अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड जे ट्रंप गर्मजोशी भरे माहौल में दो दिवसीय भारत दौरे पर आए और स्वागत-सत्कार से अभिभूत हो कर चले गए. विदेशी मेहमान का जोरदार स्वागत होना भी चाहिए था क्योंकि अतिथि देवो भव वाली हमारी परंपरा और संस्कृति है. दस्तूर यह भी है कि अगर मेहमान समर्थ हो तो कुछ उपहार वह मेजबानों को दे कर जाता है. लेकिन उनका 'नमस्ते ट्रंप' नामक यह भारतीय दौरा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के 'हाउडी मोदी' नामक अमेरिकी दौरे के सीक्वल से अधिक कुछ और साबित नहीं हुआ. भव्य रोड शो और भारत की जमीन से अमेरिका में अपनी चुनावी जीत का ट्रंप का दावा यह साबित करता है कि वह अपनी रिपब्लिकन पार्टी को पिछली बार मिले भारतवंशीय वोटों का प्रतिशत बढ़ाने का इरादा लेकर भी आए थे.


हास्यास्पद यह है कि कॉरपोरेट जगत को रिझाने के लिए ट्रंप अपनी जीत के बाद शेयर बाजार में उछाल आने का उत्साह दिला रहे थे. पीएम मोदी पिछले वर्ष सितंबर के दौरान जब न्यूयॉर्क गए थे, तब दोनों देशों के बीच ट्रेड डील की पूरी रूपरेखा तैयार थी, लेकिन निराशाजनक यह रहा कि ट्रंप की इस यात्रा के दौरान भी दोनों देशों के बीच बहुप्रतीक्षित व्यापार समझौता नहीं हो सका. भारत लंबे समय से अमेरिका के साथ मुक्त व्यापारिक समझौता (एफटीए) करना चाहता है, इस चक्कर में उसने पिछले वर्ष चीन के दबदबे वाले क्षेत्रीय व्यापक आर्थिक साझेदारी (आरसीईपी) से भी खुद को अलग कर लिया था. लेकिन ट्रंप ने एफटीए का जिक्र तक नहीं छेड़ा.


प्रधानमंत्री मोदी पहले ही घोषणा कर चुके हैं कि कारोबार उनके खून में है और ट्रम्प तो अमेरिका के स्थापित उद्योगपति रहे हैं. दो विशाल मुल्कों के इन सरबराहों की मित्रता के दावे भी आसमानी हैं. ऐसे में भारत-अमेरिका के बीच कारोबारी समझौतों की झड़ी लग जानी चाहिए थी. अपने-अपने देश के हितों को लेकर व्यापारिक मुकाबला होना चाहिए था. हल्ला तो यह भी था कि ट्रंप आतंकवाद के सवाल पर पाकिस्तान के परखच्चे उड़ा देंगे. लेकिन मिर्जा गालिब की बात सही साबित हो गई- “थी खबर गर्म के गालिब के उड़ेंगे पुर्जे/ देखने हम भी गए थे पर तमाशा न हुआ.” बल्कि हुआ यह कि ट्रंप ने पाक पीएम इमरान खान की तारीफों के पुल बांधे और उन्हें आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई में अपना अहम सहयोगी करार दिया. सुनते ये भी हैं कि दक्षिण-पूर्व एशिया के सबसे बड़े आतंकवादी गुट तालिबान के साथ 29 फरवरी को कतर के शहर दोहा में अमेरिका संघर्ष विराम का समझौता करने जा रहा है.


अमेरिकी राष्ट्रपति बिल क्लिंटन के 1999-2000 में हुए दौरे से लेकर 31 मार्च, 2019 को खत्म हुए वित्त वर्ष तक के 19 वर्षों में अमेरिका से भारतीय आयात उसके निर्यात के मुकाबले ज्यादा तेजी से बढ़ा, फिर भी ट्रंप संतुष्ट नहीं थे. ट्रंप अपनी पहली आधिकारिक यात्रा से पहले ही कह चुके थे कि भारत ने उनके साथ ठीक सलूक नहीं किया है. स्वाभाविक है कि इसके पीछे उनकी मंशा समझौते की टेबल पर भारत को दबाव में रखने की थी, जिसमें काफी हद तक वह कामयाब भी रहे. वह अमेरिकी उत्पादों से भारतीय बाजार को पाटना चाहते हैं और अमेरिका में भारतीय उत्पादों तथा भारत के सॉफ्टवेयर इंजीनियरों के प्रवेश को सीमित करना चाह रहे हैं. ट्रंप भारत पर आयात शुल्क की ऊंची दरों के जरिए अमेरिका को जबर्दस्त झटका देने का आरोप लगाते रहते हैं. पिछले दिनों उन्होंने भारत को 'टैरिफ किंग' कहा था और उनके प्रशासन ने पिछले वर्ष जून महीने में भारत को जनरलाइज्ड सिस्टम ऑफ प्रेफरेंसेज (जीएसपी) लिस्ट से भी निकाल दिया था.


स्पष्ट है कि ट्रंप भारत को कुछ देने नहीं बल्कि भारत से लेने आए थे. उनका एकसूत्रीय कार्यक्रम था कि भारत अमेरिकी उत्पादों पर आयात शुल्क शून्य करे और अमेरिकी कंपनियों के चरने के लिए भारतीय बाजार को चरागाह बना दिया जाए. यही वजह है कि दोनों देशों के उद्योग संगठनों की संयुक्त रिपोर्ट में हार्ले डेविडसन जैसी महंगी बाइकों पर इंपोर्ट ड्यूटी को शू्न्य करने की वकालत की गई है. लेकिन समझौते की टेबल पर भारत को जीएसपी (जनरलाइज्ड सिस्टम ऑफ प्रिफरेंस) का दर्जा लौटाने, मेडिकल उपकरणों की कीमत को लेकर सहमति बनाने, ई-कॉमर्स पॉलिसी में बदलाव करने, स्टील और एल्युमीनियम पर ऊंचे टैरिफ घटाने आदि को लेकर अमेरिका ने कोई वादा नहीं किया है. हां, लगभग तीन अरब डॉलर का रक्षा उपकरण सौदा करने में ट्रंप जरूर कामयाब हो गए, जिससे मृतप्राय अमेरिकी हथियार उद्योग में जान आएगी. इस सौदे के अंतर्गत अमेरिका ने भारत को आधुनिक तकनीक से लैस सैन्य हेलीकॉप्टर और अन्य साजोसामान देने की बात कही है. आर्म्ड और प्रीडेटर ड्रोन जैसे उपकरणों की आपूर्ति पर भी सहमति बनी है. तकनीक के हस्तांतरण को लेकर भी अमेरिका सहमत हुआ है. दोनों देशों के बीच 5जी तकनीक को लेकर चर्चा हुई, लेकिन इसका आर्थिक लाभ भी अमेरिका की टेलीकॉम कंपनियों को ही मिलेगा, क्योंकि भारत अभी 4जी तकनीक को ही नहीं निर्बाध कर पा रहा है.


एक और क्षेत्र है, जिसमें आपसी सहयोग की सहमति बनी है, वह है- काम्प्रिहेंसिव ग्लोबल स्ट्रेटजिक पार्टनरशिप’. यह नीति दोनों देशों को द्विपक्षीय मुद्दों के अलावा वैश्विक मसलों पर भी सामरिक साझेदारी की वकालत करती है. समझना मुश्किल नहीं है कि ऐसी सामरिक साझेदारी का फायदा कौन उठाता है. अमेरिका वक्त-जरूरत इजरायल की तरह भारत की मदद के लिए तो सामने आने वाला नहीं है, उल्टे भारत को ही अपने संसाधन समर्पित करने पड़ेंगे. भारत की ई-कॉमर्स पॉलिसी और डेटा गोपनीयता पॉलिसी को लेकर ट्रंप के समझौताकारों ने तो दोटूक कह दिया कि इस तरह की नीति अमेरिका और अन्य देशों के जवाबी ऐक्शन को हवा दे सकती है. अगर ऐसा होता है तो भारत की आईटी और बीपीओ इंडस्ट्रीज को खासा नुकसान पहुंच सकता है. मेडिकल डिवाइसेस की कीमत नियंत्रण के मुद्दे पर चर्चा हुई लेकिन नतीजा सिफर रहा.


देखने वाली बात यह है कि अमेरिका से रक्षा समझौते, तकनीक हस्तांतरण के वादे, शेयर बाजार में उछाल और व्यापार समझौते के जो आश्वासन मिले हैं, उन्हें तभी फलीभूत होना है जब ट्रंप राष्ट्रपति का अगला चुनाव जीत जाएं. लेकिन जानकारों का कहना है कि न नौ मन तेल होगा न राधा नाचेगी! कुल मिलाकर इस दौरे का हासिल यह है कि अमेरिका में जो माल पड़ा था, उसे भारत में बेचकर ट्रंप जा चुके हैं.


लेखक से ट्विटर पर जुड़ने के लिए क्लिक करें- https://twitter.com/VijayshankarC


और फेसबुक पर जुड़ने के लिए क्लिक करें- https://www.facebook.com/vijayshankar.chaturvedi


(नोट- उपरोक्त दिए गए विचार व आंकड़े लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.)