नेपाल में एक महीने में छह से अधिक बार भूकंप एनसीआर के लिए भी चिंता का सबब, बरतनी होगी सावधानी
अभी जब भूकंप की पूर्व सूचना की कोई बेहतर टेक्नॉलोजी उपलब्ध नहीं है, ऐसी स्थिति में पिछले एक महीने में उत्तर भारत में कुछ दिन के अन्तराल पर भूकम्प के अनेक झटको का महसूस किया जाना भयावह अनुभव है. भूकंप की हाल की श्रृंखला में एक को छोड़ सबका केंद्र हिमालय के हलचलीय क्षेत्र नेपाल में था, जहा भारतीय प्लेट हर साल पांच सेंटीमीटर की दर से उतर की ओर खिसक रहा है. सामान्य रूप से अक्तूबर और नवम्बर की शुरुआत में आए 6.2 और 6.4 तीव्रता वाले भूकम्प का केंद्र टेक्टानिक रूप से सक्रिय नेपाल में था, वहीं 15 अक्टूबर को 9 किलोमीटर गहराई और 3.1 तीव्रता वाले भूकम्प का केंद्र असामान्य रूप से हरियाणा के फ़रीदाबाद से 9 किलोमीटर दक्षिण में था. इसे असामान्य इसी लिए माना गया, क्योंकि अरावली क्षेत्र को भू-गर्विय हलचल के लिहाज से सुसुप्त समझा जाता रहा है. हालांकि, नेपाल में पिछले कुछ दिनों में कम तीव्रता के अनेक झटके आये हैं, पर 3 नवम्बर की रात आये भूकंप को दिल्ली से लेकर उतर प्रदेश, बिहार और यहाँ तक झारखण्ड तक महसूस किया गया.
भूकंप का कारण जानिए
भूकम्प ज्वालामुखी फटने के अलावा धरती के अंदर होने वाली टेक्टानिक प्लेट के आपसी टकराव से उत्पन्न अपार ऊर्जा राशी की सतह तक पहुँचने और उर्जा के निस्तारण से होता है. पृथ्वी की आंतरिक हलचल, सतह की चट्टान की मजबूती आदि के आधार पर उस क्षेत्र के भूकंप सम्बन्धी आपदा का आकलन किया जाता है. भारत को भूकंपीय दृष्टि से दो मुख्य स्थितियों में बाटा गया है, पहला हिमालय में होने वाले टेक्टानिक हलचल, जिसका प्रभाव क्षेत्र में पश्चिम से पूरब तक उतरी भारत के पहाड़ी और मैदानी क्षेत्र तक है, और दूसरा प्रायद्वीपीय भूखंड यानी सेंट्रल क्रेटॉन के प्लेट के आपसी हलचल के कारण सक्रिय क्षेत्र है, जिसमें पूरे भारतीय प्रायद्वीप का दक्षिणी क्षेत्र शामिल है. प्रायद्वीपीय भूखंड यानी सेंट्रल क्रेटॉन का क्षेत्र सामान्यतः भूकंप के लिहाज से शांत क्षेत्र है वही हिमालयी प्रभाव का क्षेत्र उतना ही भूकंप सक्रिय है. भारत को भूकंप के खतरे के आधार पर ब्यूरो ऑफ़ इंडियन स्टैंडर्ड ने पांच भूकंपीय क्षेत्रों में विभाजित किया है, जिसमे हिमालय और सटे दक्षिण के तराई सहित दिल्ली-एनसीआर जोन IV यानी 'उच्च जोखिम' वाले क्षेत्र में आता है. फ़रीदाबाद में आया पिछला भूकम्प गुजरात, राजस्थान और दिल्ली के बीच दक्षिण-पश्चिम, उत्तरपूर्व में फैले अरावली-दिल्ली फ़ोल्ड बेल्ट से जुड़ा है, भू-गर्भीय हलचल के लिहाज़ से काफ़ी महत्वपूर्ण क्षेत्र है.
एनसीआर है बेहद संवेदनशील
राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र भू-गर्भीय हलचल की दृष्टि से हिमालय और प्रायद्वीपीय कम्पन के संधि क्षेत्र पर स्थित है. यह क्षेत्र न केवल स्थानीय अरावली-दिल्ली फ़ोल्ड बेल्ट में होने वाले आंतरिक हलचल बल्कि ऐसा पाया है कि हिमालय क्षेत्र में उत्पन्न होने वाली भूकंपीय गतिविधियों के लिए भी संवेदनशील है और अक्सर भूकम्प के झटकों का सामना रहता हैं. दिल्ली के आसपास अरावली पर्वत शृंखला से जुड़े अनेक फ़ॉल्ट और भू-गर्भीय रूप से कमजोर क्षेत्र है जो उत्तर में हिमालय में धंस जाते हैं. दिल्ली-हरिद्वार रिज, महेंद्रगढ़-देहरादून फ़ॉल्ट, सोहना फ़ॉल्ट, दिल्ली-मुरादाबाद फ़ॉल्ट की उपस्थिति इस क्षेत्र को उच्च जोखिम वाला बनती है. अफगानिस्तान पाकिस्तान से नेपाल तक में आने वाले भूकंप का असर राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र से गुजरने वाले इस फ़ॉल्ट पर पड़ता है. दिल्ली -हरिद्वार रिज और दिल्ली-मुरादाबाद फ़ॉल्ट पर एक अध्ययन के मुताबिक 6.5-6.7 तीव्रता तक की भूकंप की क्षमता का आकलन है. अरावली-दिल्ली फ़ोल्ड बेल्ट पर दो विशाल भूखंड यानी पश्चिम में मारवाड़ क्रेटॉन और पूरब में बुंदेलखंड क्रेटॉन स्थित है. इन दोनो क्रेटॉन के सापेक्ष कम स्तर के हलचल का राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में होने वाले बढ़े हुए भू-गर्भीय हलचल से इनकार नहीं किया जा सकता. यहां तक कि इस क्षेत्र में होने वाले भूकंपीय हलचल की आवृति और मानसून में होने वाली भू-जल के रीचार्ज के बीच आपसी तारतम्य देखा गया है. यानि यहां होने वाले भू-जल के दोहन से भी भू-गर्भीय हलचल या कम तीव्रता के भूकंप होने की घटना में सम्बन्ध से इंकार नहीं किया जा सकता. सनद रहे कि पिछले कुछ दशको से राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में पानी का दोहन ख़तरनाक स्तर तक हुआ है और आज भी जारी है.
एनसीआर देख चुका है भूकंप की विनाशलीला
पिछले सौ साल में राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में दो दर्जन से अधिक बड़े स्तर के भूकम्प की घटना दर्ज की गयी है, जिसमें 1956, 1960 और 1966 के भूकम्प शामिल हैं. इन सब में सबसे ज़्यादा तबाही वाला गुड़गांव में आया 1960 का भूकम्प. इसके अलावा अब तक का सबसे विनाशकारी भूकम्प का विवरण कैफ़ी खान के विवरण में मिलता है जो 1720 में आया था. ऐसा अनुमान है कि इन दोनों भूकम्प का केंद्र हिमालय में ना होकर स्थानीय था. विगत कुछ साल में दिल्ली के आसपास कम तीव्रता वाले भूकंपीय हलचल भी बढ़ी है. गौर करने वाली बात है कि अक्सर आने वाले कम तीव्रता वाले भूकम्प किसी बड़ी तीव्रता वाले भूकम्प के होने की तीव्रता को काफ़ी हद तक कम कर देते हैं. पर ऐसा देखा गया है कि कम तीव्रता वाले भूकम्प घने आबादी वाले क्षेत्रों में ख़तरे के अनुमान की कमी और बिना तैयारी के कारण काफ़ी बड़े नुक़सान का सबब बनते हैं. यहां तक कि 1720 में आए भूकम्प के आधार पर किसी बड़ी तीव्रता के भूकम्प की सम्भावना से इनकार भी नहीं किया जा सकता है. टेक्टोनिक रूप से सक्रीय हिमालयी क्षेत्र में आने वाले कम तीव्रता के भूकंपो की एक श्रृंखला, किसी बड़े भूकंप के ना होने के रूप में एक अच्छा संकेत हो सकता है, पर हिमालयी क्षेत्र में जिस बेतरतीब और मैदानी तरीका की बसावट और संरचना निर्माण हुआ है, कम तीव्रता के भूकंप भी आपदा का रूप ले सकती है.
धरती पर मानव निर्मित संरचनाओं का भार
साल 2000 के नेचर में प्रकाशित एक शोध के मुताबिक़ धरती पर मानव निर्मित संरचनाओं का भार प्रकृति निर्मित वस्तुओं के भार से ज़्यादा हो चुका है, जिसमें मुख्य योगदान भवन और बसावट की संरचना का है. ज़मीन पर बनी हर संरचना जिसके भवन, ओवर ब्रिज, पुल आदि शामिल हैं प्राकृतिक रूप से कंपन करती है, जिसे रेज़ॉनेट फ़्रीक्वन्सी कहते हैं. किसी भी संरचना के प्राकृतिक रूप से कम्पन की प्रवृति उसके भार, लचीलेपन और आकार पर निर्भर करती है. भूकम्प के समय सतह पर प्रसारित ऊर्जा सतह पर मौजूद सभी वस्तु प्राकृतिक रूप से कम्पन करने लगते हैं. अगर सतह पर प्रसारित ऊर्जा रेज़ॉनेट फ़्रीक्वन्सी के बराबर या ज़्यादा होती है तब इमारत बहुत तेज़ी से हिलने लगती है और विनाश का कारण बनती है.
वर्तमान में राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र एक घने आबादी का क्षेत्र है जहां की बसावट 35 मिलियन तक है, साथ ही साथ अरावली-दिल्ली फ़ॉल्ट बेल्ट पर आधी मिलियन आबादी वाले जयपुर, अजमेर और जोधपुर सहित कम से कम पाँच बड़े शहर है.इस लिहाज़ से किसी बड़े या माध्यम तीव्रता के भूकम्प होने के लिहाज़ से तैयारी नाकाफ़ी है. दिल्ली शहर में पूर्वी दिल्ली, रिज, यमुना नदी के आस पास का क्षेत्र, अतिक्रमण और बेतरतीब बसे मोहल्ले, पुराने बसे मोहल्ले साथ-साथ यमुना और हिंडन नदी के आसपास बस रहे उची इमारतो की श्रृंखला भी संवेदनशील भूकंपीय जोन के हिसाब से किसी बड़े आपदा के वाहक हो सकते हैं. पृथ्वी मंत्रालय के दिल्ली के ‘सिशमिक हैज़र्ड माक्रोजोनेशन’ के अनुसार यमुना के किनारे और पुरानी दिल्ली में बसे घनी आबादी वाले क्षेत्र किसी बड़े भूकम्प की स्थिति में तबाही के क्षेत्र में बदल सकते हैं, वही शहर के पुराने भवनों को भूकम्परोधी बनाने का बहुत पहले शुरू हुआ प्रकल्प भी अधूरा रह गया है. तेजेंद्र खन्ना की 2006 की रिपोर्ट के मुताबिक़ 70-80% इमारतें भूकम्परोधी नहीं है. 2019 के इंडिया टुडे की एक रिपोर्ट के मुताबिक़ असुरक्षित इमारतों का आँकड़ा 90% तक है. इसका एक प्रमुख कारण दिल्ली में किसी भी प्रकार के क़ानूनी बाध्यता का ना होना भी है. हालाँकि दिल्ली मास्टर प्लान 2021 सिलसिलेवार ढंग से भूकम्प से बचाव और आपदा के प्रभाव के कम करने का खाका देता है पर बेतरतीब और अवैध तरीक़े से फैलती दिल्ली सहित राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र का दायरा किसी बड़े या यहां तक कि मध्यम श्रेणी के भूकम्प की स्थिति में भी तबाही का सबब बन सकता है.
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