शिव सेना का तीर कमान अब शिंदे के हाथ में, महाराष्ट्र की राजनीति में दिखेगा नया स्पार्क
चुनाव आयोग के फैसले के बाद महाराष्ट्र में अब नई तरह की राजनीति दिखेगी. सबसे पहले हमें यह समझना होगा कि चुनाव आयोग का जो 1968 के तहत पार्टियों को सिंबल देने का जो राइट है उसके ऊपर है. पहले पार्टियों का रजिस्ट्रेशन नहीं होता था. 1989 के बाद से यह शुरू हुआ. ये दो चीजें बड़ी खास हैं क्योंकि देश में चुनाव आयोग ने 1989 के बाद से राजनीतिक पार्टियों का रजिस्ट्रेशन करना शुरू किया था और महाराष्ट्र में शिव सेना के सिंबल पर जो आयोग ने निर्णय लिया है वो 1968 के आधार पर ही लिया है. इसमें कई तरह के प्रश्न उठ सकते हैं कि चुनाव आयोग ने जो निर्णय लिया है उसका आधार क्या है.
जैसे कि एक ऐसी पार्टी जिसका कि जो जनाधार है और जो उसका लेजिस्लेटिव आधार हैं दोनों में लोगों को काफी अंतर दिखता है. निश्चित रूप से जब ये कोर्ट के अंदर जाते हैं या चुनाव आयोग के पास जाते हैं तो उनकी भी एक सीमाएं होती हैं. इन सीमाओं के मद्देनजर चुनाव आयोग हो या कोर्ट हो एक आधार बनाकर उसको अपने तरीके से पेश करना होता है जिससे कि उनकी जो छवि है उस पर आंच न आए और जो निर्णय ले रहे हैं उसका एक आधार बने.
अब इसमें हमें देखना होगा इस मामले में उनका क्या आधार है. अब आधार निश्चित रूप से ही जब किसी राजनीतिक पार्टी का होगा तो उसका सपोर्ट बेस से ही होगा. 21 जून को जब इन दोनों पार्टियों की जो बैठक हुई थी उसको चुनाव आयोग ने आधार बनाया है. उस दिन के हिसाब से उन्होंने सारी चीजों को रखा और उस डिक्लेरेशन में जो कुछ भी संवैधानिक व असंवैधानिक प्रावधान थे उससे पूरी घटना क्रम को समझने की कोशिश की.
अब उस घटनाक्रम में उन्होंने कहा कि जितने भी डिसीजन थे सुप्रीम कोर्ट के उनके सामने उसको ध्यान में रखना था और उसके बाद कौन सुपीरियर है उसको माना जाए तो इसके लिए उन्होंने कहा कि लेजिस्लेटिव विंग का जो मेजोरिटी का टेस्ट है उसमें जो है स्पष्ट रूप से क्वालिटेटिव सुपीरियॉरिटी इन फेवर ऑफ दे पीटिशनर सिंदे तो ये महत्वपूर्ण मुद्दा उन्होंने लिया. इसमें चुनाव आयोग का कहना है कि 40 एमएलए जो हैं वो शिंदे को सपोर्ट करते हैं उनको कुल 47 हजार में से 36 लाख 57 हजार वोट मिले थे यानी कि कुल 76 प्रतिशत वोट उनको मिले थे. शिवसेना के कुल एमएलए 55 थे और बाकी जो एमएलए थे उनको 23 प्रतिशत वोट मिले थे यानी कि कुल 11 लाख वोट मिले थे.
चुनाव आयोग ने इसी को आधार बनाया और कहा कि अधिकतर एमएलए का समर्थन शिंदे गुट को है. इसलिए शिंदे गुट की सुपीरियॉरिटी सिद्ध होती है. दूसरा आधार आयोग ने ये बताया कि जो 13 एमपी शिंदे के साथ जुड़े हैं उनका वोट कितना है तो उनके पास 74 लाख 88 हजार वोट पाए गए. शिवसेना को कुल एक लाख दो हजार वोट मिले थे. इस तरह से 73 प्रतिशत वोट शिंदे गुट को मिलता है और बाकी जो एमपी हैं उनको 27 लाख वोट मिलते हैं. यानी करीब 27प्रतिशत वोट बाकी के शिवसेना सांसदों को मिलते हैं जो उद्धव ठाकरे के साथ हैं. तो इन दोनों को आधार मानते हुए आयोग ने शिवसेना के सिंबल के लिए शिंदे गुट को अधिकृत गुट माना. इसलिए उन्होंने कह दिया कि ये सिंबल सिंदे गुट को मिलना चाहिए.
अब देखिये, उन्होंने ये तो कह दिया लेकिन इस पर भी कई सवाल खड़े होंगे क्योंकि किसी पॉलिटिकल पार्टी का जो लेजिस्लेटिव विंग उसका उतना ही जनाधार तो नहीं है. किसी भी राजनीतिक पार्टी का जो बेस है वो तो उसका जनाधार होगा, उसके जो सदस्य हैं वो होंगे तो उसको जो है चुनाव आयोग ने कोई तवज्जो नहीं दिया है. तो सवाल ये है कि लेजिस्लेटिव विंग में अगर किसी तरह की गड़बड़ी होती है तो और ये किसी भी तरह से कराई जा सकती है तो क्या चुनाव आयोग ने ये जो निर्णय लिया है क्या उनका जनाधार प्रभावित होता है.
हम लोगों ने इंदिरा गांधी के केस में यह देखा कि चुनाव आयोग चुनाव ने उन्हे सिंबल देने से मना कर दिया और उनको नया चिन्ह लेना पड़ा था और नया सिंबल लेने के बाद जब चुनाव हुआ तो इंदिरा गांधी की पार्टी को पूर्ण बहुमत मिला था और उनकी पार्टी बहुत ज्यादा पॉपुलर हुआ तो सवाल ये था कि चुनाव आयोग का फैसला सही था कि जो उनका चुनाव में प्रदर्शन या जो जनाधार था वो सही था. तो ये जो सबसे बड़ा प्रश्न यहां हमें दिख रहा हो वो ये कि क्या जो जनाधार उसको लिया जाएगा, पार्टी की जो एक्चुअल मेंबरशिप है उसको लिया जाएगा या कुछ एमपी या एमएलए हैं वो किसी भी वजह से एक ग्रुप के साथ अलग होने को हो सकते हैं तो क्या हमें वो इतनी सी छोटी बात पर इतना बड़ा निर्णय लिया जा सकता है तो ये एक प्रश्न सामान्य जनमानस के सामने निश्चित रूप से आएगा.
शरद पवार ने उद्धव को दिया सलाह
देखिये, जब शिवसेना के सिंबल को फ्रिज किया गया था तो उनको नया सिंबल मिला था और उसपर उन्होंने उप चुनाव भी लड़े थे. अब ये तो उद्धव ठाकरे के ऊपर है कि वो उसी सिंबल को रखना चाहते हैं या कोई नया सिंबल लेना चाहेंगे लेकिन सामान्य रूप से जब एक सिंबल प्रचारित हो जाता है और लोग उसको जान जाते हैं तो फिर राजनीतिक दल उसको परिवर्तित नहीं करते हैं. क्योंकि आगे चिंचवाड़ में भी उपचुनाव होना है.. तो वहां पर उद्धव ठाकरे ये निर्णय लेंगे कि कौन सा सिंबल का इस्तेमाल वो करेंगे कि जो नया सिंबल उनको मिला था वो उसी को रखेंगे और दूसरी चीज ये भी ध्यान देखना होगा शिंदे गुट को भी एक नया सिंबल मिला था तो क्या वे अब इस नए सिंबल को रखना चाहेंगे कि ये जो पुराना शिव सेना का सिंबल है उसको रखना चाहते हैं.
इसके अलावा ये देखना दिलचस्प होगा कि उद्धव ठाकरे की जो लिगेसी है उसका क्या होगा. हालांकि ये चुनाव आयोग का मुद्दा नहीं है ये सामान्य जनमानस का मुद्दा है क्योंकि आयोग ने किसी आइडिया या आइडियोलॉजी के बेसिस पर यह निर्णय नहीं लिया है और ले भी नहीं सकती है. जहां तक लिगेसी की बात है तो शरद पवार भी यही बोल रहे है कि ठाकरे को इस विषय पर ज्यादा नहीं सोचना नहीं चाहिए क्योंकि उद्धव ठाकरे का अपना एक जनाधार है और वे नए सिंबल के साथ चुनाव लड़ कर अपनी लिगेसी को सिद्ध कर सकते हैं. इसलिए ये कहना कि शिंदे को सिर्फ सिंबल मिल जाने से बाबा साहब ठाकरे की जो लिगेसी है उसके वो हकदार हो जाते हैं मेरे ख्याल ये बात जनता तय करेगी. तो आयोग ने जिन दो आधार पर निर्णय लिया है वो लोगों को हाईपोथेटिकल लग सकता है. अब अगर उद्धव ठाकरे सुप्रीम कोर्ट में जाते हैं तो वहां ये सवाल उठ सकता है.
महाराष्ट्र के राजनीति में नए तरह का पॉलिटिकल स्पार्क पैदा करेगा
ये हमें निश्चित रूप से मान लेना चाहिए कि इस निर्णय के बाद से महाराष्ट्र के राजनीति में नए तरह का पॉलिटिकल स्पार्क पैदा होगा और इसका जो असर हमें चुनाव में देखने को मिलेगा वो भी महत्वपूर्ण होगा. अब यह ठाकरे परिवार पर निर्भर करेगा कि उनका जो बेस है, एक जो लीगेसी है उसको वो किस तरह से संभालते हैं और उसके हिसाब से उनकी लिगेसी तय होगी लेकिन मैं ये भी मानता हूं कि चुनाव आयोग के निर्णय से किसी भी पार्टी की लिगेसी न बनती है और न ही खत्म होती है क्योंकि हम पहले भी ऐसा देख चुके हैं कि पार्टी में अगर दमखम है तो वह जनता के बीच बना रहेगा. और आने वाले दिनों में यह निश्चित रूप से दिखेगा कि महाराष्ट्र की राजनीति किस प्रकार से गर्माती है और उसका नतीजा किस प्रकार से आता है क्योंकि एक चीज जो सिंदे के साथ निश्चित रूप से जो दिखता है वो ये कि उन्होंने जो कुछ भी किया है वो दूसरों के सहारे किया है तो क्या जनता उसे स्वीकार करती या नहीं करती है ये सारी चीजें वहां दिखेगी. मुझे लगता है कि जो भी नतीजा महाराष्ट्र के आने वाले चुनाव में होगा उस पर पूरे देश की नजर रहेगी और फिर उस हिसाब से चुनाव आयोग को भी अपने निर्णय लेने पड़ेंगे.
(नोट- उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज़ ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.)