशेष हैसियत दी गई. इसे दिल्ली राष्ट्रीय राजधानी राज्य क्षेत्र ( National Capital Territory of Delhi) नाम दिया गया. संविधान में दो नए अनुच्छेद 239 AA और 239 AB जोड़े गए. अनुच्छेद 239 AA के जरिए दिल्ली के लिए राष्ट्रपति से नियुक्त प्रशासक की व्यवस्था की गई और इसे उपराज्यपाल (LG) कहा गया. साथ ही दिल्ली के लिए एक विधानसभा और मुख्यमंत्री की अगुवाई में मंत्रिपरिषद की व्यवस्था की गई. यानी संविधान के अनुच्छेद 239 AA के जरिए ही दिल्ली सरकार बनने का प्रावधान किया गया. इससे पहले दिल्ली में महानगरीय परिषद और कार्यकारी परिषद थी.
निर्वाचित सरकार के पास सीमित अधिकार
दिल्ली विधानसभा को संविधान की सातवीं अनुसूची के राज्य सूची और समवर्ती सूची में शामिल विषयों पर कानून बनाने का अधिकार दिया गया. लेकिन इनमें से तीन विषयों को दिल्ली विधानसभा के अधिकार से बाहर रखा गया. पब्लिक ऑर्डर, पुलिस और भूमि पर दिल्ली विधानसभा कानून नहीं बना सकती. ये मामले दिल्ली सरकार की बजाय केंद्र सरकार के अधीन रखे गए. अनुच्छेद 239 AA में ये व्यवस्था कर दिया गया कि उपराज्यपाल और दिल्ली सरकार के बीच किसी मुद्दे पर मतभेद होने पर एलजी उस मामले पर कोई फैसला लेने के लिए राष्ट्रपति के पास भेज देगा और राष्ट्रपति जो भी आदेश देंगे, उसके मुताबिक ही काम होगा. अगर हालात ऐसे हैं कि किसी मुद्दे पर तुरंत कार्रवाई जरूरी है, तो उपराज्यपाल अपने हिसाब से जो फैसला करेगा, वहीं लागू होगा. संविधान के इन प्रावधानों से ही दिल्ली सरकार के अधिकार सीमित हो गए और उपराज्यपाल दिल्ली मंत्रिपरिषद की सलाह को मानने के लिए बाध्य नहीं रह गए. चूंकि दिल्ली पूर्ण राज्य नहीं है तो, यहां राज्य सरकार के अधिकार उस तरह के नहीं रखे गए और प्रशासक के तौर पर उपराज्यपाल के फैसले को सर्वोपरि माना गया.
संविधान के अनुच्छेद 239 AA में ही ये व्यवस्था है कि बाकी पूर्ण राज्यों से अलग यहां के मुख्यमंत्री की नियुक्ति उपराज्यपाल नहीं करते हैं, बल्कि सैद्धांतिक तौर से राष्ट्रपति मुख्यमंत्री को नियुक्त करते हैं और अन्य मंत्रियों की नियुक्ति राष्ट्रपति, मुख्यमंत्री की सलाह पर करते हैं. बाकी राज्यों से अलग दिल्ली सरकार के अधिकार उपराज्यपाल के कार्यकारी प्रमुख होने की वजह से सीमित हो गए.
1991 में बना जीएनसीटी दिल्ली कानून
69वें संविधान संशोधन के प्रावधानों को लागू करने के लिए संसद से दिल्ली राष्ट्रीय राजधानी राज्य क्षेत्र शासन अधिनियम 1991 (GNCT Delhi Act 1991) बनाया गया. इसमें दिल्ली विधानसभा की संरचना, विधानसभा से विधेयक पारित करने और कानून बनाने की प्रक्रिया के साथ ही मंत्रिपरिषद से जुड़े सारे प्रावधान किए गए. इसी कानून में ये भी तय कर दिया गया कि दिल्ली सरकार और एलजी के बीच किसी मुद्दे पर टकराव होने की स्थिति में एलजी का फैसला अंतिम होगा. 69वें संविधान संशोधन और जीएनसीटी दिल्ली कानून 1991 के जरिए दिल्ली सरकार की बजाय उपराज्यपाल को ज्यादा अधिकार दिए गए. एलजी के ही फैसले को आखिरी माना गया.
टकराव की मूल वजह है अनुच्छेद 239 AA
उपराज्यपाल और दिल्ली सरकार के बीच टकराव का मूल कारण संविधान का अनुच्छेद- 239 AA ही रहा है. इसमें कहा गया है कि मतभेद की स्थिति में उपराज्यपाल का फैसला अंतिम होगा. दिल्ली सरकार पब्लिक ऑर्डर, पुलिस और भूमि को छोड़कर दूसरे विषयों पर कोई फैसला ले सकती है, लेकिन ये निर्णय भी दिल्ली सरकार संसद से पारित कानूनों के तहत ही ले सकती है. इस अनुच्छेद के मुताबिक दिल्ली का कार्यकारी प्रमुख (executive head) मुख्यमंत्री नहीं हैं, बल्कि उपराज्यपाल हैं.
1993 में विधानसभा के लिए पहली बार चुनाव
69वें संविधान संशोधन और GNCT Delhi Act 1991 के बाद दिल्ली विधानसभा के लिए पहली बार चुनाव 1993 में हुए. यहां पहले पांच साल बीजेपी, फिर 15 साल कांग्रेस की सरकार रही. इन 20 सालों में दिल्ली के उपराज्यपाल और दिल्ली सरकार के बीच छोटे-मोटे मुद्दों पर टकराव होते रहा, लेकिन अधिकारों की लड़ाई को लेकर मीडिया में उतनी सरगर्मी नहीं देखी गई. 2013 में दिल्ली की राजनीति में आम आदमी पार्टी का आगाज हुआ. पहली बार में आम आदमी पार्टी के संयोजक अरविंद केजरीवाल सिर्फ 48 दिन ही मुख्यमंत्री रह पाए. लेकिन 2015 के विधानसभा चुनाव में रिकॉर्ड जीत के बाद फरवरी में अरविंद केजरीवाल की अगुवाई में आम आदमी पार्टी की सरकार फिर से बनी. 2020 में भी केजरीवाल ने जीत का सिलसिला जारी रखा और फिर से सीएम बनें. वे पिछले 8 साल से भारी बहुमत के साथ दिल्ली के मुख्यमंत्री हैं और इसी दौरान एलजी के साथ दिल्ली सरकार के टकराव की घटनाएं बढ़ती गई.
2015 से अधिकारों को लेकर टकराव हुआ तेज़
दरअसल 2015 से आम आदमी पार्टी लगातार दिल्ली को पूर्ण राज्य बनाने की मांग कर रही है. इसके साथ ही दिल्ली सरकार को ज्यादा अधिकार देने की भी मांग कर रही है. अरविंद केजरीवाल का कहना है कि निर्वाचित सरकार होने के बावजूद दिल्ली सरकार को अधिकारों के मामले में सीमित कर दिया गया है. पहले उपराज्यपाल नजीब जंग, फिर उसके बाद अनिल बैजल और अब वर्तमान उपराज्यपाल विनय कुमार सक्सेना के साथ दिल्ली सरकार का अधिकारों को लेकर टकराव बढ़ते ही जा रहा है. ये टकराव बीजेपी और आम आदमी पार्टी के बीच का गतिरोध भी बन गया है.
अदालत में पहुंची अधिकारों की लड़ाई
इस टकराव ने कानूनी विवाद को भी जन्म दिया. निर्वाचित सरकार होने के बावजूद दिल्ली पूर्ण राज्य नहीं है. उसकी एक खास स्थिति है और इसी वजह से दिल्ली सरकार और एलजी में अधिकारों की लड़ाई हाईकोर्ट पहुंच गई. उस वक्त मुख्य सचिव की नियुक्ति और भ्रष्टाचार की जांच की अनुमति पर एलजी की सहमति नहीं लेने पर मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल और तत्कालीन उपराज्यपाल नजीब जंग के बीच अनबन चरम पर था. इन मामले में उठाए गए मुद्दों पर 2015 में दिल्ली हाईकोर्ट में सुनवाई हुई.
अगस्त 2016 में दिल्ली हाईकोर्ट का फैसला
दिल्ली हाईकोर्ट ने 4 अगस्त 2016 को दिए फैसले में अधिकारों के भ्रम को दूर करने का प्रयास किया. हाईकोर्ट ने कहा कि अनुच्छेद 239AA के तहत विधानसभा बनने के बावजूद दिल्ली एक केंद्र शासित प्रदेश बना हुआ है. हाईकोर्ट ने आगे कहा कि दिल्ली के लिए संविधान में जोड़े गए विशेष प्रावधान अनुच्छेद 239 के प्रभाव को खत्म नहीं करते हैं. केंद्र शासित प्रदेशों के लिए बने अनुच्छेद 239 उपराज्यपाल को अपनी मंत्रिपरिषद से स्वतंत्र रूप से काम करने का अधिकार देता है. इसके परिणामस्वरूप एलजी की सहमति के बिना दिल्ली सरकार की ओर से शुरु किए गए सभी जांच को हाईकोर्ट ने अवैध करार दिया. इनमें वाहनों को सीएनजी परमिट जारी करने की जुड़ी जांच, दिल्ली और जिला क्रिकेट संघ (DDCA) की वित्तीय जांच जैसे मामले भी शामिल थे. दिल्ली हाईकोर्ट के इस आदेश से दिल्ली सरकार के सभी प्रशासनिक फैसलों के लिए उपराज्यपाल की सहमति अनिवार्य हो गई. दिल्ली हाईकोर्ट के इस आदेश के मुताबिक उपराज्यपाल ही दिल्ली के प्रशासनिक प्रमुख हैं और उपराज्यपाल मंत्रिपरिषद की सलाह मानने के लिए बाध्य नहीं हैं.
2018 में सुप्रीम कोर्ट का ऐतिहासिक फैसला
दिल्ली सरकार ने हाईकोर्ट के फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी. फरवरी 2017 में सुप्रीम कोर्ट के दो सदस्यीय बेंच ने इस मामले को 5 सदस्यीय संविधान पीठ के पास भेज दिया. उपराज्यपाल और दिल्ली सरकार के बीच अधिकारों को लेकर टकराव पर 4 जुलाई 2018 को सुप्रीम कोर्ट के 5 सदस्यीय बेंच का फैसला आया. सुप्रीम कोर्ट ने हाईकोर्ट के फैसले को पलट दिया. दिल्ली सरकार के दावों के लिहाज से ये फैसला मील का पत्थर साबित हुआ. तत्कालीन चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया दीपक मिश्रा की अगुवाई वाले बेंच ने सर्वसम्मति से ये माना कि मुख्यमंत्री ही दिल्ली के कार्यकारी प्रमुख (executive head) हैं. संविधान पीठ ने फैसला सुनाया कि उपराज्यपाल यानी एलजी मंत्रिपरिषद की सहायता और सलाह से बंधे हैं. सुप्रीम कोर्ट ने साफ कह दिया कि उपराज्यपाल को कैबिनेट की सलाह के हिसाब से काम करना होगा. संविधान पीठ ने कहा कि उपराज्यपाल सिर्फ वहीं स्वतंत्र तौर से काम कर सकते हैं, जहां उन्हें संविधान ये अधिकार देता है. एलजी हर फैसले को राष्ट्रपति के पास नहीं भेज सकते हैं. सुप्रीम कोर्ट ने बेहतरी के लिए उपराज्यपाल और दिल्ली सरकार को मिलजुलकर काम करने को भी कहा. सुप्रीम कोर्ट के इस आदेश से दिल्ली सरकार को बड़ी राहत मिली. इस फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने निर्वाचित सरकार की सर्वोच्चता के सिद्धांत पर ज़ोर दिया था.
2021 में संसद से दिल्ली कानून में बड़ा बदलाव
सुप्रीम कोर्ट के फैसले से दिल्ली सरकार को राहत मिल गई थी, लेकिन केंद्र सरकार ने दिल्ली को लेकर 2021 में बड़ा फैसला लिया. केंद्र सरकार दिल्ली से जुड़े कानून GNCT Delhi Act 1991 में संशोधन के लिए संसद में विधेयक लाई. राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली सरकार (संशोधन) विधेयक, 2021 मार्च 2021 में संसद से पारित हुआ. GNCT Delhi (संशोधन) कानून 2021 के जरिए उपराज्यपाल (LG) और दिल्ली विधानसभा की शक्तियों और जिम्मेदारियों को स्पष्ट किया गया. नया कानून 27 अप्रैल 2021 से लागू हो गया. नए कानून के जरिए 1991 के कानून में कुछ इस तरह के बदलाव किए गए:
1. इसके जरिए सरकार शब्द का अर्थ लेफ्टिनेंट गवर्नर (LG) कर दिया गया. दिल्ली विधानसभा से पारित हर कानून में सरकार का मतलब अब 'दिल्ली का उपराज्यपाल' होगा. इसके लिए 1991 के कानून के सेक्शन 21 में clause (3) को जोड़ा गया.
2. इसके साथ ही ये व्यवस्था बना दी गई कि दिल्ली विधानसभा सदन की प्रक्रिया और कार्य संचालन के लिए जो भी नियम बनाएगी, वो लोकसभा की कार्य प्रक्रिया और कार्य संचालन के नियमों के अनुरूप होने चाहिए.
3. नए कानून में कहा गया कि दिल्ली विधानसभा दिल्ली एनसीटी के रोजमर्रा के प्रशासन से जुड़े मामलों पर विचार करने के लिए और प्रशासनिक फैसलों के सिलसिले में जांच के लिए न तो खुद को अधिकार देने का नियम बना सकती है और न ही किसी समिति को नियम बनाने का अधिकार दे सकती है. इस बाबत बने पहले के सारे नियमों को भी अमान्य कर दिया गया.
4. एलजी को ये अधिकार दे दिया गया कि वो विधानसभा की शक्तियों के दायरे से बाहर आने वाले मामलों से जुड़े विधेयकों को राष्ट्रपति के लिए रिजर्व करेगा.
5. पुराने कानून में व्यवस्था थी कि दिल्ली सरकार के सभी कार्यकारी कार्य एलजी के नाम के ही किए जाएंगे. ऐसे कार्य में चाहे मंत्रिपरिषद की सलाह हो या नहीं हो. नए कानून में ये जोड़ दिया गया कि एलजी की ओर से तय कुछ मामलों में दिल्ली सरकार के फैसलों पर कोई भी कार्यकारी कार्रवाई (executive action) करने से पहले उपराज्यपाल की राय ली जाएगी.
नए कानून से उपराज्पाल की सर्वोच्चता स्थापित
नए कानून के इस आखिरी व्यवस्था से उपराज्यपाल को अधिकार मिल गया कि वे अब दिल्ली सरकार के किसी भी फैसले में दखलअंदाजी कर सकते हैं. अब दिल्ली सरकार को अपने किसी भी फैसले पर अमल के लिए भी एलजी की राय की जरूरत पड़ती है. 2021 के कानून के जरिए दिल्ली के LG की भूमिकाओं और अधिकारों को स्पष्ट तौर से परिभाषित कर दिया गया. केंद्र सरकार ने तर्क दिया कि दिल्ली सरकार और उपराज्यपाल के बीच अधिकारों को लेकर भ्रम की स्थिति को खत्म करने के लिए नया कानून बनाया गया और प्रशासनिक अस्पष्टताओं को दूर करने के लिए कुछ प्रावधान जोड़े गए. निर्वाचित सरकार और उपराज्यपाल के उत्तरदायित्वों को स्पष्ट करना इसका मकसद बताया गया. 2018 के सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद बने हालात से निपटने के लिए ही केंद्र सरकार की ओर से 2021 में नया कानून बनाया गया. नए कानून के जरिए एक बार फिर से दिल्ली के मामले में उपराज्पाल की सर्वोच्चता को स्थापित कर दिया गया. ये तय हो गया कि अब दिल्ली सरकार को हर फाइल एलजी के पास भेजनी होगी.
नए कानून के विरोध में केजरीवाल सरकार
हालांकि आम आदमी पार्टी की सरकार इससे सहमत नहीं हुई. केजरीवाल सरकार का कहना है कि नए कानून के जरिए केंद्र सरकार ने पीछे के दरवाजे से उपराज्यपाल को ज्यादा अधिकार देने की कोशिश की है और 1991 के कानून में बनाए गए संतुलन को बिगाड़ने का काम किया है. दिल्ली के प्रशासनिक सेवाओं को लेकर भी स्थिति स्पष्ट नहीं हो पाई है और नए कानून के जरिए निर्वाचित सरकार के अधिकारों में कटौती कर दी गई है. आम आदमी पार्टी के साथ ही दिल्ली सरकार ने नए कानून को असंवैधानिक करार देने के लिए कोर्ट का रुख किया. दिल्ली सरकार ने सितंबर 2021 में सुप्रीम कोर्ट में नए कानून को चुनौती देते हुए इसे निर्वाचित सरकार के खिलाफ बताया. फिलहाल मामला सुप्रीम कोर्ट में लंबित है.
प्रशासनिक सेवाओं पर किसका नियंत्रण?
एक और मसला है जिसको लेकर केंद्र सरकार और दिल्ली सरकार के बीच टकराव का मुद्दा सुप्रीम कोर्ट में लंबित है. वो है, दिल्ली के प्रशासनिक सेवाओं पर अधिकार का मसला, जो भी बेहद जटिल है. दिल्ली के लिए अलग से कोई प्रशासनिक सेवाओं का कैडर नहीं है. इन सेवाओं से जुड़े विधायी और कार्यकारी शक्तियों पर दिल्ली सरकार या केंद्र सरकार का नियंत्रण है, इससे जुड़ी याचिका पर सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई पूरी हो चुकी है. चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया डी वाई चंद्रचूड़ की अगुवाई में 5 सदस्यीय संविधान पीठ इसकी सुनवाई जनवरी में ही पूरी कर चुकी है और फैसले को सुरक्षित रख लिया है. हालांकि केंद्र सरकार चाहती है कि अधिकारों को लेकर सारे भ्रम दूर करने के लिए अब मुद्दे की सुनवाई 9 या उससे ज्यादा जजों की संविधान पीठ के जरिए हो. केंद्र सरकार का कहना है कि 2018 का सुप्रीम कोर्ट का आदेश एनडीएमसी बनाम पंजाब सरकार (1996) के मामले में 9 जजों की संविधान पीठ के फैसले से असंगत है. इसलिए इस मामले को और बड़ी पीठ के पास भेजा जाना चाहिए. हालांकि दिल्ली सरकार ने 9 जजों या उससे भी बड़े बेंच के पास इस मुद्दे को भेजने का विरोध किया है. दिल्ली सरकार का कहना है कि इससे मामले के निपटारे में और देरी होगी.
2018 में सुप्रीम कोर्ट ने नहीं किया था विचार
6 मई 2022 को तत्कालीन चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया एनवी रमना की अगुवाई वाली तीन सदस्यीय पीठ ने प्रशासनिक सेवाओं से संबंधित मुद्दे को 5 सदस्यीय संविधान पीठ के पास रेफर कर दिया था. इस बेंच का मानना था कि 2018 के सुप्रीम कोर्ट के फैसले में संविधान के अनुच्छेद 239AA के दायरे की व्याख्या के दौरान दिल्ली के प्रशासनिक सेवाओं पर अधिकार से जुड़े पहलू पर विचार नहीं किया गया था. इससे पहले फरवरी 2019 में सुप्रीम कोर्ट की दो जजों की बेंच ने इस मामले पर फैसला सुनाया था. इस बेंच के दोनों जजों ने दिल्ली सरकार और केंद्र सरकार के अधिकारों के सवाल पर अलग-अलग फैसला सुनाते हुए मामले को बड़ी पीठ के पास भेज दिया था. केंद्र सरकार का कहना है कि उपराज्यपाल के पास दिल्ली में सेवाओं को नियंत्रित करने की शक्ति है. ये शक्तियां दिल्ली के प्रशासक को सौंपी गई हैं और दिल्ली का प्रशासक उपराज्यपाल होता है.
संवैधानिक से ज्यादा राजनीतिक मसला
दिल्ली और केंद्र में अलग- अलग पार्टियों की सरकारें रहने के बावजूद उपराज्यपाल और दिल्ली सरकार के बीच अधिकारों की लड़ाई 2014 तक उस हद तक नहीं बढ़ी थी, जितनी 2015 से दिख रही है. उससे पहले प्रशासनिक सेवाओं पर नियंत्रण का मामला कोर्ट में नहीं पहुंचा था. लेकिन 2015 में आम आदमी पार्टी की सरकार बनने के बाद हालात बिगड़ने लगे और कोर्ट में मुद्दा पहुंचने लगा. केंद्र सरकार की दलील रही है कि दिल्ली देश की राजधानी है और इस वजह से इसकी असाधारण स्थिति है और यहीं वो कारण है कि दिल्ली के प्रशासन को अकेले दिल्ली सरकार पर नहीं छोड़ा जा सकता. असल में अब ये मुद्दा संवैधानिक और कानूनी के साथ ही राजनीतिक रंग भी ले चुका है. ये मसला सिर्फ उपराज्यपाल या फिर कहें, केंद्र सरकार और दिल्ली सरकार के बीच का नहीं रहा गया है. ये अब बीजेपी और आम आदमी पार्टी के बीच तनातनी का भी मसला बन चुका है.
अब जिस तरह से दिल्ली का हर मुद्दा केंद्र और दिल्ली सरकार के बीच तनातनी को बढ़ा दे रहा है, उसका खामियाजा यहां की जनता को भुगतना पड़ रहा है. ऐसे में ये मामला पूरी तरह से तभी सुलझ सकता है, जब एक बार फिर से सुप्रीम कोर्ट की ओर से संसद से पारित 2021 के कानून और अधिकारों से जुड़े मुद्दे पर फैसला नहीं आ जाता. तब तक ये टकराव दिल्ली की जनता के जीवन का अभिन्न हिस्सा बना ही रहेगा.