लड़कियों की शादी की उम्र 21 साल करने पर लंबी चर्चा छिड़ गई है. अभी लड़कियों की शादी की कानूनन उम्र 18 साल है जिसे सरकार 21 साल करना चाहती है. यहां एक मुद्दा यह भी है कि लड़कों की शादी की कानूनन उम्र 21 साल है और उसे बरकरार रखा जाएगा. सिर्फ लड़कियों की उम्र बढ़ाई जाएगी. एक तो इसे जेंडर इक्वालिटी के लिहाज से देखा जा रहा है. दूसरा अधिक उम्र में शादी करने से महिलाओं के स्वास्थ्य और शिक्षा पर भी असर होगा, यह तर्क भी दिया जा रहा है. इसके लिए सरकार ने सांसद जया जेटली की अध्यक्षता में एक टास्क फोर्स बनाई है जो अपने सुझाव नीति आयोग को देगी. पिछले ही हफ्ते प्रधानमंत्री ने स्वतंत्रता दिवस के अपने संबोधन में इस बारे में बताया था.
किशोर विवाह करने पर सजा
यूं हमारे देश में लड़कियों की शादी की उम्र को लेकर लंबी बहस रही है. बाल विवाह आजादी से पहले की सच्चाई है. 1927 में हरबिलास शारदा नाम के शिक्षाविद और न्यायाधीश की कोशिशों से बाल विवाह रोकने के लिए एक कानून बनाया गया जिसे शारदा एक्ट कहा गया. इसमें लड़कों की शादी की उम्र 18 साल और लड़कियों की 14 साल थी. आजादी के बाद 1978 में इस कानून में बदलाव हुए और लड़कों की न्यूनतम उम्र 21 साल और लड़कियों की न्यूतम उम्र 18 साल की गई. लेकिन कानून के बावजूद बाल या किशोर विवाह नहीं रुके. तब 2006 में इसकी जगह एक नया कानून लाया गया- बाल विवाह रोकथाम कानून. इसमें बाल या किशोर विवाह करने वालों के लिए सजा भी तय की गई. अब न्यूनतम उम्र से कम उम्र में शादी करना गैर कानूनी है जिसके लिए दो साल की सजा और एक लाख रुपए तक का जुर्माना है.
यूं दुनिया भर में शादी की न्यूनतम कानूनन उम्र 18 साल ही है. कई देशों में माता-पिता की सहमति से विवाह की उम्र कम है और कानूनन अधिक. जैसे ईरान में अगर लड़का अपनी मर्जी से शादी करना चाहे तो उसे 18 साल और लड़की को 15 साल तक इंतजार करना पड़ता है. अगर माता-पिता चाहें तो लड़के की शादी 15 साल और लड़की की 13 साल में कर सकते हैं. थाईलैड, कतर, रूमानिया, स्पेन कई जगह ऐसा ही है, मतलब अपनी मर्जी से शादी की न्यूनतम उम्र ज्यादा है, माता-पिता की मर्जी से कम. भारत में ऐसा नहीं है. फिर भी अपने यहां 18 साल से कम उम्र में शादियां खूब की जाती हैं. भारत उन 10 देशों में शामिल है जहां बाल विवाह की सबसे अधिक दर है.
कानून में बदलाव के लाभ
अब सरकार लड़कियों के लिए शादी की न्यूनतम उम्र को बढ़ाना चाहती है. उसका तर्क यह है कि कम उम्र में शादी के कारण लड़कियों की पढ़ाई छूट जाती है. वे घरेलू हिंसा की शिकार होती हैं और प्रसव के दौरान मृत्यु होने का खतरा बढ़ता है. भारत में प्रसव के दौरान और गर्भावस्था से जुड़ी समस्याओं के कारण महिलाओं पर मौत का काफी खतरा रहता है. 2015-17 के दौरान हमारे देश में मातृ मृत्यु दर एक लाख जीवित शिशुओं पर 122 थी. हालांकि पिछले कुछ वर्षों में इस दर में गिरावट हुई है लेकिन फिर भी देश में किशोर लड़कियों की मौत का सबसे बड़ा कारण प्रसव और उससे जुड़ी समस्याएं ही हैं. एनएसएस के 75वें दौर के आंकड़े कहते हैं कि लड़कियों के पढ़ाई छोड़ने के कारणों में घरेलू कामकाज (30%), रुचि की कमी (15%) और शादी (13%) शामिल हैं. सरकार का मानना है कि जब शादी की कानूनी उम्र अधिक होगी तो लड़कियों को पढने का मौका मिलेगा. मानव संसाधन विकास मंत्रालय का खुद भी कहना है कि हर साल लगभग 17% लड़कियां आठवीं के बाद स्कूल छोड़ देती हैं. इनमें से बहुत सी लड़कियां कम उम्र में शादी करने के लिए मजबूर होती हैं. लड़कियां शिक्षा हासिल कर सकें, इसके लिए नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति की तरफ से भी कोशिश की जा रही है.
लेकिन उम्र बढ़ाने के अपने नुकसान भी हैं
लड़कियों के लिए शादी की उम्र 21 साल करने के अपने नुकसान भी बताए जा रहे हैं. कानून में इस बदलाव का दुरुपयोग किया जा सकता है. सेंटर फॉर विमेन्स डेवलपमेंट स्टडीज़ की प्रोफेसर मैरी ई. जॉन जैसी स्कॉलर का कहना है कि ‘हमारे यहां लड़कियों की शादी की औसत उम्र 19 साल है यानी मौजूदा कानून अपना काम कर रहा है. इसके अलावा जिन राज्यों में बाल या किशोर विवाह के सबसे ज्यादा मामले होते हैं, जैसे पश्चिम बंगाल, वहां औरतों में प्रजनन दर 1,6 है. यानी शादी की उम्र और प्रजनन दर के बीच कोई सीधा संबंध नहीं है.’ जॉन का यह भी कहना है कि ‘भारत में अधिकतर लड़कियां 21 साल की उम्र से पहले शादी कर रही हैं, इसलिए न्यूनतम उम्र को कानून के जरिए बढ़ाने से ये लड़कियां क्रिमिनिलाइज हो जाएंगी.’ माता-पिता लड़कियों की मर्जी को दबाने के लिए इस कानून का इस्तेमाल कर सकते हैं. उनका अपनी पसंद से शादी करना मुश्किल हो जाएगा. अगर सरकार का इरादा इस कानून के जरिए लड़कियों को शिक्षित करना है तो इसके लिए दूसरे तरीके भी अपनाए जा सकते हैं. स्कूल कॉलेजों तक उनकी पहुंच बढ़ाई जा सकती है. उन्हें रोजगार के अवसर मुहैय्या कराए जा सकते हैं.
हर सामाजिक समस्या को कानूनी तरीके से हल नहीं किया जा सकता. कम उम्र में शादी, एक सामाजिक कुरीति है और लड़कियों के अस्तित्व को नकारने की जिद भी. पितृ सत्ता औरतों को मर्दों की मर्जी के तले दबाती रही है. इसे सिर्फ कानूनी तरीके से बदला नहीं जा सकता. सवाल यह भी है कि क्यों न लड़कियों को ही तय करने दिया जाए कि उन्हें किस उम्र में शादी करनी है और किससे करनी है. यह एजेंसी जब लड़कियों के हाथों में आएगी तो समाज में बदलाव होगा. अक्सर अपने घर परिवार के दबाव से छूटने के लिए लड़कियां शादी को अपना एस्केप समझ लेती हैं. लेकिन शादी कोई छुटकारा नहीं, दूसरा चक्रव्यूह साबित होती है. जब शिक्षा तक लड़कियां की समान पहुंच होगी तो वे खुद ही तय करेंगी कि उन्हें शादी करनी है या नहीं. शिक्षा के साथ आत्मनिर्भरता भी आती है और आर्थिक आजादी भी. आर्थिक आजादी ही अक्सर दूसरी आजादियों का बायस बनती है.
(नोट- उपरोक्त दिए गए विचार व आंकड़े लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है)