भारत लोक सभा चुनाव की दहलीज़ पर खड़ा है. चुनाव आयोग इसी हफ्त़े किसी भी दिन चुनाव कार्यक्रम का एलान कर सकता है. ऐसे में चुनाव आयुक्त अरुण गोयल का पद से त्यागपत्र देने का फ़ैसला चौंकाने वाला है. लोक सभा चुनाव कार्यक्रम की संभावित घोषणा से कुछ दिन पहले अरुण गोयल इस्तीफ़ा देते हैं. राष्ट्रपति दौपदी मुर्मु 9 मार्च के उनका इस्तीफ़ा स्वीकार कर लेती हैं और उसी दिन से अरुण गोयल सेवामुक्त हो जाते हैं.


अरुण गोयल ने अचानक इस्तीफ़ा क्यों दिया, इसका वास्तविक कारण तो पता नहीं चला है, लेकिन कहा जा रहा है कि उन्होंने निजी कारणों से पद छोड़ने का फ़ैसला किया है. अरुण गोयल के इस्तीफ़े से अब तीन सदस्यीय निर्वाचन आयोग में सिर्फ़ मुख्य चुनाव आयुक्त राजीव कुमार बच गए हैं. इससे पहले इसी साल 24 फरवरी को अनूप पांडे चुनाव आयुक्त के पद से सेवानिवृत्त हुए थे.


भविष्य में बन सकते थे मुख्य निर्वाचन आयुक्त


अरुण गोयल 21 नवंबर 2022 से चुनाव आयुक्त थे. उनका कार्यकाल 5 दिसंबर 2027 तक था. मौजूदा मुख्य चुनाव आयुक्त राजीव कुमार अगले साल फरवरी में सेवानिवृत्त होने वाले हैं. ऐसे में इसकी संभावना भरपूर थी कि राजीव कुमार के बाद सेवा में रहने पर अरुण गोयल फरवरी, 2025 में  मुख्य निर्वाचन आयुक्त का पदभार संभालते. हालाँकि उनके अचानक इस्तीफ़े से सब बदल गया है.


इस्तीफ़े के समय को लेकर सवाल महत्वपूर्ण


अरुण गोयल के इस्तीफ़े पर सैद्धांतिक तौर से कोई सवाल नहीं है, लेकिन व्यावहारिक नज़रिेये से इससेस कई सवाल जुड़ा है. कोई भी व्यक्ति कभी भी निजी कारणों से अपने पद से इस्तीफ़ा देने के लिए स्वतंत्र है. सवाल टाइमिंग या'नी समय को लेकर है. चुनाव लोक सभा चुनाव की तैयारियों में जुटा है. अप्रैल-मई में मतदान होना है. आयोग की टीम हर राज्य का दौरा कर तैयारियों का जाइज़ा ले रही है. चुनाव कार्यक्रम का एलान होने वाला है. आयोग ने 17वीं लोक सभा के लिए चुनाव कार्यक्रम का एलान 10 मार्च, 2019 को किया था. चुनाव कार्यक्रम के एलान के आस-पास अरुण गोयल के अचानक पद छोड़ने से आयोग की विश्वसनीयता को लेकर ही सवाल खड़े होने लगते हैं. एक तो पहले ही अनूप पांडे के रिटायरमेंट से चुनाव आयोग में दो ही आयुक्त थे. इनमें एक सीईसी और एक ईसी थे.


चुनाव आयोग की निष्पक्षता पर बार-बार सवाल


चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति से संबंधित नए क़ानून की वज्ह से पहले से ही चुनाव आयोग की निष्पक्षता और स्वतंत्रता सवालों के घेरे में थी. अब लोक सभा चुनाव से ठीक पहले तीन सदस्यीय चुनाव आयोग में सिर्फ़ मुख्य चुनाव आयुक्त के बच जाने से विश्वसनीयता पर नए सिरे से सवाल उठना लाज़िमी है. अगर मोदी सरकार एक-दो दिन के भीतर दो चुनाव आयुक्तों के खाली पदों पर नियुक्ति नहीं करती है, तो फिर आगामी लोक सभा चुनाव का सारा ज़िम्मा मुख्य चुनाव आयुक्त राजीव कुमार पर ही होगा. चुनाव कार्यक्रम और मतदान कराने से संबंधित हर प्रक्रिया में हर फ़ैसला राजीव कुमार ही लेंगे. यह चुनाव आयोग को तीन सदस्यीय बनाने के मक़्सद से तालमेल नहीं खाता है.


तीन सदस्यीय बनाने के पीछे ख़ास मक़्सद


चुनाव आयोग को तीन सदस्यीय बनाने के पीछे ख़ास उद्देश्य था. आयोग की निष्पक्षता और स्वतंत्रता बरक़रार रहे, उस पर कोई सवाल खड़ा नहीं हो... इसके लिए आयोग में चेक एंड बैलेंस की ज़रूरत महसूस की गयी. चुनाव आयोग में 15 अक्टूबर 1989 तक सिर्फ़ मुख्य चुनाव आयुक्त हुआ करते थे. आयोग में 16 अक्टूबर 1989 से मुख्य चुनाव आयुक्त के साथ ही दो और चुनाव आयुक्तों के लिए जगह बनाई गयी. आयोग को 1990 में फिर से एक सदस्यीय बना दिया गया. लेकिन अक्टूबर 1993 में मुख्य चुनाव आयुक्त के साथ अन्य दो चुनाव आयुक्तों की व्यवस्था को फिर से बहाल कर दिया गया. तब से चुनाव आयोग में मुख्य चुनाव आयुक्त के साथ दो चुनाव आयुक्त की व्यवस्था बरक़रार है.


आयोग बहुमत के आधार पर फ़ैसला करता है


संविधान के अनुच्छेद 324 (3) के तहत मुख्य निर्वाचन आयुक्त चुनाव आयोग के अध्यक्ष के तौर पर काम करता है. मुख्य चुनाव आयुक्त और बाक़ी दो चुनाव आयुक्त के पास समान शक्तियाँ होती हैं. किसी मसले पर जब मतभद हो, तो आयोग बहुमत के आधार पर फ़ैसला करता है. तीन सदस्यीय आयोग होने से यह सुनिश्चित हो गया कि कोई भी मुख्य आयुक्त आयुक्त मनमाने तरीक़े से काम नहीं कर पाए.


चुनाव आयुक्तों की जल्द नियुक्ति नहीं हुई तो..


देश में लोक सभा के लिए चुनाव एक लंबी प्रक्रिया से पूरी होती है. पहले चुनाव कार्यक्रम तय होता है. फिर उस कार्यक्रम का एलान किया जाता है. देश के अलग-अलग हिस्सों में अलग-अलग चरणों के लिए नामांकन से लेकर मतदान से जुड़ी तमाम तैयारियों में चुनाव आयोग का फ़ैसला अंतिम होता है. कर्मचारियों से लेकर सुरक्षा बलों की तैनाती का फ़ैसला भी चुनाव आयोग करता है. वर्तमान में चुनाव आयोग में केवल मुख्य चुनाव आयुक्त बचे हैं और लोक सभा चुनाव की तारीख़ों का एलान होना है.


अगर जल्द ही दो चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति नहीं होती है, तो फिर तीन दशक पहले जिस मक़्सद से आयोग को तीन सदस्यीय बनाया गया था, वो इस बार पूरा नहीं हो पाएगा. अगर इस बार चुनाव कार्यक्रम का एलान मुख्य चुनाव आयुक्त ही करते हैं, तो यह स्पष्ट है कि सारे फ़ैसले उनके द्वारा ही लिया जाएगा. ऐसे में फ़ैसलों में 'चेक एंड बैलेंस' की गुंजाइश ख़त्म हो जाएगी. चुनाव कार्यक्रम के एलान के बाद भी अगर अन्य चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति कर दी जाती है, तब भी 18वीं लोक सभा चुनाव के लिए कार्यक्रम तय करने में निष्पक्षता का पहलू हमेशा ही संदेह के घेरे में रहेगा.


अरुण गोयल का इस्तीफ़ा और अटकलें


जिस तरह से अरुण गोयल ने अचानक इस्तीफ़ा दिया, उसको लेकर कई तरह की बातें सामने आ रही हैं, जिनमें अटकलें भी शामिल हैं. 5 मार्च से 9 मार्च के बीच ऐसा क्या हुआ. चुनावी तैयारियों का जाइज़ा लेने के लिए बतौर चुनाव आयुक्त अरुण गोयल पश्चिम बंगाल के दौरे पर थे.  चुनाव आयोग के प्रेस कॉन्फ्रेंस में शामिल हुए बिना वे 5 मार्च को अचानक सेहत का हवाला देते हुए कोलकाता से दिल्ली लौट आते हैं. अरुण गोयल 7 मार्च को चुनाव तैयारियों की निगरानी के लिए आयोग की बैठकों में हिस्सा लेते हैं. अगले दिन 8 मार्च को वे राष्ट्रपति को इस्तीफ़ा भेज देते हैं और 9 मार्च को इस्तीफ़ा स्वीकार भी हो जाता है. कहा ये भी जा रहा है कि अरुण गोयल ने राष्ट्रपति के पास इस्तीफ़ा भेजने के फ़ैसले से मुख्य चुनाव आयुक्त राजीव कुमार को भी अवगत नहीं कराया था.


सीईसी और मोदी सरकार से मतभेद का पहलू!


इन चार-पाँच दिनों में ऐसा क्या होता है कि जो शख़्स भविष्य में मुख्य चुनाव आयुक्त बन सकता था, वो अचानक ही पद छोड़ देता है. ऐसे  में मुख्य चुनाव आयुक्त राजीव कुमार से अरुण गोयल की तल्ख़ी को लेकर अटकलें लगाना स्वाभाविक है. सवाल उठता है कि अरुण गोयल ने किसी बात से नाराज़ होकर तो पद छोड़ने का फ़ैसला नहीं किया है. राजीव कुमार एक सितंबर, 2020 से बतौर चुनाव आयुक्त काम कर रहे थे. सुशील चंद्रा के सेवानिवृत्त होने के बाद राजीव कुमार 15 मई 2022 से मुख्य चुनाव आयुक्त की ज़िम्मेदारी संभाल रहे हैं. अरुण गोयल भी 15 महीने से चुनाव आयुक्त की ज़िम्मेदारी संभाल रहे थे. पिछले दिनों से दोनों के बीच कुछ मसलों पर मनमुटाव को लेकर सुगबुगाहट थी. कहा जा रहा है कि अरुण गोयल का इस्तीफ़ा आयोग के बाक़ी अधिकारियों और कर्मचारियों के लिए आश्चर्यचकित करने वाला फ़ैसला था.


अशोक लवासा ने भी 2020 में दिया था इस्तीफ़ा


यह पहली बार नहीं है कि किसी चुनाव आयुक्त ने अपने कार्यकाल से पहले इस्तीफ़ा दिया है. इससे पहले अशोक लवासा ने अगस्त 2020 में चुनाव आयुक्त के पद से त्यागपत्र दे दिया था. उस वक़्त अशोक लवासा ने निर्वाचन आयोग द्वारा पिछले लोकसभा चुनाव या'नी में 2019 के आम चुनाव में आचार संहिता उल्लंघन संबंधी निर्णयों पर असहमति जताते हुए यह क़दम उठाया था. अरुण गोयल के मामले में भी मुख्य निर्चावन आयुक्त के साथ ही मोदी सरकार के साथ मतभेद होने को लेकर आशंकाएं जताई जा रही हैं.


क्या आयोग की विश्वसनीयता ख़तरे में है?


लोक सभा चुनाव के मद्द-ए-नज़र अरुण गोयल के इस्तीफ़े से जितने भी सवाल उठ रहे हैं, उससे आयोग की विश्वसनीयता ख़तरे में है. मुख्य चुनाव आयुक्त होने के नाते राजीव कुमार को इस मामले में देश के लोगों के आश्वस्त करना चाहिए. पिछले कुछ वर्षों में चुनाव आयोग पर ऐसे भी कार्यपालिका या'नी सरकार के पक्ष में काम करने का आरोप लगते रहा है. ईवीएम को लेकर भी विपक्ष के साथ ही देश में नागरिकों का एक बड़ा तबक़ा संशय में है. नये क़ानून से भविष्य में चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति में सरकार की ओर से मनमानेपन का भी आरोप निरंतर लग रहा है. ऐसे में सरकार का मुखिया होने के नाते प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को भी देशवासियों को इस मसले पर आश्वस्त करने की ज़रूरत है.


संसदीय व्यवस्था में चुनाव आयोग का महत्व


भारत एक संपूर्ण प्रभुत्व-संपन्न समाजवादी, पंथनिरपेक्ष लोकतांत्रिक गणराज्य है. इसके तहत ही संसद और राज्य विधान मंडलों में देश के नागरिकों का प्रतिनिधित्व सुनिश्चित होता है. लोकतंत्र हमारे संविधान की अविभाज्य बुनियादी विशेषताओं में से एक है. यह संविधान की मूल संरचना का हिस्सा है. लोकतांत्रिक व्यवस्था के तहत संविधान के माध्यम से हमारे देश में सरकार का संसदीय स्वरूप अपनाया गया. लोकतंत्र की अवधारणा को धरातल पर उतारने के लिए संविधान में चुनाव की व्यवस्था की गयी है. चुनाव से संबंधित इस व्यवस्था को निष्पक्ष और स्वतंत्र रखने की ज़िम्मेदारी चुनाव आयोग को दी गयी है.


इस आयोग की वज्ह से ही चुनावी प्रक्रिया में निष्पक्षता और स्वतंत्रता को लेकर देश के आम लोगों का भरोसा बना रहता है. यह भरोसा लोकतंत्र की सफलता और मज़बूती दोनों के लिए बेहद महत्वपूर्ण और प्रासंगिक भी है.


चुनाव प्रक्रिया हमेशा हो निष्पक्ष और स्वतंत्र


चुनाव आयोग की निष्पक्षता और स्वतंत्रता...चुनाव प्रक्रिया के निष्पक्ष और स्वतंत्र होने की पहली शर्त है. इस पर ही चुनाव और उससे जुड़ी हर प्रकार की पारदर्शिता टिकी होती है. आदर्श आचार संहिता का सभी राजनीतिक दल और उनके नेता समान रूप में पालन करें. इस तरह की गुंजाइश बिल्कुल नहीं होनी चाहिए कि चुनाव आयोग किसी का पक्ष ले रहा है. सत्ताधारी दल के नेताओं को आचार संहिता पालन करने के मामले में छूट मिले और विपक्ष के नेताओं पर सख़्ती बरता जाए, इस तरह का नैरेटिव सार्वजनिक तौर से नहीं बनना चाहिए और न ही दिखना चाहिए. इसे सुनिश्चित करने की ज़िम्मेदारी चुनाव आयोग की है.


निर्वाचन आयोग एक संवैधानिक संस्था है


लोकतंत्र को मज़बूत करने के लिहाज़ से चुनाव आयोग के महत्व को देखते हुए ही संविधान निर्माताओं ने इसे एक संवैधानिक संस्था बनाया. चुनाव निष्पक्ष और स्वतंत्र तरीक़े से हो, इसके लिए संविधान के भाग 15 में अनुच्छेद 324 से लेकर अनुच्छेद 329 तक निर्वाचन आयोग से जुड़े प्रावधान किए गए. संवैधानिक संस्था के तौर अनुच्छेद 324 (1) में चुनाव आयोग की व्यवस्था की गयी.  राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति, लोक सभा, राज्य सभा के साथ ही राज्य विधानमंडलों के लिए चुनाव कराने का ज़िम्मा चुनाव आयोग को सौंपा गया. इन चुनावों के संचालन, निर्देशन और नियंत्रण की ज़िम्मेदारी चुनाव आयोग के पास है. ज़िम्मेदारियों के मद्द-ए-नज़र संविधान में जितने भी निकाय या संस्था का प्रावधान किया गया है, उनमें चुनाव आयोग सबसे महत्वपूर्ण निकायों में से एक है.


राजनीतिक तंत्र में संवैधानिक प्रहरी है आयोग


चुनाव आयोग के पास प्रशासनिक, सलाहकारी और अर्ध-न्यायिक शक्ति है. परिसीमन आयोग अधिनियम के आधार पर चुनाव आयोग ही पूरे देश में निर्वाचन क्षेत्रों का निर्धारण करता है. निर्वाचक नामावली या'नी मतदाता सूची तैयार करता है.इस सूची में नये मतदाताओं को जोड़ता है. राजनीतिक दलों को मान्यता देने के साथ ही चुनाव चिह्न आवंटित करता है. मान्यता या चुनाव चिह्न के मामले में विवादों का निपटारा करता है. राष्ट्रीय और राज्यस्तरीय दल का दर्जा देता है. संसद सदस्यों की निरर्हता से संबंधित मामलों में राष्ट्रपति को सलाह देता है. दोषमुक्त, पारदर्शी और स्वतंत्र चुनाव कराने की पूरी ज़िम्मेदारी चुनाव आयोग के पास ही है. ज़िम्मेदारियों को देखते हुए कहा जा सकता है कि चुनाव आयोग हमारे देश के राजनीतिक तंत्र में संवैधानिक प्रहरी है.


कार्यपालिका के दबाव से मुक्त रहना ज़रूरी


कार्यपालिका के दबाव से मुक्त रखने के लिए चुनाव आयोग को संवैधानिक संस्था बनाया गया था. नियुक्ति से लेकर आयुक्तों की संख्या निर्धारण से जुड़े पहलू को भी संविधान में शामिल किया गया. आयोग में मुख्य निर्चावन आयुक्त के साथ कितने और आयुक्त होंगे, इसके लिए अनुच्छेद 324 (2) में प्रावधान है. निर्वाचन आयुक्तों की नियुक्ति संवैधानिक तौर से राष्ट्रपति करते हैं. लेकिन व्यवहार में चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति का अधिकार हमेशा ही सरकार के हाथ में रहा है. अनुच्छेद 324 (2) में ही अपेक्षा की गयी थी कि मुख्य निवार्चन आयुक्त और अन्य निर्वाचन आयुक्तों की नियुक्ति के लिए संसद से क़ानून बनेगा.


चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति को लेकर विवाद


हालाँकि 2023 से पहले ऐसा क़ानून नहीं बन पाया. नए क़ानून से पहले चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति कार्यपालिका से निर्धारित नियमों के आधार पर होती रही थी. मोदी सरकार को 2023 में क़ानून बनाना पड़ा. संविधान लागू होने के 72-73 साल बाद ही यह संभव हो पाया. यह बेहद हैरान करने वाला पहलू है कि चुनाव आयोग जैसी महत्वपूर्ण संवैधानिक संस्था के लिए ऐसा क़ानून अब तक संसद से नहीं बना था.


मोदी सरकार को सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले के बाद मज़बूरी में क़ानून बनाना पड़ा. जस्टिस के एम जोसेफ की अध्यक्षता वाली पांच जजों की संविधान पीठ 2 मार्च, 2023 को एक ऐतिहासिक फ़ैसला सुनाती है. उसमें सुप्रीम कोर्ट आदेश देती है कि संसद से क़ानून बनाए जाने तक एक चयन समिति की सिफ़ारिशों के आधार पर चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति होगी. इसके तहत केंद्र सरकार को मुख्य चुनाव आयुक्त और बाकी आयुक्तों की नियुक्ति के लिए एक सिलेक्शन कमेटी बनाना था. उस कमेटी में 3 सदस्य होते. सुप्रीम कोर्ट के आदेश के मुताबिक़ कमेटी में प्रधानमंत्री, लोक सभा में नेता विपक्ष और तीसरे सदस्य के तौर पर चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया को सदस्य के तौर पर शामिल करना था.


चुनाव आयोग की निष्पक्षता और स्वतंत्रता को सुनिश्चित करने की दृष्टि से सुप्रीम कोर्ट का यह फ़ैसला मील का पत्थर था. इसके ज़रिये यह सुनिश्चित हो जा रहा था कि सिलेक्शन कमेटी में सरकारी नुमाइंदों का बहुमत नहीं होगा. मुख्य चुनाव आयुक्त और बाक़ी दो चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति में कार्यपालिका या'नी सरकार की ओर से मनमानापन की गुंजाइश  ख़त्म हो जाएगी. हालाँकि मोदी सरकार को सिलेक्शन कमेटी की यह व्यवस्था पसंद नहीं आयी.


मोदी सरकार को न्यायपालिका का दख़्ल पसंद नहीं


चुनाव आयुक्तों में न्यायपालिका के हस्तक्षेप को ख़त्म करने के लिए मोदी सरकार ''मुख्य निर्वाचन आयुक्त और अन्य निर्वाचन आयुक्त (नियुक्ति, सेवा शर्तें और पदावधि) विधेयक, 2023" लेकर आती है. यह विधेयक 12 दिसंबर को राज्य सभा और 21 दिसंबर, 2023 को लोक सभा से पारित हो जाता है. इसके साथ ही चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति प्रक्रिया के लिए पहली बार देश को संसद से पारित एक क़ानून मिल जाता है. इस क़ानून में सिलेक्शन कमेटी की व्यवस्था है. कमेटी के सदस्य भी तीन ही हैं, लेकिन चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया को सदस्य नहीं रखा जाता है. नया क़ानून के तहत सिलेक्शन कमेटी में प्रधानमंत्री और लोक सभा में नेता विपक्ष हैं और तीसरे सदस्य के तौर पर प्रधानमंत्री द्वारा नामित किए जाने वाले एक कैबिनेट मंत्री को रखा गया है.


चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति में सरकारी नियंत्रण


नया क़ानून के तहत मुख्य चुनाव आयुक्त और चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति प्रक्रिया में सबसे पहले केंद्रीय विधि और न्याय मंत्री की अध्यक्षता में दो केंद्रीय सचिवों वाली एक सर्च यानी खोज समिति पाँच नामों का चयन करेगी. फिर प्रधानमंत्री की अध्यक्षता वाली तीन सदस्यीय सिलेक्शन या'नी चयन समिति अंतिम फ़ैसला करेगी. हालाँकि नये क़ानून में  इस चयन समिति को ख़ोज समिति के सुझाए नामों से बाहर जाकर भी फ़ैसला लेने की छूट दी गयी है.


चुनाव आयोग पर कार्यपालिका का दबाव


इस तरह से नये क़ानून से यह व्यवस्था बना दी गयी कि सिलेक्शन कमेटी में सरकारी नुमाइंदों का ही बहुमत हो. कमेटी में तीन में से दो सदस्य सरकार की तरफ़ से होंगे. ऐसे में लोक सभा में नेता विपक्ष की भूमिका बस मौजूदगी तक ही सीमित हो जाती है. नियुक्ति से संबंधित अंतिम फ़ैसले में नेता विपक्ष बस मूकदर्शक बनकर रह गए. इस तरह से नए क़ानून से चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति में सरकार की मनमर्ज़ी सुनिश्चित हो गयी. चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति प्रक्रिया को निष्पक्ष बनाए रखने और कार्यपालिका के दबाव से चुनाव आयोग को बचाकर रखने के सुप्रीम कोर्ट के प्रयास को मोदी सरकार ने नए क़ानून से नीस्त-नाबूद या'नी जड़ से नष्ट कर दिया. अब नियुक्ति में कार्यपालिका या'नी सरकार का ही नियंत्रण रहेगा.


इस क़ानून से चुनाव आयोग की निष्पक्षता अब हमेशा ही कटघरे में रहेगी क्योंकि मुख्य चुनाव आयुक्त और अन्य दो चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति को लेकर हमेशा ही सवाल उठते रहेंगे. ईवीएम में गड़बड़ी के आरोपों का सामना कर रहे चुनाव आयोग की विश्वसनीयता के लिए दिसबंर, 2023 में बना नया क़ानून नये सवाल और शंका को लेकर आया. अब अरुण गोयल के अचानक इस्तीफ़े के क़दम से चुनाव आयोग पर देशवासियों के भरोसे से जुड़े संकट में नया आयाम जुड़ गया है. न्यायपालिका के साथ ही चुनाव आयोग कुछ वैसी आख़िरी संवैधानिक संस्था है, जिनसे लोकतंत्र की रक्षा को लेकर देशवासियों की सबसे ज़ियादा उम्मीदें जुड़ी होती हैं.


निष्पक्षता पर बार-बार सवाल चिंता का विषय


चुनाव आयोग की निष्पक्षता पर बार-बार सवाल उठना बेहद चिंता का विषय है. पहले भी ऐसा होते रहा है, लेकिन मोदी सरकार के लगातार दो कार्यकाल में इस तरह के सवाल और आरोपों में इज़ाफ़ा देखा गया है.संविधान में चुनाव आयोग की संकल्पना एक स्वायत्त संस्था के तौर पर की गयी है. चुनाव के लिए स्वायत्त प्रहरी के तौर पर की गयी है.


मोदी सरकार में बार-बार यह आरोप लगता है कि आयोग सरकार और बीजेपी की विस्तारित शाखा के तौर पर काम करता है. ऐसा नहीं है कि सिर्फ़ विपक्षी दल और उनके नेता या कार्यकर्ता ही ऐसे सवाल उठाते हैं या आरोप लगाते हैं. आम लोगों के बीच भी एक बड़ा तबक़ा है, जिनके मन में इस तरह की शंका बनी हुई है. पिछले एक दशक में चाहे विपक्षी दलों में टूट के बाद फ़ैसला लेने का मुद्दा हो या फिर विपक्षी नेताओं पर किसी न किसी बहाने सख़्ती बरतने का मसला हो, हर बार चुनाव आयोग के निर्णयों पर तमाम तरह के सवाल उठते रहे हैं. वोटर वेरिफाएबल पेपर ऑडिट ट्रेल या'नी वीवीपैट के मुद्दे पर विपक्षी दलों के नेता 8 महीने से निर्वाचन आयोग से मिलना चाह रहे हैं, लेकिन आयोग मिलने से इंकार कर रहा है. चुनाव आयोग पर बार-बार आरोप लगता रहा है कि यह सरकार और सत्ताधारी दलों के दबाव और पक्ष में काम करता है या फ़ैसले लेता है.


चुनाव आयोग पर देशवासियों का भरोसा बना रहे


चुनाव आयोग पर देशवासियों का भरोसा बना रहे, मतदाताओं के मन में निष्पक्ष चुनाव को लेकर कोई शंका न हो, यह बेहद संवेदनशील और महत्वपूर्ण पहलू है. चुनाव आयोग कार्यकारी संस्था या निकाय नहीं है. इसका गठन संविधान में ही निहित है. इस लिहाज़ से भी यह सुनिश्चित होना चाहिए कि इसलिए ये जरूरी हो जाता है कि चुनाव आयोग की विश्वसनीयता पर कोई आँच नहीं आए.


जनता के बीच ऐसा संदेश जाना चाहिए कि चुनाव आयोग निष्पक्ष तरीक़े से काम कर रहा है. चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति में सरकार निरंकुश तरीक़े से काम नहीं कर रही है. चाहे चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति हो या फिर चुनाव आयोग का काम-काज हो, उसमें सरकारी स्तर पर हस्तक्षेप या गड़बड़ी की गुंजाइश नहीं होनी चाहिए. जनता के बीच शक-ओ-शुब्हा की स्थिति भी नहीं होनी चाहिए. सरकार के साथ ही चुनाव आयोग को भी इस दिशा में क़दम उठाने की ज़रूरत है. साथ ही इस संदर्भ में ज़रूरत पड़ने पर न्यायपालिका की भूमिका भी बेहद महत्वपूर्ण है.


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