(Source: ECI/ABP News/ABP Majha)
बिहार की शिक्षा व्यवस्था का मर्ज होता जा रहा है गहरा, ऑपरेशन की है जरूरत लेकिन सरकार लगा रही बैंड-एड
बिहार के भागलपुर जिले के सरकारी स्कूलों से अब तक 15 हजार छात्रों का नाम काटा जा चुका है. सरकारी अधिकारियों का कहना है कि ये बच्चे सिर्फ सरकारी योजनाओं का लाभ लेने के लिए एडमिशन कराते हैं और फिर स्कूल नहीं आते. बिहार में 38 जिले हैं. अब आप कैलकुलेट कर लीजिये कि ऐसे छात्रों की संख्या कितनी होगी? दूसरी तरफ, 2018 से 23 तक, लगातार एनुअल स्टेट्स ऑफ एडुकेशन रिपोर्ट (एएसईआर) के अनुसार बिहार के सरकारी स्कूलों में एडमिशन लेने वाले बच्चों की संख्या में वृद्धि हुई है, जिसे ले कर बिहार सरकार अपनी पीठ भी थपथपाती रहती है. यह कह कर कि हमने सरकारी स्कूलों को बेहतर बनाया है इसलिए बच्चे सरकारी स्कूलों में अधिक से अधिक संख्या में आ रहे हैं, लेकिन जब एक जिले से ही 15 हजार छात्रों के नाम काटे जाने की खबर आ रही हो तो समझा जा सकता है कि जमीनी हकीकत क्या है?
एएसईआर 2022 के मायने
ये रिपोर्ट बताती है कि साल 2022 में 6 से 14 साल के बीच के बच्चों की बिहार के सरकारी स्कूल में एनरोलमेंट का प्रतिशत 2018 के 78.1 फीसदी के मुकाबले 2022 में बढ़ कर 82.2 फीसदी हो गया, लेकिन इस रिपोर्ट में एक कटु सत्य भी छुपा है. रिपोर्ट बताती है कि सरकारी और प्राइवेट स्कूल के बच्चे प्राइवेट ट्यूशन लेने में भी पीछे नहीं हैं. 2018 में ऐसे बच्चों का प्रतिशत जहां 68.6 था वहीं 2022 में यह बढ़ कर 71.7 हो गया. दूसरी तरफ हिमाचल में यह प्रतिशत महज 10 और महाराष्ट्र में 15 है. तो सवाल है कि क्या बिहार के सरकारी स्कूलों की शैक्षणिक व्यवस्था काफी नहीं है कि बच्चों को प्राइवेट ट्यूशन लेना पड़ता है. इसका जवाब कोई भी आम बिहारी नागरिक आसानी से दे सकता है या फिर आप इसका जवाब शहर-दर-शहर कुकरमुत्ते की तरह फैले कोचिंग सेंटर्स में जा कर देख सकते हैं. इस बात का अंदाजा केके पाठक को भी भलीभांति था और शायद यही वजह थी कि उन्होंने बिहार के कोचिंग सेंटर्स को ले कर नए निर्देश जारी किये, जिसका कोचिंग सेंटर्स वाले भारी विरोध भी कर रहे है. हाल ही में कुछ जिलों में बाकायदा इन कोचिंग सेंटर्स वालों ने सड़क पर उतर कर भी विरोध दर्ज कराया.
अटेंडेंस कम होने की वजह?
अगस्त के पहले सप्ताह में ज्यां द्रेज ने बिहार के अररिया और कटिहार जिलों के कुछ सरकारी स्कूलों में एक सर्वे कराया जिसका शीर्षक था, “व्हेयर आर द किड्स?” यानी, इस सर्वे रिपोर्ट से पता चला कि स्कूलों में 20 फीसदी तक अटेंडेंस हैं. जबकि सरकार ने 75 फीसदी अटेंडेंस को अनिवार्य बनाया हुआ है. ज्यां द्रेज अपने सर्वे में इसके लिए कुछ कारण बताते हैं. वे कहते हैं, हो सकता है कि स्कूलों में पढ़ाई नहीं हो रही है, कोविड-19 के कारण दो साल तक स्कूल बंद रहने से बच्चों की स्कूल जाने की आदत कम हो गयी हो, निजी ट्यूशन, छात्रों का फर्जी नामांकन और प्रत्यक्ष लाभ हस्तांतरण की अनुचित प्रणाली के कारण गरीब अपनी बुनियादी जरूरतों और शिक्षा के बीच स्कूल छोड़ने का विकल्प चुन रहे हों. लेकिन, यूनिफॉर्म, मिड डे मिल, स्कालरशीप के तौर पर कैश ट्रांसफर आदि ऐसे पॉपुलिस्ट मुद्दे ही तो थे जिसे सरकार के मुताबिक़ बच्चों को स्कूल तक खींच कर लाने में कारगर बताया गया था. फिर यह विरोधाभास क्यों? जाहिर हैं, जब एक जिले से 15 हजार बच्चों के नाम काटे जाने की खबर आ रही है तो यह महज एक खबर नहीं, एक बहुत बड़े घोटाले की तरफ इशारा हैं.
सवाल भरोसे का!
बिहारी पैरेंट्स की जीवन में एक ही तमन्ना होती है कि उनके बच्चे या तो मेडिकल क्लियर करें या इंजीनियरिंग. और यही तमन्ना है जिसने बिहार के सबसे बड़े इंडस्ट्री कोचिंग को जन्म दिया है. बिहार के इस सबसे रोमांचक उद्योग का साइज, मोटे तौर पर 1 हजार करोड़ से अधिक का हो सकता है. कोटा की कहानी अलग है इससे. केके पाठक जब कालेजों के दौर पर होते हैं और जब उन्हें खाली क्लासरूम दिखना शुरू हुआ तो फिर कोचिंग सेंटर्स पर नकेल कसने की बात शुरू हुई. लेकिन, सवाल वहीं का वहीं रहा. आखिर क्यों माता-पिता सरकारी स्कूलों (हाई स्कूल-कॉलेज) पर भरोसा नहीं कर पाते? क्योंकि अभी तक सरकार का ध्यान सबसे अधिक बच्चों के एनरोलमेंट पर था. हर साल इसे रस्मी तौर पर बढ़ाना जरूरी था.
इस बीच बिहार के स्कूलों में इन्फ्रास्ट्रक्चर और क्वालिटी एडुकेशन पर ध्यान ही नहीं गया. इसके उलट, स्कूलों से जुडी विभिन्न योजनाओं को (ड्रेस-किताब-साइकिल) सोशल अपीजमेंट में तब्दील कर दिया गया. इस बहाने वोट बैंक की राजनीति भी साधने की कोशिश की गयी. नतीजतन, स्कूलों से क्वालिटी एडुकेशन गायब रहा और बदले में पैरेंट्स का भरोसा सरकारी शैक्षणिक संस्थानों से उठता चला गया. और यही वजह है कि पटना हो, कोटा हो या दिल्ली, हर जगह पढाई के लिए बिहारी बच्चे अपना घर छोड़ने को मजबूर होने लगे. ऐसे में, केके पाठक अभी जो कर रहे हैं, क्या वो मर्ज का इलाज है? नहीं. ये महज नासूर बन चुकी शिक्षा व्यवस्था की परतें उधेड़ता है. इलाज क्या होगा? पक्के तौर पर कोई भी अभी कुछ कह सकने की स्थिति में नहीं दिख रहा.
[नोट- उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज़ ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.]