इतिहास गवाह है कि भारत में शताब्दियों पहले से लोकतंत्र की जड़ें बेहद मजबूत रही हैं और वर्तमान गवाही दे रहा है कि भारत में लोकतंत्र की बुनियादें खोखली होती जा रही हैं. ब्रिटिश संस्थान ‘द इकोनॉमिस्ट ग्रुप’ की इकोनॉमिक इंटेलीजेंस यूनिट (ईआईयू) की ओर से जारी लोकतंत्र सूचकांक 2019 की वैश्विक सूची में भारत 51वें स्थान पर है और पिछले वर्ष के मुकाबले 10 पायदान लुढ़क गया है. ईसा पूर्व छठी शताब्दी का वज्जि गणसंघ भारत में गणतांत्रिक प्रणाली की अद्भुत झांकी प्रस्तुत करता था जबकि इकोनॉमिस्ट ग्रुप की यह वैश्विक सूची 21वीं सदी के भारत में लोकतंत्र की दयनीय स्थिति का खाका पेश करती है.
अपने मट्ठे को कभी पतला न मानने वाले लोग शुतुरमुर्ग की भांति रेत में सिर गड़ाकर तूफान के अस्तित्व से इंकार कर सकते हैं और इसे एक ‘विदेशी’ शरारत करार देकर अपना दिल बहला सकते हैं, लेकिन जो लोग लोकतंत्र को ‘जनता द्वारा, जनता के लिए, जनता का शासन’ मानते हैं, वे इस सूचकांक पर नजर डालकर अवश्य चिंतित होंगे, जिसमें ताईवान और मलयेशिया जैसे देशों को भी भारत से ऊपर दिखाया गया है. यहां सूची में भारत से ऊपर स्थित देशों को नीचा दिखाने की कोई मंशा नहीं है, लेकिन दुनिया का सबसे बड़ा और प्राचीन लोकतांत्रिक देश होने के नाते भारत के लिए यह सम्मानजनक स्थिति तो नहीं ही कही जाएगी.
प्राचीन ग्रंथों में शाक्य, लिच्छिवि, वज्जि, अम्बष्ठ, अग्रेय, यौधेय, मानव, आर्जुनीयन, अरिष्ट, औटुम्वर, कठ, कुणिन्द, क्षुद्रक, पातानप्रस्थ आदि छोटे-बड़े गणतंत्रों का उल्लेख मिलता है. उनकी गणतांत्रिक व्यवस्था में किसी भी मुद्दे पर निर्णय होने से पूर्व निर्वाचन-प्रणाली से बनी परिषद् के सदस्यों के बीच खुलकर चर्चा होती थी. लेकिन आज देश की सुरक्षा और नागरिकों की अस्मिता से जुड़े मुद्दों पर भी जनप्रतिनिधियों के बीच आम सहमति बनाने की कोशिश नहीं की जाती. मात्र संख्याबल प्राप्त करने के लिए चुनाव होते हैं और खास एजेंडे के आधार पर कानून पारित होने लगे हैं.
सरकारें जनता द्वारा सौंपी गई ताकत का इस्तेमाल उसकी ही असहमति को कुचलने में करने लगी हैं. इसे नागरिकता कानून, राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर यानी एनआरसी और एनपीआर के खिलाफ देश के कोने-कोने में प्रदर्शन कर रहे लोगों पर सरकार की सख्त और हिंसक कार्रवाई से भी समझा जा सकता है. नागरिकता कानून ने पूरे भारत की मुसलिम आबादी के साथ-साथ उत्तर-पूर्व के हिंदुओं को भी सशंकित कर दिया है. नतीजतन बिहार से लेकर केरल तक बड़े-बड़े शहरों में विरोध प्रदर्शन हो रहे हैं और सांप्रदायिक तनाव बढ़ा है. दिल्ली के शाहीन बाग में महिलाओं का शांतिपूर्ण धरना दुनिया भर में सुर्खियां बन रहा है.
संविधान से विशेष दर्जा प्राप्त जम्मू-कश्मीर को स्वायत्तता देने वाले अनुच्छेद 370 में एकतरफा फेरबदल और उसके बाद उपजे राज्य के हालात किसी दृष्टि से लोकतांत्रिक कदम नहीं कहे जा सकते. मूलभूल अधिकारों में गिनी जाने वाली इंटरनेट सेवा कश्मीर में महीनों ठप कर रही, स्थानीय लोगों में भय पैदा करने के लिए अतिरिक्त सैन्य-बल तैनात किया गया और स्थानीय नेताओं को नजरबंद कर किया गया.
राज्य द्वारा लोकतांत्रिक स्पेस कम किए जाने की वजह से ही आज भारत कढ़ाही की तरह खौल रहा है. वस्तुतः लोकतांत्रिक प्रणाली ऐसे रचनातंत्र का प्रावधान करती है जिसके तहत जनसंख्या का एक विशाल हिस्सा राजनीतिक प्रभार प्राप्त करने के इच्छुक प्रतियोगियों में से मनोनुकूल चयन कर महत्त्वपूर्ण निर्णयों को प्रभावित करता है. लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि जनता के एक बड़े हिस्से की आकांक्षाओं को कुचल दिया जाए. उदार लोकतंत्र के चरित्रगत लक्षणों में अल्पसंख्यकों की सुरक्षा, कानून व्यवस्था, शक्तियों के वितरण आदि के अलावा अभिव्यक्ति, भाषा, सभा, धर्म और संपत्ति की स्वतंत्रता प्रमुख रूप से शामिल होती है. इसलिए धार्मिक आधार पर मुसलिम अल्पसंख्यकों को निशाना बनाने वाला रवैया किसी सूरत में लोकतांत्रिक नहीं कहा जा सकता.
देखा जाए तो इकोनॉमिस्ट ग्रुप द्वारा 2006 में यह रैंकिंग शुरू किए जाने के बाद से भारत का स्कोर इस बार सबसे कम रहा है. अर्थात् लोकतंत्र कमजोर होने के पैमाने पर गिरावट लगातार जारी है. लोकतंत्र के शिथिल होने का सीधा अर्थ होता है निरंकुश राजत्तंत्र के लक्षण प्रकट होना और नागरिकों की हर तरह की स्वतंत्रता सिकोड़ कर राजनीतिक प्रक्रिया में उनकी भागीदारी घटाना. ऐसा भी नहीं है कि 2006 से पहले भारतीय लोकतंत्र पर संकट के बादल नहीं मंडराए. आजाद भारत में केंद्र द्वारा राज्यपालों का सहारा लेकर चुनी हुई सरकारों को बर्खास्त करके राज्यों पर राष्ट्रपति शासन थोपने की कवायद नेहरू के जमाने से चली आ रही है. इसमें भी लोकतंत्र पर सबसे बड़ा धब्बा इंदिरा गांधी ने आपातकाल लागू करके लगाया था. तब लोगों के बुनियादी संवैधानिक अधिकार निरस्त कर दिए गए थे. आज देखने में आ रहा है कि जो सत्ता पर काबिज लोगों की हां में हां नहीं मिलाता, वह सीधे राष्ट्रविरोधी करार दे दिया जाता है. जो सरकार की नीतियों से अपनी सहमति नहीं जताता, उसे तख्तापलट करने निकले किसी बागी के रूप में देखा जाता है! यह लोकतांत्रिक दृष्टि नहीं हो सकती. दुष्यंत कुमार का शेर याद आ रहा है- “मत कहो आकाश में कोहरा घना है/ये किसी की व्यक्तिगत आलोचना है.”
हाल ही में जारी लोकतंत्र सूचकांक पूरे विश्व की चुनी हुई सरकारों के कामकाज, चुनाव प्रक्रिया व बहुलतावाद, राजनीतिक भागीदारी, राजनीतिक संस्कृति और नागरिक स्वतंत्रता पर आधारित है. इनमें से अधिकांश बिंदुओं पर भारत सरकार पिछले एक वर्ष के दौरान फिसड्डी साबित हुई है. मोदी सरकार इस बात से जरूर खुश हो सकती है कि इस सूची में पाकिस्तान 108वें और बांग्लादेश 80वें स्थान पर है क्योंकि उसे हर मामले में इन्हीं मुस्लिम बहुल पड़ोसी देशों से मुकाबला करने में संतुष्टि मिलती है.
अगर ऐसा नहीं है तो मौजूदा केंद्र सरकार को प्राचीन भारत के महान गणराज्यों के उन तौर-तरीकों को अपनाना होगा, जो सही-गलत के आकलन के लिए पक्ष-विपक्ष में जोरदार बहस कराते थे और उसके बाद ही सर्वसम्मति से निर्णय का प्रतिपादन किया जाता था. सबकी सहमति न बन पाने पर वोटिंग का सहारा लेकर बहुमत की प्रक्रिया अपनायी जाती थी. कई मामलों में सिर्फ बहुमत से काम नहीं चलता था, बल्कि सर्वसम्मति अनिवार्य की गई थी. इन्हीं भरोसेमंद और मजबूत बुनियादों पर नागरिकों का गणतंत्र पर भरोसा सुदृढ़ किया गया था. तबके बरक्स आज संवैधानिक संस्थाओं का क्षरण हो रहा है, जांच एजेंसियों को कठपुतली बनाया जा रहा है, चुने हुए जनप्रतिनिधि मंडी के घोड़े बनते जा रहे हैं और सत्ता गिने-चुने व्यक्तियों की मुट्ठी में कैद होती जा रही है.
जाहिर है, लोकतंत्र के प्राचीन और बुनियादी तकाजों को पूरा किए बिना कोई भी सरकार किसी भी सूचकांक में अपना स्कोर नहीं बढ़ा सकती; वह गाल बजा सकती है या दुनिया के आगे शुतुरमुर्ग बनी रह सकती है.
-विजयशंकर चतुर्वेदी, वरिष्ठ पत्रकार
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