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दिल्ली विधानसभा चुनाव: देखते हैं ध्रुवीकरण कैसे नहीं होता है !

क्या दिल्ली में वोटों का ध्रुवीकरण होगा, इस प्रश्न का उत्तर अभी भविष्य के गर्भ में है. भले ही ध्रुवीकरण की तोप पिछले कुछ चुनावों से लगातार बैकफायर कर रही हो, लेकिन दिल्ली विधानसभा चुनाव के लिए बीजेपी ने अपनी हिंदू-मुस्लिम वाली वही पुरानी बिसात बिछा दी है.

धार्मिक आधार पर ध्रुवीकरण कराना बीजेपी के लिए सदा से ‘रामबाण’ सिद्ध हुआ है. दिल्ली विधानसभा चुनावों की गहमागहमी में बीजेपी उम्मीदवारों, प्रवक्ताओं और वरिष्ठ नेताओं के बोल सुनकर अंदाजा लग रहा है कि बीजेपी के पास हिंदू-मुस्लिम का खेल खेलने के सिवा कोई चारा नहीं बचा है. इसलिए वह ‘आप’ के शिक्षा-सुधार, मोहल्ला क्लीनिक, बिजली-पानी के घटे हुए बिल जैसे सकारात्मक कार्यों को भी नकारात्मक सांचे में ढाल कर मतदाताओं के सामने पेश करने में जुटी है. दिल्ली की जनता को इसका कायल न होते देख उसके नेता ऐसे-ऐसे बयान दे रहे हैं, जिससे मतदाता काम के आधार पर नहीं बल्कि जाति और धर्म के आधार पर दोफाड़ हो जाएं. बानगी देखिए-

बाबरपुर विधानसभा में केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह- ‘जब आप 8 फरवरी को वोटिंग मशीन का बटन दबाएं तो इतने गुस्से से दबाना कि बटन यहां बाबरपुर में दबे और इसका करंट शाहीन बाग में लगे।’

भाजपा सांसद प्रवेश वर्मा- ‘दिल्ली वालों को सोच समझकर फैसला लेना पड़ेगा. ये लोग आपके घरों में घुसेंगे, आपकी बहन-बेटियों को उठाएंगे, उनको रेप करेंगे, उनको मारेंगे. इसलिए आज समय है. कल मोदी जी नहीं आएंगे बचाने. कल अमित शाह नहीं आएंगे बचाने.’

केंद्रीय वित्त राज्य मंत्री अनुराग ठाकुर की सभा में नारे लगाए गए- ‘देश के गद्दारों को, गोली मारो सालों को.’

मॉडल टाउन से बीजेपी उम्मीदवार कपिल मिश्रा का ट्वीट- ‘चुनाव के दिन दिल्ली की सड़कों पर हिंदुस्तान और पाकिस्तान का मुकाबला होगा.’

संबित पात्रा शाहीन बाग को ‘तौहीन बाग’ करार दे चुके हैं. दिल्ली के मतदाताओं को अभी और ऐसे बयानों के लिए तैयार रहना होगा. क्योंकि उपर्युक्त बयानों से स्पष्ट है कि यह महज बीजेपी नेताओं के जबान फिसलने का मामला नहीं है. नागरिकता संशोधन कानून के विरोध में दिल्ली के शाहीन बाग में चल रहा महिलाओं का शांतिपूर्ण धरना दिल्ली विधानसभा चुनाव में बड़ा मुद्दा बन चुका है. बीजेपी का मानना है कि यह धरना कांग्रेस और आम आदमी पार्टी की शह और सहयोग के दम पर इतने दिनों से खिंचा चला आ रहा है. एक ओर कांग्रेस के स्थानीय नेता अपना समर्थन बिलकुल नहीं छिपा रहे हैं, दूसरी ओर केजरीवाल के लिए शाहीन बाग दुधारी तलवार बन गया है और उन्हें नटों की तरह रस्सी पर चलना पड़ रहा है. उन्हें डर है कि अगर शाहीन बाग के समर्थन का संदेश चला गया तो हिंदू मतदाता बिदक जाएंगे और अगर खुलकर सामने नहीं आते, तो मुसलिम वोटर पिछले लोकसभा चुनावों की तरह हाथ से निकल सकते हैं. इसीलिए वह सीएए के विरोध में बयान तो दे रहे हैं लेकिन आंदोलनकारियों से मिलने नहीं जाते.

बीजेपी ठीक यही चाहती है. आरएसएस ने भी शाहीन बाग के आंदोलन और नागरिकता कानून को केंद्रीय मुद्दा बना देने की रणनीति बनाई है. अगर बीजेपी के पक्ष में श्वेत-श्याम ध्रुवीकरण के चलते वोट पड़े, तो केजरीवाल की तमाम खजाना खोल योजनाएं बेअसर हो जाएंगी. दिल्ली में ‘आप’ ने महिलाओं को बसों में मुफ्त सवारी के अलावा लोगों को 200 यूनिट तक मुफ्त बिजली, पानी के सारे पुराने बिल माफ, बुजुर्गों की तीर्थयात्रा, किरायेदारों को प्री-पेड मीटर, सीसीटीवी, स्ट्रीट लाइट, वाई-फाई की सुविधा जैसे लॉलीपॉप का स्वाद पहले ही चखा रखा है. दूसरा समीकरण यह बनेगा कि शाहीन बाग के आंदोलन का समर्थन करने के कारण मुस्लिम मतदाता कांग्रेस की झोली में जा सकते हैं. अगर ऐसा हो गया तो कांग्रेस भले ही न जीते, आप का बड़ा नुकसान कर देगी और बिना कुछ किए धरे ही बीजेपी का ग्राफ चढ़ जाएगा!

हलांकि इस प्रश्न का उत्तर अभी भविष्य के गर्भ में है कि क्या दिल्ली में वोटों का ध्रुवीकरण होगा? लेकिन भारत का चुनावी इतिहास गवाह है कि ऐसा पहले कई बार हो चुका है. ध्रुवीकरण बीजेपी का आजमाया हुआ हथियार है और लोकसभा या विधानसभा चुनावों के दौरान इसे वह देश के हर राज्य में आजमाती रही है. अब तो नगरनिगम के पार्षद चुनावों तक में बीजेपी के नेता नाली, कचरा, सड़क, बिजली, पानी के बजाए राम मंदिर, अनुच्छेद 370, ट्रिपल तलाक, नागरिकता कानून, सावरकर, लव जिहाद, टुकड़े-टुकड़े गैंग, पाकिस्तान, सर्जिकल स्ट्राइक जैसे मुद्दे उछालते हैं. ‘सबका साथ सबका विकास’ वाले नारे को तिलांजलि देकर उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में मोदी जी अपने प्रचार को शमशान और कब्रिस्तान तक खींच ले गए थे! मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में चुनाव प्रचार को गांधी बनाम गोडसे बनाने में बीजेपी की तरफ से कोई कसर नहीं छोड़ी गई थी.

बीजेपी की पश्चिम बंगाल इकाई के अध्यक्ष दिलीप घोष ने बीते दिनों ऐलान किया- ‘जो लोग सीएए का विरोध करेंगे उन्हें कुत्तों की तरह गोली मार दी जाएगी, हमारी सरकार ने उत्तर प्रदेश में ऐसा किया है. यदि हम पश्चिम बंगाल में जीत गए और हमारी सरकार बन गई तो हम यहां भी ऐसा ही करेंगे.’ इससे स्पष्ट हिंदू-मुस्लिम खेल भला और क्या होगा! अभी हाल ही में संपन्न हुए झारखंड विधानसभा चुनाव के दौरान मोदी जी ने उपद्रवियों को उनके कपड़ों से पहचान लेने का नुस्खा दिया था! भले ही ध्रुवीकरण की तोप पिछले कुछ चुनावों से लगातार बैकफायर कर रही हो, लेकिन दिल्ली विधानसभा चुनाव के लिए बीजेपी ने अपनी हिंदू-मुस्लिम वाली वही पुरानी बिसात बिछा दी है, जो उसके डीएनए में है.

कांग्रेस की धर्मनिरपेक्ष राजनीति के जवाब में आरएसएस की सरपरस्ती पाकर राष्ट्रवाद की ध्वजा उठाते हुए जब श्यामाप्रसाद मुखर्जी ने 1951 में भारतीय जनसंघ की स्थापना की थी, तब कश्मीर की एकता और गोरक्षा जैसे मुद्दे उसके मूल में थे. जनसंघ के अवतार बीजेपी के भी मुख्य कार्यक्रम वही हैं. हिंदुओं की व्यापक गोलबंदी के लिए आडवाणी जी ने रथयात्रा निकाली, राम मंदिर मुद्दे को दशकों जिलाए रखा गया, मंडल कमीशन के आरक्षण को धार्मिक मोड़ दिया गया, हिंदू आतंकवाद को बहस के केंद्र में रखने की कोशिशें हुईं, हर चुनाव से पहले बीजेपी के शीर्ष नेताओं ने धर्म विशेष के लोगों द्वारा अपनी हत्या के प्रयासों की अफवाहें उड़वाईं- यानी ध्रुवीकरण के हर पैंतरे आजमाए गए. इनका फायदा भी बीजेपी को हुआ और कभी मात्र 2 सीटों वाली पार्टी आज 330 सीटों के विराट बहुमत के साथ केंद्र की सत्ता पर आरूढ़ है.

लेकिन ध्रुवीकरण वाले फार्म्यूले के भी कुछ निश्चित घटक होते हैं. खलनायक या घृणा के प्रतीक की मौजूदगी अनिवार्य घटक है. जरूरत पड़ने पर इसमें फेरबदल करना पड़ता है. पहले ये खलनायक पाकिस्तान और प्रतीक बाबरी मस्जिद थी. अब मस्जिद नहीं रही और बीजेपी मंदिर निर्माण का वादा भी पूरा नही कर सकी है. केंद्र सरकार की उपलब्धियों के नाम पर शून्य बटा सन्नाटा है; उल्टे अर्थव्यवस्था रसातल में जा रही है. ऐसे में दिल्ली चुनाव के लिए फिलहाल बीजेपी ने नागरिकता कानून का विरोध करने वालों में नया खलनायक ढूंढ़ लिया है और शाहीन बाग को प्रतीक बना रही है. केंद्रीय गृह मंत्री से लेकर ‘राष्ट्रवादी’ संत्री तक अभियान में जुट गए हैं. देखते हैं ध्रुवीकरण कैसे नहीं होता है!

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(नोट- उपरोक्त दिए गए विचार व आंकड़े लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.)

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