एक 14 साल की एक नाबालिग बलात्कार पीड़िता के 25 हफ्ते के गर्भ को गिराने का दिल्ली हाईकोर्ट का फैसला बेहद स्वागत योग्य है. पीड़िता की उम्र को देखते हुए क्योंकि बलात्कार के चलते उसका गर्भ बना, इसके अलावा, ऐसी मानसिकता पर जो लोग सोचते हैं, ये दो फैक्टर है. हालांकि, लोग सोचते हैं कि गर्भ में पल रहे बच्चे को पैदा होने का हक है. लेकिन ऐसी स्थिति में मां की मानसिकता और स्वास्थ्य दोनों ही खतरे में है.
निश्चित तौर पर हाईकोर्ट के फैसले से एक बात और स्थापित होती है कि औरतों को अपने शरीर पर अपना हक होता है. अगर कोर्ट का फैसला इस बात के खिलाफ होता तो आप सोच सकते हैं कि उस बच्चे और उस मां के प्रति समाज की क्या सोच होती.
मानव अधिकार तो निश्चित तौर पर है क्योंकि वे अपना फैसला कर सके. इसके साथ ही, जो बलात्कार की घटना हुई, वो अपने आप में मानवाधिकार का उल्लंघन है. ऐसे में जो भी उसके साथ हो रहे सरासर अन्याय को रोकने का काम कोर्ट ने किया है.
पीड़िता को दोनों तरफ से तिरस्कार
लेकिन एक चीज और भी समझने की बात ये है कि बलात्कार पीड़िता की प्रताड़ना दोनों जगह है. एक तरफ जहां कानूनी लड़ाई लड़ रही है, और इंसाफ पाने के लिए भागदौड़ कर रही है तो वहीं दूसरी तरफ समाजिक तिरस्कार उसे झेलना पड़ता है. मां का भी तिरस्कार और उस बच्चे का भी तिरस्कार. लड़कियों को कई तरह के तिरस्कार और अपमान तक भुगतना पड़ता है. इसके अलावा, बच्चे की देख-रेख कौन करेगा?
बच्चा तो अपना आप से बड़ा तो होगा नहीं. ऐसे में आर्थिक जरूरतों को अगर महिला पूरी नहीं कर पाएगी, तो इस स्थिति में उसके साथ जो कुछ हुआ वो मानवाधिकार का हनन है और कोर्ट का फैसला बिल्कुल सही है.
कैसे मिले अस्मिता का सम्मान
महिला को सम्मान के साथ जीने के लिए सबसे मूल बात ये है कि उसे एक नागरिक माना जाए. इसके साथ ही, जो संवैधानिक समानता मिली है, उसे वो मिले. समाज में हर तरह से उसकी अस्मिता का सम्मान हो. दुर्भाग्य की बात ये है कि हमारे समाज में इस तरह की मानसिकता नहीं है. पुरूष प्रधान समाज में हर समय उस महिला को तिरस्कारित करना, उसका अपमान करना जैसी मानसिकता में रहता है. इसे बदलने के लिए ही महिला आंदोलन के जरिए काम कर रहे हैं. इसमें पुरुषों से लेकर परिवार और समाज, व्यक्ति सबको आगे आना पड़ेगा.
साल 2012 के दिल्ली गैंगरेप की घटना के बाद ये बात साबित होती है कि कानून आप बदल लें, सख्त से सख्त आप सजा कर दें, लेकिन अगर सामाजिक मानसिकता नहीं बदलती है तो इन घटनाओं को रोक पाना असंभव है. क्योंकि कानून लागू करने वालों के अंदर वो संवेदनशीलता नहीं दिखती है. कंझावला कांड को ही देख लीजिए, दोषियों को छोड़ दिया गया. सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि पुख्ता सबूत नहीं है. इसका मतलब ये है कि पुलिस ने पुख्ता सबूत पेश नहीं किए. इससे ये साबित होता है कि कहीं न कहीं हमारी जो लॉ एनफोर्समेंट एजेंसी है, जो न्याय देनेवाली जो पूरी प्रक्रिया है, उसकी पूरी सोच में खोट है और महिलाओं को समाज में बराबरी के हिसाब से नहीं देखा जा रहा है.
जब निर्भया की घटना हुई थी, उस वक्त हम लोग गुस्से में थे. देश में कानून बदल गया. लेकिन अब और जघन्य तरीके से अपराध नहीं रुक पा रहा है. इसके लिए एक तो कड़ी से कड़ी सजा मिले और दूसरी ये कि पुरुषों की मानसिकता को बदलने का पूरा प्रयास किया जाए. जब तक वो लोग नहीं जगेंगे, सिर्फ महिलाओं के करने से ये समाज नहीं बदलने वाला है. दोनों को ही समाज को बदलने के लिए आगे आना पड़ेगा.
[नोट- उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज़ ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.]