तृणमूल कांग्रेस की प्रमुख और पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी का एक बयान पिछले कुछ दिनों से काफी सुर्खियों में हैं. 2024 के लोक सभा चुनाव में एकला चलो की चुनावी रणनीति से जुड़े बयान पर तमाम तरह की सियासी अटकलें लगाई जा रही है.


कुछ लोगों का मानना था कि ममता बनर्जी इसी बहाने केंद्र की राजनीति में अपना प्रभुत्व स्थापित करना चाहती हैं और खुद को विपक्ष का पीएम चेहरा बनवाना चाहती हैं. लेकिन ममता बनर्जी जब कहती है कि टीएमसी आगामी लोगकसभा चुनाव में किसी भी राजनीतिक दल के साथ गठबंधन नहीं करने वाली, तो ये उनकी मजबूरी और पश्चिम बंगाल में टीएमसी की राजनीतिक हैसियत को बनाए रखने की चिंता है.


ममता बनर्जी के सामने 2024 में  विपक्ष का पीएम पद का चेहरा बनने का लक्ष्य नहीं है, बल्कि अपने घर को बचाने का,उनके पास इससे भी बड़ी चुनौती है . 2024 में पश्चिम बंगाल में टीएमसी की राजनीतिक हैसियत दांव पर होगी और इसकी वजह है राज्य में बीजेपी का बढ़ता जनाधार. यही वजह है कि ममता बनर्जी पश्चिम बंगाल की जनता को ऐसा कोई संदेश नहीं देना चाहती जिससे आगामी लोकसभा चुनाव में टीएमसी का अस्तित्व ही खतरे में पड़ जाए. 


दो मार्च को नगालैंड, त्रिपुरा और मेघालय विधानसभा चुनाव के नतीजों की घोषणा होती है. उसी दिन मुर्शिदाबाद जिले के सागरदिघी विधानसभा उपचुनाव का भी नतीजा आता है. मुस्लिम बहुल इस सीट पर 2011, 2016 और 2021 में टीएमसी की जीत हुई थी. लेकिन इस साल के उपचुनाव में ये सीट टीएमसी के हाथों से निकल जाती है. कांग्रेस उम्मीदवार बायरन बिस्वास बड़े अंतर से इस सीट पर जीत जाते हैं.


इसके बाद ही ममता बनर्जी की ओर से 'एकला चलो' को लेकर नया बयान आता है. ममता बनर्जी कहती है कि जो भी लोग बीजेपी को हराना चाहते हैं, वे टीएमसी को वोट करेंगे. आगे बढ़कर वे कहती हैं कि जो लोग सीपीएम और कांग्रेस को वोट दे रहे हैं, वास्तविक रूप से बीजेपी को ही वोट दे रहे हैं. इसी के साथ ममता बनर्जी साफ कर देती हैं कि 2024 में टीएमसी किसी के साथ नहीं जाएगी और राज्य की जनता के समर्थन के बल पर अकेले चुनाव लड़ेंगी.


ममता बनर्जी की राजनीति का आधार है पश्चिम बंगाल


सबसे पहली बात ये है कि ममता बनर्जी की राजनीति का आधार ही पश्चिम बंगाल है. पश्चिम बंगाल से बाहर टीएमसी का लोकसभा के नजरिए से कोई अस्तित्व नहीं है. विधानसभा के लिहाज से दो-तीन राज्यों की कुछ सीटों पर भले ही छिटपुट जानाधार हो. वैसे पिछले 20 साल से टीएमसी पूर्वोत्तर के 7 राज्यों के अलावा गोवा जैसे राज्यों में भी अपना जनाधार बनाने की कोशिश कर रही है, लेकिन उसमें पार्टी को कोी ख़ास सफलता हासिल नहीं हुई है. टीएमसी के पास इस वक्त कुल 23 लोकसभा सांसद हैं और ये सभी सांसद पश्चिम बंगाल से हैं. इसी से जुड़ा अहम पहलू है कि पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी का राजनीतिक अस्तित्व ही कांग्रेस और सीपीएम विरोध पर टिकी है.


सीपीएम-कांग्रेस विरोध पर टिकी है टीएमसी की राजनीति


ऐसे में अगर ममता बनर्जी की ओर से कोई भी एक संदेश ऐसा गया कि वो राष्ट्रीय स्तर पर बीजेपी के खिलाफ विपक्ष के उस मोर्चे का हिस्सा बनने की मंशा रखती हैं, जिसमें कांग्रेस और सीपीएम भी जुड़ सकते हैं, तो ये पश्चिम बंगाल में टीएमसी के राजनीतिक विचारधारा के बिल्कुल खिलाफ चला जाएगा.  ममता बनर्जी की वजह से 2011 में पश्चिम बंगाल की राजनीति बिल्कुल बदल गई. उस वक्त तक यहां  सीपीएम, कांग्रेस और तृणमूल कांग्रेस का ही राजनीतिक अस्तित्व था. वहीं बीजेपी एक तरह से गौण अवस्था में थी. 2011 के विधानसभा चुनाव में ममता बनर्जी का ऐसा जादू चला कि पश्चिम बंगाल में 34 साल से चली सीपीएम की सत्ता नेस्तनाबूद हो गई और यहां से राज्य के लोगों को एक नया विकल्प मिल गया. इसके बाद पश्चिम बंगाल की राजनीति में टीएमसी का एकछत्र राज कायम हो गया. इसी का नतीजा था कि 2016 और 2021 के विधानसभा चुनाव में कभी धुर विरोधी रहे सीपीएम और कांग्रेस ने मिलकर चुनाव लड़ा. हालांकि इन दोनों ही पार्टियों का साथ भी ममता बनर्जी की सत्ता के लिए कुछ ख़ास खतरा नहीं बन पाया. 2016 और 2021 के विधानसभा चुनाव में ममता बनर्जी भारी जीत हासिल कर सत्ता बरकरार रखने में कामयाब रही.


बीजेपी है टीएमसी के लिए सबसे बड़ा खतरा


पश्चिम बंगाल में पिछले 10 साल में धीरे-धीरे कर बीजेपी ममता बनर्जी के लिए बड़ा खतरा बनते गई. 2011 के विधानसभा चुनाव में बीजेपी कुल 294 में से 289 सीटों पर चुनाव लड़ी और एक भी सीट जीतने में कामयाब नहीं हो सकी. उस वक्त पश्चिम बंगाल में बीजेपी की क्या हालत थी, ये इसी से पता चलता है कि उसके 285 उम्मीदवारों की जमानत जब्त हो गई थी. हालांकि बीजेपी 4% वोट हासिल करने में कामयाब रही थी. यही वो चुनाव था जिसमें एक तरह से पहली बार बीजेपी ने भी पूरे राज्य में अपने उम्मीदवार उतारे थे. 


बंगाल में धीरे-धीरे बीजेपी का बढ़ते गया जनाधार


पश्चिम बंगाल में 2011 और उसके बाद का वक्त जहां सीपीएम के अवसान का दौर था, वहीं बीजेपी के उत्थान की कहानी भी शुरू हो चुकी थी. 2016 के विधानसभा चुनाव में बीजेपी  291 सीटों पर चुनाव लड़ी और पहली बार 3 सीटें जीतने में सफल रही. उससे भी बड़ी बात ये हुई कि बीजेपी ने पश्चिम बंगाल में पहली बार विधानसभा चुनाव में 10 फीसदी से ज्यादा वोट हासिल करने के पड़ाव को पार कर ली और यहीं से राज्य में तृणमूल कांग्रेस के लिए अब सीपीएम और कांग्रेस की बजाए बीजेपी मुख्य विरोधी पार्टी बनने की राह पर चलने लगी. 2016 में ममता बनर्जी की पार्टी भले ही 211 सीटें जीतकर सरकार में बनी रही, लेकिन ये बीजेपी ने ये जरूर संकेत दे दी थी कि आने वाले वक्त में टीएमसी के लिए वहीं सबसे बड़ा खतरा साबित होने वाली है. 


2019 लोकसभा चुनाव में टीएमसी का प्रभुत्व हुआ खत्म


2019 के लोक सभा चुनाव में बीजेपी के प्रदर्शन ने इसे साबित भी किया. जहां 2014 लोकसभा चुनाव में ममता बनीर्जी की टीएमसी 42 में से 34 सीटें जीतने में कामयाब रही थी, वहीं बीजेपी को सिर्फ दो सीटों पर जीत मिली थी.  बीजेपी का वोट शेयर इस चुनाव में 17%  से ज्यादा रहा था. ये एक तरह से इस बात का संकेत था कि पश्चिम बंगाल में सीपीएम और कांग्रेस का वोट धीरे-धीरे बीजेपी की तरफ खिसक रहा था.


2019 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी ने ममता बनर्जी के बादशाहत को एक तरह से खत्म करने के साथ ही पश्चिम बंगाल की राजनीति में सीपीएम और कांग्रेस को विपक्ष के तौर पर हाशिए पर ढकेलने का काम कर दिया. 42 लोकसभा सीटों में से बीजेपी 18 सीटों पर जीत हासिल करने में कामयाब रही. उसे 16 सीटों का फायदा हुआ था. वहीं बीजेपी का वोट शेयर भी 40% से ऊपर पहुंच गया. टीएमसी 12 सीटों के नुकसान के साथ सिर्फ 22 सीट ही जीत पाई. लोकसभा के नजरिए से 2019 में पश्चिम बंगाल में बीजेपी ने टीएमसी के साथ मुकाबले को करीब-करीब बराबरी का बना दिया. इस चुनाव के नतीजों से ये तो तय हो ही गया कि लोकसभा में 2024 तक बीजेपी, टीएमसी को भी पीछे छोड़ सकती है. बीजेपी के इस प्रदर्शन के पीछे एक ख़ास बात थी. टीएमसी विरोधी वोट तेजी से बीजेपी के पाले में एकजुट होते गए और सीपीएम-कांग्रेस का अस्तित्व ही गायब होने लगा. 2019 में जहां कांग्रेस सिर्फ दो, तो सीपीएम एक भी लोक सभा सीट नहीं जीत पाई.


2021 में मुख्य विपक्षी पार्टी बनी बीजेपी


फिर आया 2021 का विधानसभा चुनाव. मतदान से पहले माहौल कुछ ऐसा बना कि इस बार ममता बनर्जी को बीजेपी से कड़ी टक्कर मिलेगी. लेकिन इसके बावजूद भी ममता बनर्जी अब तक की सबसे बड़ी जीत हासिल करने में कामयाब हो गई. टीएमसी को सबसे ज्यादा 215 सीटें हासिल हुई. लेकिन बीजेपी ने अपने प्रदर्शन से ये साबित कर दिया कि अब पश्चिम बंगाल में टीएमसी के साथ सिर्फ बीजेपी का ही मुकाबला होगा. बीजेपी 77 सीटों पर जीतने में सफल रही. पिछली बार के मुकाबले ये 74 सीटें ज्यादा थी. आश्चर्य की बात ये हैं कि बीजेपी का वोट शेयर करीब 38 फीसदी तक जा पहुंचा, जो पिछली बार के मुकाबले करीब 28 फीसदी ज्यादा था. और यहीं से तणमूल कांग्रेस की चिंता 2019 से भी ज्यादा बढ़ गई. दरअसल इस चुनाव में साथ चुनाव लड़ने के बावजूद सीपीएम और कांग्रेस दोनों ही एक भी सीट जीतने में कामयाब नहीं रही. जहां सीपीएम का वोट शेयर 5 फीसदी से नीचे चला गया. वहीं कांग्रेस महज़ 3% वोट ही हासिल कर पाई. ये आंकड़े बताते हैं कि कैसे 2021 में टीएमसी की भारी जीत के बावजूद बीजेपी कैसे पश्चिम बंगाल में एक बड़ी राजनीतिक ताकत बन गई.


ममता बनर्जी को बीजेपी के आगे निकलने का है डर


ममता बनर्जी को इसी बात का डर है कि 2024 के लोकसभा चुनाव में पश्चिम बंगाल में बीजेपी सीट जीतने में टीएमसी से आगे नहीं निकल जाए. टीएमसी के पास लोकसभा में 2009 में 19, 2014 में 34 और 2019 में 22 सीटें थी. वोट शेयर की बात करें, तो टीएमसी को 2009 में 44.63%, 2014 में 39.05% और 2019 में 43.3%  रहा था. वहीं बीजेपी के पास लोकसभा में 2009 में एक सीट, 2014 में 2 सीट और 2019 में 18 सीटें थी. वोट शेयर की बात करें, तो बीजेपी को 2009 में 6.14%, 2014 में 17.02% और 2019 में 40.7% रहा था. ये आकड़े बताते हैं कि बीजेपी पश्चिम बंगाल में लोकसभा के नजरिए से बहुत आगे बढ़ गई है और बीजेपी के जनाधार में इसी तरह की बढ़ोतरी देखी गई तो 2024 में टीएमसी को पीछे छोड़ना ज्यादा मुश्किल का काम नहीं है.


सीपीएम-कांग्रेस विरोध पर टिके रहना है मजबूरी


ये भी तय है कि पश्चिम बंगाल में हिन्दू-मुस्लिम के बीच वोटों के ध्रुवीकरण की वजह से बीजेपी बड़ी ताकत बनते गई है. लेकिन सागरदिघी उपचुनाव के नतीजों से ममता बनर्जी को डर सता रहा है कि मुस्लिम वोट उसके पाले से निकलकर कांग्रेस के पास जा रहा है और अगर 2024 के चुनाव में भी ऐसा ही हुआ तो ये बीजेपी के लिए बेहद फायदेमंद साबित होगा. ममता बनर्जी की असली चिंता ये है कि अगर 2024 के चुनाव में कांग्रेस और सीपीएम अगर मिलकर टीएमसी के परंपरागत वोट में से थोड़ा बहुत भी हासिल करने में कामयाब रही है, तो बीजेपी बहुत आसानी से टीएमसी से ज्यादा सीटें जीत लेगी. इसलिए वो राज्य की जनता को ये संदेश दे रही हैं कि 2024 में तृणमूल कांग्रेस का सिर्फ पश्चिम बंगाल के लोगों के साथ चुनावी गठबंधन होगा. ममता बनर्जी पश्चिम बंगाल में 2024 में मुकाबले को टीएमसी बनाम बीजेपी ही बनाए रखना चाहती है. इसमें वो कांग्रेस या सीपीएम को हिस्सेदार कतई नहीं बनाना चाहती है. अगर वो इन दलों के साथ राष्ट्रीय स्तर पर किसी भी तरह के गठबंधन का हिस्सा बनने को राजी हो जाती हैं, तो पश्चिम बंगाल में बीजेपी के पक्ष में जबरदस्त धुर्वीकरण हो सकता है और इसी को रोकने के लिए ममता बनर्जी को बार-बार कहना पड़ रहा है कि वो टीएमसी एकला चलो की नीति पर ही 2024 के चुनाव में उतरेगी.


पश्चिम बंगाल के गढ़ को बचाने की चुनौती


सीपीएम और कांग्रेस के साथ दूरी बनाए रखना सिर्फ 2024 के लोकसभा चुनाव के नजरिए से ही ममता बनर्जी की मजबूरी नहीं है. जिस तरह से 2021 के विधानसभा चुनाव में बीजेपी ने प्रदर्शन किया है, ममता बनर्जी कतई नहीं चाहेंगी किआगामी लोकसभा चुनाव में पश्चिम बंगाल में बीजेपी ऐसा प्रदर्शन कर दिखाए, जिससे यहां कि जनता आगामी विधानसभा चुनाव यानी 2026 में बीजेपी को ही टीएमसी का विकल्प समझने लगे. ममता बनर्जी चाहती है कि वो 2024 में वो पश्चिम बंगाल से ज्यादा से ज्यादा लोकसभा सीटें जीतकर चुनाव बाद बीजेपी विरोधी मोर्चा या गठबंधन बनने के हालात में अपनी शर्तों को मनवाने की बेहतर स्थिति में हों. पश्चिम बंगाल में जो राजनीतिक हालात है, उसके लिहाज से ये तभी मुमिकन होगा जब ममता बनर्जी वहां की जनता में संदेश दे पाएगी कि अभी भी टीएमसी की विचारधारा सीपीएम और कांग्रेस विरोधी ही है. ये साफ है कि 2024 में ममता बनर्जी के सामने पश्चिम बंगाल के गढ़ को बचाने की सबसे बड़ी चुनौती है और वो हर चुनावी रणनीति इसको जेहन में रखकर कर बनाएंगी. भले ही बीजेपी विरोधी बाकी दल कुछ भी कहते रहें, ममता बनर्जी का एकला चलो का रवैया पिछले कई सालों से जारी है और इसी के दम पर वो पश्चिम बंगाल में टीएमसी की सरकार बचाए रखने में कामयाब भी होते रही हैं.


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