संस्कृत और प्राकृत विवाद में अशोक के अभिलेख ही साक्ष्य नहीं
आजकल यह चर्चा फिर शुरू हो गई है कि सम्राट अशोक के समय तक संस्कृत भाषा नहीं विकसित हुई थी और प्राकृत को संशोधित और समृद्ध कर संस्कृत का रूप दिया गया. अर्थात प्राकृत संस्कृत से प्राचीन है. इस मत के पक्ष में जो विद्वान हैं, वे या तो बौद्ध हैं या उसके पक्ष में हैं. इनका कहना है कि यदि संस्कृत प्राकृत से पुरानी है तो उसके प्रमाण मिलने चाहिए, सिर्फ मौखिक बात नहीं होनी चाहिए.
जब भी यह चर्चा शुरू हुई है, अशोक के अभिलेखों का उदाहरण दिया जाता है, जो ब्राह्मी लिपि में हैं. उनका यह भी कहना है कि अशोक ने जिस लिपि में अपने शासनादेश उत्कीर्ण कराये हैं, उसका असली नाम धंमलिपि (धम्मलिपि) है न कि ब्राह्मी. ब्राह्मी को आजकल जोर-शोर से धम्मलिपि कहने वाले सासाराम के एक प्रोफेसर सबसे आगे हैं. उनके समर्थक अन्य लोग भी हैं.
अशोक कालीन लिपि को धम्मलिपि कहने वालों का कहना है कि पहली बात तो यह कि संस्कृत की कोई रचना अशोक या उसके पहले की मिलती ही नहीं और न ही कोई अभिलेख मिलता है. अभी तक जो भी प्राचीनतम अभिलेख मिले हैं, वे अशोक के हैं और वे प्राकृत भाषा में है. कोई भी अभिलेख संस्कृत का है ही नहीं. इससे स्पष्ट है कि प्राकृत संस्कृत के पहले की है.इसी प्राकृत को व्याकरणबद्ध कर संस्कृत बनाया गया.संस्कृत नाम से भी यह स्पष्ट होता है. उनका यह भी कहना है कि अशोक कालीन लिपि में विसर्ग और स,श,ष के रूप नहीं मिलते,सिर्फ स ही मिलता है, और इनके अभाव में संस्कृत लिखी भी नहीं जा सकती.
ध्यान देने की बात है कि अशोक के पहले के अभिलेखेां में स का एक ही रूप मिलता है लेकिन बाद में अन्य रूप भी देखने को मिलते हैं. हालांकि अशोक का जहां भी नाम आया है,उसे असोक ही लिखा गया है. दूसरी बात यह कि यह हमेशा ध्यान रखना चाहिए कि ब्राह्मी में अभिलेख प्राकृत में लिखे गए हैं जो अशोक काल की प्रचलित भाषा थी और उसमें ही आम लोग वार्तालाप करते थे. इसी से अशोक ने सर्वसाधारण की भाषा में ही अपने शासनादेश उत्कीर्ण कराये जिससे सभी लोग उसे आसानी से समझ सकें. चूंकि ये सभी शासनादेश धार्मिक और सामाजिक कार्यो से जुडे थे, इसलिए ये सभी आम लोगों की भाषा में होने ही चाहिए थे. प्राकृत में मूलत: विसर्ग और श या ष का प्रयोग नहीं होता.
जिन वर्णो का प्रयोग बोलने मे नहीं होता, उसे लिखते समय क्यों प्रयोग किया जाएगा. इसी से अशोक कालीन ब्राह्मी में ये वर्ण नहीं मिलते. ठीक उसी तरह जैसे तुलसी दास ने रामचरित मानस कहीं भी श का प्रयोग नहीं किया है क्यों कि अवधी में यह वर्ण कम प्रयोग होता है. जहां भी श का प्रयोग होना चाहिए था वहां तुलसी ने स ही लिखा है. अब इस आधार पर यह कहा जाय कि तुलसी के समय में श वर्ण था ही नहीं तो यह उचित नहीं होगा. उनकी अन्य रचनाओं में इसका प्रयोग मिलता है.
यह भी ध्यान रहे कि अशोक के अधिकतर अभिलेख शिलाओं पर मिले हैं.
ये स्थायी होते हैं और कालक्रम में इनका क्षरण कम होता है. इसी से ये आजतक उपलब्ध हैं. शिलापर लिखा स्थायी होने से आज भी किसी योजना और उद्घाटन की सूचना शिलालेख से ही दी जाती है. इससे यह अर्थ नहीं निकाला जाना चाहिए कि अशोक के समय लेखन के अन्य माध्यम नहीं थे. ईस्वी सन के शुरू में ही कपास को कूटकर कागज जैसी चीज बनाने के प्रमाण मिलते हैं जिनपर लिखा जा सकता था.
भोजपत्र और ताड़पत्र पर लिखने की बात तो सभी जानते ही हैं. जो शिला पर लिखा गया,वह अमिट हो गया और जो अन्य माध्यमों पर लिखा गया,वह नष्ट हो गया या कम हो गया जो अब नहीं मिलता. जो शासक है,उसका लिखा सर्वत्र मिलता है और प्रजा का, भले ही वह चाहे जितना विद्वान हो उसका लिखा तो कम ही होगा. प्राकृत और संस्कृत के साथ भी यहीं हुआ. यह भी ध्यान देना होगा कि अशोक के शिलालेख ब्राह्मी के अलावा खरोष्ठी, आर्मेनियाई और यूनानी भाषा में भी मिलते हैं. ये शिलालेख पश्चिमोत्तर प्रांतों में मिलते हैं, क्यों कि उसे क्षेत्र के लोग यही भाषा और लिपि समझते थे.
अब उन अभिलेखों के आधार पर यह कहना कि अशोक काल के लोग दूसरी भाषा या लिपि समझते ही नहीं थे, गलत होगा. यह भी ध्यान रखने की बात है कि अशोक के अभिलेख लिखने वाले पण(चपण) पश्चिमोत्तर प्रांत के थे. क्यों कि कई अभिलेखेां में वह खरोष्ठी की लेखन परंपरा का पालन करते दिखते हैं. एक अभिलेख में उन्होंने अपना नाम खरोष्ठी के अनुसार दाहिने से बायें लिखा है जब कि ब्राह्मी या धम्मलिपि बायें ये दायें से लिखी जाती थी. लेकिन खरोष्ठी का अभ्यास होने से वह अपना नाम उसी तरीके से लिख गए.
ध्यान रखें कि पाणिनी अशोक के पूर्व के हैं और वह पश्चिमोत्तर के ही थे. उनका संस्कृत व्याकरण का ग्रंथ अष्टाध्यायी प्रसिद्ध है. उसकी उस समय की कोई मूल प्रति नहीं मिलती तो क्या समझ लिया जाय कि पाणिनि थे ही नहीं,या उन्होंने कोई ग्रंथ लिखा ही नहीं. यह तो बहस का विषय हो सकता है कि उन्होंने जो ग्रंथ लिखा,वह किस लिपि में था, ब्राह्मी में कि खरोष्ठी में,लेकिन उन्होंने लिखा ही नहीं,यह कहना तो तर्कसंगत नहीं होगा.
अशोक के समय के भी शिलालेखों के अलावा कोई अभिलेख नहीं मिलते. उनके शासन,उनके परिवार और राज्य विस्तार के बारे में जानकारी इन्हीं से मिलती है तो क्या कहा जाय कि उनके कोई केंद्रीय कार्यालय नहीं था जो राजकाज के हिसाब किताब रखता हो. निश्चित ही होगा, जो हिसाब रखता होगा. लेकिन वह सब ताम्रपत्र,ताड़पत्र या भोजपत्रों पर होता होगा जो कालक्रम में नष्ट हो गया होगा. तामपत्र तो अब भी उस समय के मिलते हैं. गोरखपुर के बांसगांव तहसील में मिले सोहगौरा के ताम्रलेख को अशोक कालीन ब्राह्मी के पूर्व का उदाहरण माना जाता है. अंशत: पढ़ने के बाद उसे चंद्रगुप्त मौर्य के काल का माना जाता है. इसके कुछ वर्ण अशोक कालीन लिपि से भिन्न हैं. अर्थात ब्राह्मी लगातार विकसित हो रही थी जो बाद में गुप्त काल तक आते-आते अधिक स्पष्ट हो कर देवनागरी बन गई और उसमें रचनाएं होने लगीं. पुराणों की रचना का यही काल माना जाता है.गुप्त काल भारत के इतिहास का स्वर्णकाल कहा जाता है.
इसलिए यह कहना कि अशोक के समय में संस्कृत नहीं थी,सिर्फ प्राकृत थी,उचित नहीं है. कुछ भी निर्णय करने के पहले सम्यक विचार आवश्यक होता है.
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