राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली में केन्द्र ने अध्यादेश लाकर सुप्रीम कोर्ट के उस फैसले को पलट दिया, जिसमें कोर्ट ने ये माना था कि ट्रांसफर-पोस्टिंग का अधिकर दिल्ली सरकार के पास हो. बीते 11 मई को सुप्रीम कोर्ट ने बड़ा फैसला सुनाया था. कोर्ट ने अपने फैसले में ये माना था कि दिल्ली में सभी प्रशासनिक मामलों में सुपर विजन का अधिकार राज्यपाल को नहीं हो सकता है. इसके साथ ही, कोर्ट ने ये भी कहा था कि अधिकारियों का ट्रांसफर और पोस्टिंग दिल्ली सरकार के पास होना चाहिए. लेकिन, कोर्ट के इस फैसले के महज आठ दिन के बाद ही अध्यादेश लाकर केन्द्र ने इस पलट दिया.
अगर इसी तरह से अध्यादेश लाया जाएगा तो फिर जनतंत्र का देश के अंदर कोई मायने नहीं रह जाएगा. जितने भी संवैधानिक संस्थाएं हैं, वो संस्थाएं नहीं बचेंगी. एक बात बताइये, दिल्ली की जनता ने तीन बार लगातार भारी बहुमत से केजरीवाल की सरकार को चुना. लेकिन, 2015 में एक अवैध नोटिफिकेशन के जरिए दिल्ली सरकार की सारी शक्तियों को छीन लिया गया.
इस बात को लेकर हम कोर्ट गए. लगातार आठ सालों तक कोर्ट में कानूनी लड़ाई चलती रही. आखिर में सुप्रीम कोर्ट के संवैधानिक पीठ की तरफ से एक अच्छा सा फैसला सुनाया गया. इसमें शक्तियों के लेकर बिल्कुल साफ ये बंटवारा था कि एंट्री-1 टू 18... यानी जमीन, पुलिस और पब्लिक ऑर्डर ये केन्द्र का विषय है और बाकी जितने भी सब्जेक्ट हैं, ट्रांसफर पोस्टिंग है, वो सब दिल्ली का विषय है.
कोर्ट ने की थी तल्ख टिप्पणी
सुप्रीम कोर्ट ने फैसला सुनाते हुए ये तल्ख टिप्पणी दी थी कि उपराज्यपाल को सलाह पर काम करना चाहिए. अधिकारी अगर दिल्ली सरकार के नियंत्रण में नहीं होंगे तो फिर मंत्री की बात वो कैसे सुनेंगे? इसलिए, दिल्ली में चुनी हुई सरकार के पास ये शक्तियां होनी चाहिए. इसके बाद जब संवैधानिक पीठ का फैसला आता है तो फिर 8 दिन तक इंतजार किया जाता है, ताकि समर वैकेशन होगा, जिस दौरान सुनवाई नहीं होगी.
जिस दिन समर वैकेशन की छुट्टी होती है उस रात में ऑर्डिनेंस लेकर आ जाते हैं. चूंकि आपको पता है कि ऑर्डिनेंस नहीं टिकेगा. सबसे बड़ा कन्फ्यूजन का विषय ये है कि एक तरफ आप ऑर्डिनेंस लेकर आ रहे हैं, इस कानून को चुनौती दे रहे है. दूसरी तरफ रिव्यू पेटिशन में सुप्रीम कोर्ट में डाल रहे हैं, यानी आप मानते हैं कि अध्यादेश नहीं टिकेगा.
केन्द्र को है डर
इसमें तीन बात बिल्कुल साफ है. पहला ये कि आप दिल्ली की जनता को चुनौती दे रहे हैं कि चाहे जो मर्जी तुम चुन लो, हम काम नहीं करने देंगे, क्योंकि ये शक्ति हमारे पास है. दूसरा ये कि सुप्रीम कोर्ट के संवैधानिक बेंच को आप चुनौती दे रहे हैं कि जो मर्जी आप कर लोग, हम ऑर्डिनेंस के जरिए कानून बदल देंगे. इसका साफ मतलब ये है कि न तो कोई लोकतांत्रिक संस्था बची यानी सत्ता में बैठे शासक निरंकुश हो गए हैं. उनके न संविधान का डर है और न ही जनता का. ऐसी स्थिति में आखिर देश की संस्था कैसे चलेगी?
बीजेपी बेवजह इस बात को तूल दे रही है कि दिल्ली सरकार को अगर ट्रांसफर पोस्टिंग का अधिकार दिया गया तो वे अधिकारियों को डराएंगे या धमकाएंगे. सभी इस बात को भली भांति जानते हैं कि आम आदमी पार्टी ने इस देश में नया पॉलिटिकल डिस्कोर्स बनाया है, जिसमें जनता का काम हो और काम करने वालों को आगे बढ़ना चाहिए. सभी जानते हैं कि किस क्रूएल्टी के साथ ये लोग काम करते हैं. अधिकारियों को डराते-धमकाते हैं. आपके पास सत्ता है, कुछ भी कहलवा दीजिए. लेकिन एक बात बताइये कि दिल्ली की जनता ने अगर हमें चुना तो काम करने दो ना. हमारी शक्ति अगर हम खराब करेंगे तो जनता हमें बदल देगी.
डर से लाया गया ऑर्डिनेंस
सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद हमें शक्ति मिल गई थी. इसके बाद बीजेपी को हमारे काम का डर था. आठ साल तक हमने सुप्रीम कोर्ट में ये लड़ाई लड़ी. ऐसी स्थिति में अगर सुप्रीम कोर्ट के फैसले को एक अध्यादेश लाकर अगर पलट दिया जाता है तो संवैधानिक संस्था पर ही सवाल उठ जाएगा. ये बीजेपी का साफतौर पर हताशा बताता है. वो कुछ भी करने को तैयार है. दुनिया की इतना बड़ी पार्टी के नेता बीजेपी को कुछ बड़ा काम करना चाहिए था. जनादेश का अपमान नहीं किया जाना चाहिए.
ये दर्शाता है कि सरकार निरंकुश हो गई है और जनतंत्र में इनको विश्वास नहीं है. सुप्रीम कोर्ट में इनको विश्वास नहीं है. हमें जो संविधान दिया वो हमें आप करने दो. हम तो किसी तरह के किसी का काम में दखल नहीं देते हैं. लेकिन, इनके अंदर एक खौफ है, इसलिए ये इस तरह के कदम उठा रहे हैं. हमें संविधान और संवैधानिक संस्था में पूरा भरोसा है. सत्य को परेशान किया जा सकता है, लेकिन उसे पराजित नहीं किया जा सकता है. ऊपरवाले सब देख रहे हैं और वो न्याय करेंगे. हम अपना काम ईमानदारीपूर्वक कर रहे हैं. जनतंत्र में जनता मालिक है. हम जनता को बताएंगे कि इस देश में किस तरह से लोकतंत्र को कुचला जा रहा है. बहुत लड़ाई के बाद इस देश की संवैधानिक संस्थाओं को जो ताकत मिली है, जो संवैधानिक संस्थाएं बनी उन्हें खत्म करने की साजिश रची जा रह एक बार संवैधानिक संस्था खत्म हो जाएगी तो फिर हम 1947 से पहले के दौर में पहुंच जाएंगे. जनता ही इनको इनकी औकात बताएगी.
[ये आर्टिकल निजी विचारों पर आधारित है.]