संसद का विशेष सत्र चल रहा है. यह विशेष सत्र 18 सितंबर को शुरू हुआ और 22 सितंबर तक चलेगा. एक ख़ास पहलू की वजह से संसद का यह विशेष सत्र  ऐतिहासिक साबित हो सकता है. वो ख़ास पहलू भारत के निर्वाचन आयोग से जुड़ा है. अगर मुख्य चुनाव आयुक्त और अन्य चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति प्रक्रिया से जुड़े विधेयक को इस सत्र में संसद से मंजूरी मिल जाती है, तो संविधान लागू होने के 73 साल बाद भी जो संसद से नहीं हो पाया था, वो इस विशेष सत्र के जरिए हो जाएगा.


विधेयक के प्रावधानों पर पूर्व सीईसी की आपत्ति


हालांकि इस बीच ख़बर आ रही है कि केंद्र सरकार संसद के पांच दिनों के इस सत्र में मुख्य निर्वाचन आयुक्त और अन्य चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति से जुड़े विधेयक को पारित नहीं कराने पर भी विचार कर रही है. विपक्ष के साथ ही कई पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्तों की ओर से गंभीर आपत्ति के बाद सरकार इस विधेयक को कुछ वक़्त के लिए टाल सकती है. एन. गोपालस्वामी, वीएस संपत और एस.वाई. कुरैशी समेत कुछ पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्तों ने 16 सितंबर को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को इस बाबत चिट्ठी लिखी थी. उसमें सीईसी और ईसी को कैबिनेट सचिव के बराबर दर्जा देने के प्रावधान का विरोध किया गया था. फिलहाल चुनाव आयुक्तों को सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश के समान ही दर्जा हासिल है. इस व्यवस्था से माना जाता है कि जिस तरह न्यायपालिका स्वतंत्र है, उसी तरह चुनाव आयोग भी स्वतंत्र है.


चुनाव आयोग की स्वायत्तता को लेकर चिंता


संसद सत्र की पूर्व संध्या पर 17 सितंबर को सरकार ने सर्वदलीय बैठक बुलाई थी. इसमें भी विपक्षी दलों के नेताओं ने विधेयक के कुछ प्रावधानों का विरोध किया था. हो सकता है कि इस सत्र के लिए सरकार विधेयक को टाल दे और विधेयक को कानून और न्याय से संबंधित संसदीय स्थायी समिति के पास विचार के लिए भेज दे. संवैधानिक संस्था चुनाव आयोग की स्वायत्तता को लेकर अलग-अलग तबक़े से चिंता सामने आ रही है. 


चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति प्रक्रिया


मुख्य निर्वाचन आयुक्त और चुनाव आयुक्तों की नियुक्त को लेकर संसद से अब तक कोई क़ानून नहीं बना था, जिस तरह के क़ानून की अपेक्षा संविधान के अनुच्छेद 324 (2) के तहत की गई थी. इस साल अगस्त में समाप्त हुए संसद के मानसून सत्र में भारत सरकार ने इस दिशा में पहल की. नरेंद्र मोदी सरकार की ओर से 10 अगस्त को राज्य सभा में ''मुख्य चुनाव आयुक्त और अन्य चुनाव आयुक्त (नियुक्ति, सेवा की शर्तें और पदावधि) विधेयक, 2023'' पेश किया गया. अब इस विशेष सत्र में उम्मीद की जा रही थी कि संसद के दोनों सदनों से इस विधेयक को मंजूरी मिल जाएगी और फिर राष्ट्रपति के हस्ताक्षर के बाद यह विधेयक क़ानून का रूप ले लेगा. इस क़ानून से मुख्य चुनाव आयुक्त समेत बाकी चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति के लिए क्या प्रक्रिया रहेगी, उनकी सेवा शर्तें क्या होगी, उनके पदों की अवधि क्या होगी..ये सारी बातें तय होंगी.


क्या नया क़ानून है सरकार की मजबूरी?


विधेयक मुख्य चुनाव आयुक्त और अन्य चुनाव आयुक्त की नियुक्ति से जुड़ा है. जो काम पिछले 73 साल में संसद से नहीं हुआ, वो अब करने की ज़रूरत भारत सरकार को क्यों पड़ी, उसे समझने के लिए जानना ज़रूरी है कि मुख्य चुनाव आयुक्त और अन्य चुनाव आयुक्त की नियुक्ति को लेकर इस साल 2 मार्च को सुप्रीम कोर्ट की ओर से एक ऐतिहासिक फ़ैसला सुनाया गया था. उस फ़ैसले के बाद केंद्र सरकार के लिए नया क़ानून बनाना लाज़िमी हो गया है, अनिवार्य हो गया है.अगर केंद्र सरकार ऐसा नहीं करती, तो भविष्य में मुख्य चुनाव आयुक्त और अन्य चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति में वहीं प्रक्रिया अपनानी पड़ती, जिस प्रक्रिया को सुप्रीम कोर्ट ने इस साल मार्च के अपने फै़सले में निर्धारित किया था.



सुप्रीम कोर्ट के आदेश से बदले हालात


मुख्य चुनाव आयुक्त राजीव कुमार का तो कार्यकाल 19 फरवरी 2025 तक है, या'नी उनके सेवानिवृत्त होने में अभी समय है. निकट भविष्य में समस्या बाक़ी दो चुनाव आयुक्तों में से एक अनूप चंद्र पाण्डेय के सेवानिवृत्त होने से जुड़ी है. चुनाव आयुक्त के तौर पर अनूप चंद्र पाण्डेय का कार्यकाल अगले साल 15 फरवरी, 2024 को समाप्त हो रहा है. ऐसे में उनकी जगह कौन लेगा, अगर नया क़ानून नहीं बनता है, तो ये तय करने के लिए केंद्र सरकार को वहीं प्रक्रियाअपनानी पड़ेगी जो सुप्रीम कोर्ट ने निर्धारित किया है.


संसद से क़ानून बनाना हुआ ज़रूरी


इस दिशा में केंद्र सरकार की पहल को लेकर सत्ता पक्ष और विपक्ष के बीच तकरार भी जारी है. इसके साथ ही संविधान और क़ानून के जानकारों के बीच भी इस मसले पर बहस तेज़ हो गई है. विपक्ष इसे चुनाव आयोग जैसी महत्वपूर्ण संवैधानिक संस्था को कमज़ोर करने की कवायद के तौर पर देख रहा है और उसी के आधार पर नरेंद्र मोदी सरकार पर निरंकुश तरीके से काम करने का आरोप लगा रहा है. दूसरी तरफ सरकार ऐसे आरोपों से इनकार कर रही है. सरकार की ओर से कहा जा रहा है कि सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले के बाद संसद से क़ानून बनाना ज़रूरी हो गया है.


न्यायपालिका के हस्तक्षेप से जुड़ा मामला


विवाद से जुड़े मसले को समझने के लिए सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले से जुड़े एक पहलू पर ग़ौर करने की ज़रूरत है. सरकार जिस रूप में क़ानून बनाना चाहती है, जो विधेयक का प्रारूप है, उसमें सुप्रीम कोर्ट के आदेश के एक महत्वपूर्ण प्रावधान को नज़र-अंदाज़ किया गया है. मौजूदा विधेयक में चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति के लिए जो सिलेक्शन कमेटी या चयन समिति का ढांचा है, वो सुप्रीम कोर्ट के आदेश में जिस तरह के सिलेक्शन कमेटी के बारे में कहा गया था, उससे मेल नहीं खाता है.


मार्च में आया था सुप्रीम कोर्ट का फ़ैसला


सुप्रीम कोर्ट ने दो मार्च 2023 को ऐतिहासिक फ़ैसला सुनाया था. 378 पन्ने के ऐतिहासिक फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने मुख्य चुनाव आयुक्त और बाकी आयुक्तों की नियुक्ति के लिए एक सिलेक्शन कमेटी बनाने का आदेश दिया था.उस कमेटी में 3 सदस्य की व्यवस्था थी. कमेटी में प्रधानमंत्री, लोक सभा में नेता विपक्ष और तीसरे सदस्य के तौर पर चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया को सदस्य के तौर पर शामिल करना था.


सरकार को न्यायपालिका का दख़ल पसंद नहीं!


सुप्रीम कोर्ट की इस व्यवस्था से चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति में न्यायपालिका की भी महत्वपूर्ण भूमिका हमेशा के लिए तय हो जाती. सरकार जो नया क़ानून चाहती है, उसमें चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति में न्यायपालिका की इस भूमिका को पूरी तरह से ख़त्म कर देना चाहती है.


सिलेक्शन कमेटी में सरकार बहुमत में


सरकार के विधेयक के सेक्शन 7 में सिलेक्शन कमेटी का प्रावधान है. सरकार ने भी तीन सदस्यीय सिलेक्शन कमेटी की ही व्यवस्था की है. हालाँकि सरकार ने इस कमेटी में बतौर सदस्य चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया को शामिल नहीं किया है. विधेयक में प्रस्तावित समिति में प्रधानमंत्री हैं, लोक सभा में विपक्ष के नेता हैं और तीसरे सदस्य के तौर पर एक केंद्रीय कैबिनेट मंत्री को शामिल किया गया है. इस कैबिनेट मंत्री को प्रधानमंत्री मनोनीत करेंगे. विधेयक में यह भी स्पष्ट किया गया है कि नेता विपक्ष के तौर पर अगर लोक सभा में किसी को मान्यता नहीं मिली हुई है, तो विपक्ष की सबसे बड़ी पार्टी के नेता को कमेटी का सदस्य बनाया जाएगा.


तीसरे सदस्य को लेकर है पूरा विवाद


विवाद और विरोधाभास सिलेक्शन कमेटी में तीसरे सदस्य को लेकर है. संसद से क़ानून बनने के बाद ये तय है कि चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया सिलेक्शन कमेटी में नहीं होंगे. उनकी जगह एक केंद्रीय कैबिनेट मंत्री कमेटी का हिस्सा होंगे.


कमेटी में कोई भी फै़सला बहुमत के आधार पर होगा. इस कारण से नए क़ानून से मुख्य निर्वाचन आयुक्त और बाकी दो निर्वाचन आयुक्तों की नियुक्ति में कार्यपालिका यानी सरकार की भूमिका ही सर्वोपरि हो जाएगी. कमेटी में तीन में दो सदस्य कार्यपालिका यानी सरकार से होंगे. इससे स्पष्ट है कि सरकार जिन नामों पर सहमत होगी, उनका चुनाव आयुक्त बनना तय है. नए क़ानून के माध्यम से चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति में न्यायपालिका की भूमिका या हस्तक्षेप की कोई गुंजाइश नहीं रह जाएगी. विवाद का सबसे महत्वपूर्ण पहलू यही है.


सिलेक्शन कमेटी पर कोई बाध्यता नहीं


जो विधेयक है, उसके सेक्शन 6 में तीन सदस्यीय सर्च कमेटी या'नी खोज समिति का भी प्रावधान किया गया है. इस सर्च कमेटी के अध्यक्ष कैबिनेट सचिव होंग. बाक़ी के दो सदस्य ऐसे होंगे, जिन्हें चुनाव से संबंधित मामलों का ज्ञान और अनुभव होगा. ये दोनों सदस्य भारत सरकार के सचिव स्तर से नीचे के नहीं होंगे. सर्च कमेटी का काम होगा कि वो 5 व्यक्तियों का पैनल तैयार करेगी. ये वो 5 नाम होंगे जिन पर सिलेक्शन कमेटी विचार करेगी.


सुझाए पैनल से अलग नाम पर भी विचार


ऐसा नहीं है कि इन्हीं 5 नाम में से किसी को मुख्य चुनाव आयुक्त या अन्य चुनाव आयुक्त नियुक्त करने के लिए सिलेक्शन कमेटी बाध्य होगी. नए विधेयक के सेक्शन 8 (2) में स्पष्ट किया गया है कि सिलेक्शन कमेटी, सर्च कमेटी की ओर से पैनल में शामिल व्यक्तियों के अलावा भी दूसरे नाम पर विचार कर सकती है. चुनाव आयुक्तों की नियु्क्ति के लिए बनने जा रहे क़ानून में यह प्रावधान भी बेहद महत्वपूर्ण हो जाता है. एक तरह से हम कह सकते हैं कि  सेक्शन 8 (2) के जरिए प्रधानमंत्री, नेता विपक्ष और एक कैबिनेट मंत्री वाले सिलेक्शन कमेटी के ऊपर कोई बाध्यता नहीं रह जा रही है. चुनाव आयोग की निष्पक्षता और स्वतंत्रता के लिहाज़ इस पहलू पर ग़ौर करने की ज्यादा ज़रूरत है, जिस पर कम लोगों का ध्यान गया है.


चुनाव आयोग एक संवैधानिक संस्था है


मुख्य चुनाव आयुक्त और अन्य चुनाव आयुक्त की नियुक्ति से जुड़े मसले को बेहतर तरीक़े से समझने के लिए संवैधानिक पहलुओं पर ग़ौर करने की दरकार है. हमारे संविधान में निर्वाचन आयोग या चुनाव आयोग को बेहद महत्वपूर्ण संस्था माना गया है. सबसे पहले तो यह समझना होगा कि चुनाव आयोग एक संवैधानिक संस्था है, न कि संसद से पारित क़ानून से बनी संस्था या सरकारी आदेश से बनी संस्था. इस साल दो मार्च को सुप्रीम कोर्ट से जो आदेश आया था, उसके तार इस पहलू से ही जुड़े हुए हैं.


संविधान के भाग 15 में निर्वाचन आयोग


लोकतंत्र के तहत संसदीय व्यवस्था में चुनाव निष्पक्ष और स्वतंत्र तरीक़े से हो, इसके लिए संविधान के भाग 15 में अनुच्छेद 324 से लेकर अनुच्छेद 329 तक निर्वाचन आयोग से जुड़े प्रावधान हैं. अनुच्छेद 324 (1) में निर्वाचन आयोग यानी चुनाव आयोग की व्यवस्था है. चुनाव आयोग के पास लोक सभा, राज्य सभा के साथ ही राज्य विधानमंडलों के लिए चुनाव कराने की जिम्मेदारी है. इसी आयोग के पास राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति पद के लिए चुनाव कराने की जिम्मेदारी भी है. चुनाव आयोग को संविधान के तहत जो ज़िम्मेदारी सौंपी गई है, उस लिहाज़ से संविधान में जितने भी निकाय या संस्था का प्रावधान किया गया है, उनमें चुनाव आयोग सबसे महत्वपूर्ण निकाय में से एक है.


पहले सिर्फ़ मुख्य चुनाव आयुक्त की व्यवस्था


अनुच्छेद 324 (2) इस आयोग में मुख्य निर्चावन आयुक्त के साथ कितने और आयुक्त होंगे, इसके निर्धारण के लिए प्रावधान है. निर्वाचन आयुक्तों की नियुक्ति संवैधानिक तौर से राष्ट्रपति करते हैं. अभी भी सिलेक्शन कमेटी की सिफारिशों के आधार पर नियुक्ति राष्ट्रपति के नाम पर ही होगी. 15 अक्टूबर 1989 तक निर्वाचन आयोग एक सदस्यीय संवैधानिक निकाय था. उस वक़्त तक सिर्फ़ मुख्य चुनाव आयुक्त होते थे. 16 अक्टूबर 1989 से इस आयोग में मुख्य चुनाव आयुक्त के साथ ही दो और चुनाव आयुक्तों की व्यवस्था की गई.  हालांकि 1990 में फिर से आयोग को एक सदस्यीय बना दिया गया और अन्य दो चुनाव आयुक्तों की व्यवस्था समाप्त कर दी गई. फिर अक्टूबर 1993 में मुख्य चुनाव आयुक्त के साथ अन्य दो चुनाव आयुक्तों की व्यवस्था को बहाल कर दिया गया. तब से यही व्यवस्था बनी हुई है.


अब तक सिलेक्शन कमेटी की व्यवस्था नहीं


नियुक्ति का संवैधानिक अधिकार राष्ट्रपति को है और इसके लिए पहले कोई सिलेक्शन कमेटी की व्यवस्था नहीं थी. सर्च कमेटी नामों की सूची तैयार करके देती थी और उस सूची से सरकार चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति करते रही है. इस सर्च कमेटी के सदस्य कार्यकारी का ही हिस्सा माने जाने वाले अधिकारी होते थे. इस नजरिए से ग़ौर करें तो अब तक अति महत्वपूर्ण संवैधानिक संस्था चुनाव आयोग के आयुक्तों की नियुक्ति में सरकार की इच्छा ही सब कुछ थी.


नियुक्ति में सरकारी मनमानी की गुंजाइश


चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति में सरकारी मनमानी समाप्त हो और चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति के लिए एक ऐसा सिस्टम हो, जिससे चुनाव आयोग की निष्पक्षता और स्वतंत्रता पर कोई सवाल न उठ सके, इसकी माँग के साथ ही इस पर बहस लंबे वक़्त से हो रही थी.इसके लिए अनूप बरनवाल 2015 में सुप्रीम कोर्ट में जनहित याचिका दायर करते हैं. याचिका पर पहले दो सदस्यीय पीठ सुनवाई करती है. बाद में मामला पांच सदस्यीय संविधान पीठ को सौंप दिया जाता है. बाद में इस मामले में कई और याचिकाएं भी जुड़ती जाती हैं. अंत में दो मार्च 2023 को जस्टिस के एम जोसेफ की अध्यक्षता वाली पांच जजों की संविधान पीठ का ऐतिहासिक निर्णय आता है. उसमें सुप्रीम कोर्ट आदेश देती है कि संसद से क़ानून बनाए जाने तक एक सेलेक्शन कमेटी की सिफारिशों के आधार पर चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति होगी.


निष्पक्षता और स्वतंत्रता का पहलू महत्वपूर्ण


सुप्रीम कोर्ट ने अपने आदेश को दो पहलुओं पर आधारित रखा था. पहला, चुनाव आयोग एक संवैधानिक संस्था है और दूसर, चुनाव आयोग की निष्पक्षता और स्वतंत्रता से कोई समझौता नहीं किया जा सकता. सुप्रीम कोर्ट ने इसे देश में स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव कराने के लिए बेहद महत्वपूर्ण माना था. इसे सुनिश्चित करने के मकसद से ही सुप्रीम कोर्ट ने संसद से क़ाननू बनने तक केंद्र सरकार को सिलेक्शन कमेटी की व्यवस्था करने का आदेश दिया था.


नियुक्ति के लिए सिलेक्शन कमेटी क्यों नहीं?


सुप्रीम कोर्ट ने अपने आदेश में कुछ महत्वपू्र्ण पहलुओं का जिक्र किया था. सुप्रीम कोर्ट के आदेश में कहा गया था कि सीबीआई एक संवैधानिक संस्था नहीं है, उसके बावजूद उसके डायरेक्टर की नियुक्ति के लिए 3 सदस्यीय कमेटी है. उसी तरह से मुख्य सूचना आयुक्त की नियुक्ति के लिए एक 3 सदस्यीय सिलेक्शन कमेटी है. सेंट्रल विजिलेंस कमेटी के लिए भी एक सेलेक्शन कमेटी है. लोकपाल और लोकायुक्त क़ानून 2013 के तहत लोकपाल की नियुक्ति के लिए भी एक सिलेक्शन कमेटी है. ये सारे आयोग या संस्थान चुनाव आयोग की तरह संवैधानिक संस्था नहीं हैं, फिर भी इनके लिए सिलेक्शन कमेटी है.


नियुक्ति निष्पक्ष और पारदर्शी तरीक़े से हो


अपने आदेश में इन बातों का जिक्र करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने चुनाव आयोग के लिए सिलेक्शन कमेटी के महत्व पर प्रकाश डाला था. हालांकि संविधान लागू होने के बाद से कई सरकार आई और गई. सत्ता पक्ष में अलग-अलग दल आए और गए. उसके बावजूद चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति के लिए निष्पक्ष और पारदर्शी वैधानिक प्रक्रिया सुनिश्चित करने के लिए संसद से कोई क़ानून नहीं बना. इस वजह से जब मामला सुप्रीम कोर्ट में पहुंचा तो एक लंबी सुनवाई के बाद भारत के सर्वोच्च अदालत ने सिलेक्शन कमेटी बनाने का आदेश दिया.


चुनाव आयोग की विश्वसनीयता का सवाल


चुनाव आयोग को लेकर देशवासियों, मतदाताओं का भरोसा बना रहे, ये बेहद महत्वपूर्ण है. ये नहीं भूलना चाहिए कि चुनाव आयोग कोई कार्यकारी संस्था या निकाय नहीं, बल्कि इसका गठन संविधान में ही निहित है. इसलिए ये जरूरी हो जाता है कि इस संस्था को लेकर लोगों का भरोसा बना रहे. मुख्य चुनाव आयुक्त और बाकी आयुक्तों की नियुक्ति प्रक्रिया पारदर्शी हो, उसमें कोई सरकारी स्तर पर मैनिपुलेशन या गड़बड़ी की संभावना न हो. सुप्रीम कोर्ट के आदेश का मकदस सिर्फ़ यही सुनिश्चित करना था. सिलेक्शन कमेटी बनाने का आदेश पूरी तरह से सिर्फ़ और सिर्फ़ चुनाव आयोग की निष्पक्षता और स्वतंत्रता को बरक़रार रखने के आधार पर टिका था.


73 साल बाद भी क़ानून क्यों नहीं?


ये भी सवाल महत्वपूर्ण है कि अगर मार्च में सुप्रीम कोर्ट का आदेश नहीं आता तो क्या मौजूदा केंद्र सरकार इस दिशा में नया कानून बनाने के लिए पहल करती. इसका जवाब सुप्रीम कोर्ट के ही आदेश में छिपा है. सुप्रीम कोर्ट ने अपने आदेश में कहा है कि जब तक संसद संविधान के अनुच्छेद 324 (2) के अनुरूप क़ानून नहीं बनाती है, तब तक चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति उसके आदेश में बताए गए सिलेक्शन कमेटी के आधार पर होगी. अनुच्छेद 324 (2) में जिक्र है कि निर्वाचन आयुक्तों की नियुक्ति संसद द्वारा बनाए गए क़ानून के अधीन रहते हुए राष्ट्रपति द्वारा की जाएगी. हालांकि इसको लेकर कोई क़ानून अब तक बना ही नहीं और ये नियुक्ति कार्यकारी आदेश के जरिए निर्धारित प्रक्रिया के तहत होते रही.


क़ानून बनाने के अलावा कोई विकल्प नहीं


सुप्रीम कोर्ट के मार्च के आदेश के बाद केंद्र सरकार के पास दो ही विकल्प बचे थे. पहला, केंद्र सरकार सुप्रीम कोर्ट के मुताबिक सिलेक्शन कमेटी बनाती और भविष्य में उसी की सिफारिशों पर चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति होते रहती. केंद्र सरकार के पास दूसरा विकल्प ये था कि वो संसद से क़ानून बनाए और नियुक्ति के लिए एक प्रक्रिया उस क़ानून के जरिए सुनिश्चित करे. केंद्र सरकार इसी दूसरे विकल्प के तहत संसद से कानून बनाने की दिशा में आगे बढ़ रही है.


एक बात तो तय है कि सरकार जो क़ानून बनाना चाहती है, उस सिलेक्शन कमेटी में प्रधानमंत्री और एक कैबिनेट मंत्री के होने से इसमें सरकार का बहुमत हो जाता है, जिससे चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति में सरकार की मनमानी की गुंजाइश हमेशा रहेगी. इसी को आधार बनाकर विपक्ष के साथ ही कई संवैधानिक जानकारों का मानना है कि चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति प्रक्रिया में सरकार निरंकुशता की राह पर है. ऐसा होने से संवैधानिक निकाय चुनाव आयोग का महत्व कमतर हो सकता है.


सरकार क़ानून बनाने के लिए स्वतंत्र है


पूरे प्रकरण का एक और भी महत्वपूर्ण पहलू है. सुप्रीम कोर्ट के मार्च में दिए फै़सले के बाद चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति प्रक्रिया को लेकर संसद से क़ानून बनाने का रास्ता खुल गया है. लेकिन हमें ये नहीं भूलना चाहिए कि केंद्रीय स्तर पर क़ानून बनाने की एकमात्र अथॉरिटी देश की संसद है. क़ानून बनाने में संसद की सर्वोच्चता पर कोई शक या संदेह किसी को नहीं है. ऐसे में सरकार उस क़ानून में क्या प्रावधान रखना चाहती है, ये पूरी तरह से सरकार का विशेषाधिकार है.


क़ानून बनाने का अधिकार संसद को है. सरकार उस क़ानून के प्रावधान में क्या रखती है, यह न्यायपालिका के अधिकार क्षेत्र का विषय नहीं है. इस नजरिए से देखें, तो चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति की प्रक्रिया और सिलेक्शन कमेटी को लेकर क्या व्यवस्था होगी, ये तय करने का अधिकार सरकार के पास ही है. इस पहलू से सोचें, तो सुप्रीम कोर्ट ने मार्च में अपने आदेश में सिलेक्शन कमेटी को लेकर जो दिशा निर्देश दिए हैं, हू-ब-हू वही ढांचा रखना सरकार के लिए बाध्यकारी नहीं है.


क़ानून बनने के बाद हो सकती है समीक्षा


हां, यह ज़रूर है कि एक बार संसद से क़ानून बन जाए और अगर उसकी संवैधानिकता को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी जाती है, तब ही सुप्रीम कोर्ट इसमें आगे कुछ कर सकती है. सुप्रीम कोर्ट का काम क़ानून बनाना नहीं है. लेकिन संसद से बने क़ानून में इस बात की पड़ताल करने का अधिकार सुप्रीम कोर्ट को जरूर है कि जो भी क़ानून संसद से पारित हुआ है, उससे संविधान के मूल ढांचा पर तो कोई असर नहीं पड़ रहा हो. सुप्रीम कोर्ट ऐसा होने पर उस क़ानून को असंवैधानिक बताते हुए अवैध भी ठहरा सकती है. अतीत में ऐसा हो भी चुका है. राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग (NJAC)क़ानून. के मामले में ऐसा हो चुका है. संसद से 2014 में पारित इस क़ानून को सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने 16 अक्टूबर 2015 को असंवैधानिक बताते हुए निरस्त कर दिया था.


सरकार चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति प्रक्रिया के लिए जिस रूप में क़ानून बनाना चाह रही है, उसकी संवैधानिकता पर फिलहाल कोई सवाल नहीं उठता है. इतना जरूर है कि सरकार जो प्रक्रिया अपनाना चाहती है, उसके लिहाज़ से चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति में चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया की कोई भूमिका नहीं रह जाएगी.


निष्पक्षता और स्वतंत्रता कैसे होगी सुनिश्चित?


पूरा मुद्दा चुनाव आयोग की निष्पक्षता और स्वतंत्रता से जुड़ा है. भारत में चुनावी प्रक्रिया में गड़बड़ी का मुद्दा काफी पुराना है. हर चुनाव के बाद चुनावी प्रक्रिया में गड़बड़ी या धांधली को लेकर किसी न किसी दल या पक्ष से आरोप लगते रहे हैं. चाहे चुनाव तारीखों का ऐलान हो, या फिर चुनाव में अधिकारियों की तैनाती का मुद्दा हो, या निष्पक्ष चुनाव कराने की जिम्मेदारी हो, निर्वाचन आयोग की इसमें एकमात्र अथॉरिटी है. ऐसे में चुनाव आयोग के साथ ही चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति प्रक्रिया में पारदर्शिता और तटस्थता का पहलू बेहद महत्वपूर्ण हो जाता है.


सिलेक्शन कमेटी में चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया के होने से चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति में सरकारी मनमानी की की गुंजाइश समाप्त हो जाती. नियुक्ति प्रक्रिया ज्यादा पारदर्शी और भरोसेमंद होती. कैबिनेट मंत्री की बजाय अगर इस सिलेक्शन कमेटी में कोई और सदस्य होता जो कार्यपालिका का हिस्सा नहीं होता तो शायद निष्पक्षता और स्वतंत्रता को लेकर इतनी ज्यादा बहस नहीं हो रही होती.


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