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इलेक्टोरल बॉन्ड का गोरखधंधा, आम लोगों से है धोखा, प्रधानमंत्री मोदी की है जवाबदेही, न्यायिक जाँच ही है आगे की राह

लोक सभा चुनाव की ख़ुमारी में डूबे देश के आम लोग इलेक्टोरल बॉन्ड के तिलिस्म में पूरी तरह से उलझ गए हैं. इलेक्टोरल बॉन्ड आम लोगों के लिए अब किसी तिलिस्म से कम नहीं रह गया है. इस वर्ष 15 फरवरी को सुप्रीम कोर्ट इलेक्टोरल बॉन्ड स्कीम को असंवैधानिक क़रार देती है. शीर्ष अदालत से इस स्कीम पर रोक भी लगा दी जाती है. कोर्ट से ही इससे जुड़ी तमाम जानकारियों को सार्वजनिक करने का आदेश दिया जाता है. यहीं से इलेक्टोरल बॉन्ड से संबंधित गोरखधंधा के ख़ुलासे का रास्ता साफ़ हो जाता है.

सुप्रीम कोर्ट की सख़्ती के बाद एसबीआई की ओर से इलेक्टोरल बॉन्ड की जानकारी 12 मार्च को चुनाव आयोग को दी जाती है. चुनाव आयोग उन जानकारियों को अपनी आधिकारिक वेबसाइट पर 14 मार्च को सार्वजनिक कर देता है. उसके बाद इलेक्टोरल बॉन्ड से जुड़ी जानकारी के आधार पर गुमनाम राजनीतिक फंडिंग को लेकर नए-नए विश्लेषण सामने आने लगते हैं.

क्या इलेक्टोरल बॉन्ड भ्रष्टाचार का ज़रिया था!

राजनीतिक चंदे के सिस्टम को बेहतर करने के नाम पर मोदी सरकार 2017 में इलेक्टोरल बॉन्ड लाने का फै़सला करती है. अब जिस तरह की जानकारी सामने आ रही है, उसके आधार पर कहा जा सकता है कि इलेक्टोरल बॉन्ड रिश्वतख़ोरी और भ्रष्टाचार का एक ऐसा ज़रिया था, जो सरकारी निगरानी में क़ानूनी संरक्षण के तहत फल-फूल रहा था.

इलेक्टोरल बॉन्ड से जुड़ा गोरखधंधा..सीधे-सीधे देश के आम लोगों के साथ धोखा का मसला है. इसमें नागरिक अधिकारों से जुड़े कई पहलू शामिल हैं. सरकारी और राजनीतिक तंत्र पर आम लोगों का भरोसा हमेशा बरक़रार रहे, यह लोकतांत्रिक ढाँचे के तहत संसदीय व्यवस्था में हर सरकार और राजनीतिक दल की सबसे प्रमुख ज़िम्मेदारी है. इलेक्टोरल बॉन्ड इस भरोसे पर सीधे-सीधे प्रहार है.

नागरिकों के मूल अधिकार के साथ खिलवाड़

इलेक्टोरल बॉन्ड के माध्यम से देश के नागरिकों के 'जानने के हक़' का उल्लंघन किया जाता है. इसके ज़रिये मोदी सरकार नागरिकों को संविधान के अनुच्छेद 19 (1) (a) से हासिल मूल अधिकार का हनन करती है. देश के हर नागरिक को अनुच्छेद 19 (1) (a)के तहत सूचना का अधिकार बतौर मूल अधिकार के रूप में हासिल है. हमें इस मूलभूत पहलू को समझना चाहिए कि सूचना के अधिकार का स्रोत..सूचना का अधिकार अधिनियम, 2005 नहीं है. सुप्रीम कोर्ट ने अतीत में कई मामलों में यह कहा है कि सूचना का अधिकार वह अधिकार है, जो  अनुच्छेद 19 (1) (a) के अधीन गारंटी किए गए संवैधानिक अधिकार से पैदा होता है. अनुच्छेद 19 (1) (a) के तहत हर नागरिक को  बोलने और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता मिली हुई है, जिसमें सूचना का अधिकार अंतर्निहित है. इलेक्टोरल बॉन्ड के ज़रिये मौजूदा केंद्र सरकार ने इसके साथ खिलवाड़ किया है.

गोपनीयता के नाम पर बॉन्ड था रहस्य का पिटारा

इलेक्टोरल बॉन्ड से संबंधित क्या-क्या रहस्य छिपा है या सरकार छिपाना चाहती है.. एसबीआई के रवैये से भी इसको समझा जा सकता है. 15 फरवरी को सुप्रीम कोर्ट का फै़सला आता है. कोर्ट एसबीआई को आदेश देती है कि 6 मार्च तक तमाम जानकारी चुनाव आयोग को सौंप दे, जिससे चुनाव आयोग 13 मार्च तक सारी जानकारी सार्वजनिक कर दे. देश का सबसे बड़ा सरकारी बैंक.. स्टेट बैंक ऑफ इंडिया इस मसले पर 3 मार्च तक ख़ामोश रहता है और अगले दिन या'नी 4 मार्च को सुप्रीम कोर्ट से सारी जानकारी देने के लिए 30 जून तक की मोहलत माँगता है. डोनर और बॉन्ड को भुनाने वाले राजनीतिक दलों के बीच मिलान में समय लगने का हवाला देते हुए एसबीआई और समय की मांग करती है.

जानकारी देने में एसबीआई की आनाकानी

हालाँकि सुप्रीम कोर्ट इस मामले में सख़्ती बरतती है. कोर्ट  11 मार्च को एसबीआई को निर्देश देती है कि 12 मार्च शाम तक सारी जानकारी  चुनाव आयोग तक पहुँच जानी चाहिए. यहाँ पर सुप्रीम कोर्ट एसबीआई को एक छूट दे देती है. कोर्ट की ओर से बैंक को कहा जाता है कि आप बॉन्ड का मिलान नहीं करें, बल्कि डोनर और भुनाने वाले राजनीतिक दलों की अलग-अलग सूची चुनाव आयोग को दे दें. अवमानना से जुड़ी सुप्रीम कोर्ट की फटकार का असर होता है. एसबीआई की ओर से 12 मार्च शाम तक चुनाव आयोग को दोनों प्रकार की जानकारी दे दी जाती है.

इलेक्टोरल बॉन्ड की जानकारी देने के लिए एक तरफ़ एसबीआई 30 जून की मोहलत मांग रही थी. जैसे ही सख़्ती हुई, 30 घंटे के भीतर जानकारी मुहैया करा देती है. इस रवैये से देश के सबसे बड़े सरकारी बैंक पर आम लोगों के भरोसा का डगमगाना स्वाभाविक है. साथ ही बैंक भी सवालों के घेरे में आ जाता है. इतना ही नहीं, चुनाव आयोग को जानकारी देने के बाद भी संदेह के घेरे से एसबीआई बाहर नहीं निकल पाया है.

जानकारी देकर भी कुछ छिपाने की कोशिश

एसबीआई ने दो अलग-अलग प्रकार की जानकारी चुनाव आयोग की दी है. पहली जानकारी के तहत एसबीआई के चुनिंदा शाखाओं से इलेक्टोरल बॉन्ड ख़रीदने वाले डोनर का नाम शामिल है. इसमें व्यक्ति और कंपनी दोनों शामिल हैं. दूसरी जानकारी के तहत राजनीतिक दलों का नाम है, जिन्होंने इलेक्टोरल बॉन्ड को भुनाया है. इन दो अलग-अलग तरह की जानकारी के आधार पर यह नहीं पता लगाया जा सकता है कि अमुक बॉन्ड किस पार्टी को मिला है. या'नी ख़ास बॉन्ड का मिलान ख़ास राजनीतिक दल से करना तक़रीबन नामुमकिन है. बस अंदाज़ लगाया जा सकता है. एक अप्रैल 2019 से 15 फरवरी के बीच कुल 22,217 इलेक्टोरल बॉण्ड खरीदे गए. इनमें से 22,030 बॉण्ड को राजनीतिक दलों की ओर से भुनाया गया.

एसबीआई ने जो जानकारी दी है, उसे ग़ौर से समझने की ज़रूरत है. पहली जानकारी में हर बॉण्ड की ख़रीद की तारीख़, ख़रीददार के नाम और ख़रीदे गए बॉण्ड की क़ीमत या'नी मूल्यवर्ग का विवरण है. दूसरी जानकारी में बॉण्ड को भुनाने की तारीख़, चंदा हासिल करने वाले राजनीतिक दलों के नाम और बॉण्ड के मूल्यवर्ग का विवरण है. एसबीआई ने जानकारी देने में एक तथ्य को छिपा लिया.

यूनीक अल्फा-न्यूमेरिक नंबर को साझा नहीं किया

हर इलेक्टोरल बॉन्ड का एक यूनीक नंबर था. हर इलेक्टोरल बॉन्ड के लिए एक यूनीक अल्फा-न्यूमेरिक नंबर या'नी विशिष्ट अक्षरांकीय संख्या निर्धारित थी. एसबीआई ने इस जानकारी को चुनाव आयोग से साझा नहीं किया. डोनर या'नी बॉन्ड ख़रीदने वाले का और बॉन्ड भुनाने वाले का अलग-अलग एक क्रम बनाकर जानकारी दी गयी है. एसबीआई मिलान करके देता कि कौन सा बॉन्ड किस राजनीतिक दल ने भुनाया, तो यह आम लोगों को समझने के लिए सबसे अच्छी स्थिति होती. हालाँकि एसबीआई का कहना था कि इसमें बहुत समय लगेगा. एसबीआई ने ऐसा नहीं किया. यहाँ तक तो ठीक है.

नंबर से डोनर और दलों का मिलान करना आसान

एसबीआई हर बॉन्ड के यूनीक नंबर को साझा कर देता, तो लंबी मशक़्क़त के बाद ही सही, लेकिन यह पता लगाना आसान हो जाता कि अमुक बॉन्ड से अमुक राजनीतिक दल को लाभ हासिल हुआ है. इससे देश में आम लोग या पत्रकार कम से कम अपने स्तर पर कड़ी मेहनत से सटीक मिलान कर पाते कि किस व्यक्ति या कंपनी ने कब-कब किन-किन राजनीतिक दलों को बॉन्ड के माध्यम से चंदा दिया है. इससे अनुमान और अटकलों की गुंजाइश ख़त्म हो जाती है. साथ ही व्यक्ति या कंपनी के राजनीतिक दलों के साथ बॉन्ड से बने गठबंधन को लेकर विश्लेषण करना आसान हो जाता है.

एसबीआई दबाव में छिपा रही है यूनीक नंबर!

बॉण्ड का यूनीक अल्फा-न्यूमेरिक नंबर नहीं देने के एसबीआई के इस रवैये पर सुप्रीम कोर्ट ने नाराज़गी ज़ाहिर की है. चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया डी वाई चंद्रचूड़ की अगुवाई वाली संविधान पीठ ने इस मसले पर बैंक से 18 मार्च को जवाब मांगा है. अब देखना है कि भविष्य में एसबीआई इस यूनीक अल्फा-न्यूमेरिक नंबर को साझा करता है या नहीं. इलेक्टोरल बॉन्ड के बारे में सब-कुछ जानने के लिहाज़ से यह बहुत महत्वपूर्ण है. पूरे प्रकरण से यह स्पष्ट है कि एसबीआई पर कुछ छिपाने का दबाव है. सरकारी बैंक होने के नाते किसका दबाव है, यह समझना कोई मुश्किल काम नहीं है.

सुप्रीम कोर्ट के जब सुप्रीम कोर्ट से 15 फरवरी को  इलेक्टोरल बॉन्ड को असंवैधानिक घोषित करने वाला फै़सला आया था, उस वक़्त उम्मीद जगी थी कि इलेक्टोरल बॉन्ड से जुड़े गोरखधंधे के हर बारीकी को देश के आम लोग खु़द हीआसानी से समझ पाएंगे. हालाँकि मिलान नहीं होने से ऐसा नहीं हो पाएगा. इसके बावजूद जिस तरह की जानकारी साझा की गयी है और उससे जो तथ्य सामने आ रहे हैं, वो डराने वाले हैं.

गोपनीयता के नाम पर सरकार-कॉर्पोरेट के बीच साँठ-गाँठ

एक पहलू स्पष्ट है और इसे समझने के लिए अधिक दिमाग़ लगाने की ज़रूरत नहीं है. यह अब साफ़ है कि गोपनीयता को आधार बनाकर सरकारी संरक्षण में राजनीतिक चंदे के नाम पर सरकार और कॉर्पोरेट के बीच साँठ-गाँठ में इलेक्टोरल बॉन्ड की बड़ी भूमिका रही है. यही वज्ह है कि इलेक्टोरल बॉन्ड से सबसे अधिक राशि या कहें कमोबेश पूरी राशि उन्हीं राजनीतिक दलों को मिली है, जो कहीं न कहीं सत्ता में थे. स्वाभाविक है कि केंद्र में सरकार होने के कारण इसका सबसे बड़ा फ़ाइदा भारतीय जनता पार्टी को हुआ है. जिस तरह से इस स्कीम के ज़रिए बीजेपी के चंदे में इज़ाफ़ा हुआ है और बाक़ी दलों का हिस्सा बेहद कम रहा है,  उससे समझा जा सकता है कि मोदी सरकार जिस मंशा के लिए इलेक्टोरल बॉन्ड लेकर आयी थी, वो पूरी होती दिख रही है.

बॉन्ड की जानकारियों से कई तरह के ख़ुलासे

सारे तथ्यों का एक साथ संकलन करना बेहद मुश्किल है, लेकिन कुछ बिन्दु हैं, जिन पर सरसरी निगाह डालने भर से समझा जा सकता है कि इलेक्टोरल बॉन्ड एक गोरखधंधा था, जिसे सरकारी संरक्षण हासिल था. जानकारियों के विश्लेषण से यह समझना आसान होता जा रहा है इलेक्टोरल बॉन्ड से कई आरोप जुड़ते जा रहे हैं और उनमें तथ्यात्मक तौर से सच्चाई भी दिख रही है. 'चंदा दो, धंधा लो', हफ़्ता वसूली, कंपनियों से उगाही जैसे आरोपों में दम दिख रहा है. कुछ महत्वपूर्ण बिन्दुओं पर नज़र डालते हैं:

  • इलेक्टोरल बॉन्ड से चंदा देने में कई कंपनियाँ शामिल हैं, जो केंद्रीय जाँच एजेंसियों ईडी, इनकम टैक्स और सीबीआई की जाँच के दायरे में थी.
  • 2019 से 2024 के बीच बॉन्ड से चंदा देने वाली जो शीर्ष पाँच कंपनियाँ है, उनमें से तीन कंपनियाँ फ्यूचर गेमिंग, मेघा इंजीनियरिंग और वेदांता प्रवर्तन निदेशालय और आयकर जांच का सामना कर रही थी.
  • शीर्ष 30 डोनर कंपनियों में से 14 किसी न किसी तरह से ईडी, सीबीआई और इनकम टैक्स की जाँच के घेरे में थीं.
  • लॉटरी कंपनी फ्यूचर गेमिंग एंड होटल सर्विसेज ने सबसे अधिक 1,368 करोड़ रुपये बॉन्ड से चंदा दिया. यह वहीं कंपनी है, जिस पर केंद्रीय जाँच एजेंसी  ईडी ने छापा मारा था. ईडी ने सितंबर 2023 तक  फ्यूचर गेमिंग एंड होटल सर्विसेज प्राइवेट लिमिटेड की कुल 411 करोड़ रुपये की चल संपत्ति को क़ुर्क़ किया था. इस कंपनी के प्रमुख मार्टिन सैंटियागो के बेटे जोस चार्ल्स मार्टिन ने 2015 में बीजेपी को ज्वाइन किया था.
  • हैदराबाद की मेघा इंजीनियरिंग एंड इंफ्रा इस मामले में दूसरे नंबर पर है. इस कंपनी ने बॉन्ड से 966 करोड़ रुपये का चंदा दिया. यह कंपनी अप्रैल, 2023 में 140 करोड़ रुपये का बॉन्ड ख़रीदती है और अगले ही महीने उसे 14,400 करोड़ रुपये का ठाणे से बोरीवली के बीच ट्विन टनल का सरकारी प्रोजेक्ट मिल जाता है.
  • बॉन्ड से राजनीतिक दलों को दान करने वाली तीसरी सबसे बड़ी दानकर्ता क्विक सप्लाई चेन प्राइवेट लिमिटेड है. इसे रिलायंस इंडस्ट्रीज से जुड़ी कंपनी बताया जा रहा है. इस कपंनी ने बॉन्ड से 410 करोड़ रुपये का चंदा दिया था.
  • घटाना दिखाने के बावजूद एयरटेल जैसी कई कंपनियों ने करोड़ों रुपये का बॉन्ड ख़रीदकर राजनीतिक दल को चंदा दिया है.
  • हेल्थकेयर उपकरण और दवा बनाने वाली देश की प्रमुख 14 कंपनियों ने बॉन्ड से 534 करोड़ रुपये राजनीतिक दलों को दिए.
  • हेटेरो ड्रग्स, हेटेरो लैब्स और हेटेरो बायोफार्मा की ओर से बॉन्ड से 60 करोड़ का चंदा दिया गया. कंपनी पर 2021 में इनकम टैक्स का छापा पड़ा था. हेटेरो ग्रुप की कंपनियों की तरफ़ से अप्रैल 2022, जुलाई, 2023 और अक्टूबर, 2023 में बॉन्ड ख़रीदे गए.

इलेक्टोरल बॉन्ड से उन्हीं दलों को अधिकतर लाभ हुआ है, जो योजना की अवधि में केंद्र या राज्य में सत्ता में थे. इलेक्टोरल बॉन्ड से जुड़े राजनीतिक लाभ और उससे संबंधित आँकड़ों पर भी एक नज़र डालते हैं:

  • 2017-18 से 2022-23 के बीच बीजेपी को बॉन्ड से सबसे अधिक 6566.12 करोड़ रुपये मिले.
  • इस अवधि में बॉन्ड से कांग्रेस को 1123.31 करोड़ रुपये और तृणमूल कांग्रेस को 1092.98 करोड़ रुपये मिले.
  • एसबीआई ने फ़िलहाल चुनाव आयोग से जो जानकारी साझा की है, वो 12 अप्रैल, 2019 से लेकर अब तक का है. इस अवधि में बीजेपी को सबसे अधिक राशि हासिल हई. बीजेपी को इस अवधि में बॉन्ड से 6,060.51 करोड़ रुपये (47.46%) मिले.
  • इस अवधि में तृणमूल कांग्रेस दूसरे नंबर पर रही. उसे 1,609.53 करोड़ रुपये मिले.
  • वहीं कांग्रेस तीसरे नंबर पर रही, जिसे 1,421.87 करोड़ रुपये मिले. बीआरएस को 1,214.71 करोड़ और बीजेडी को इस अवधि में 775.50 करोड़ रुपये मिले.
  • राष्ट्रीय पार्टी का दर्जा प्राप्त मायावती की बहुजन समाज पार्टी को इलेक्टोरल बॉन्ड से कोई राशि हासिल नहीं हुई. बसपा 2012 से उत्तर प्रदेश की सत्ता से बाहर है.
  • चंदा देने के लिए बड़े मूल्य या'नी एक करोड़ रुपये के बॉन्ड का ही सबसे अधिक इस्तेमाल हुआ है, जबकि एक हज़ार, दस हज़ार, एक लाख और दस लाख रुपये मूल्य के भी इलेक्टोरल बॉन्ड उपलब्ध थे. राशि के आधार पर तक़रीबन 95 फ़ीसदी चंदा एक करोड़ मूल्यवर्ग के बॉन्ड से दिया गया है.
  • मार्च 2018 से जुलाई 2023 के दौरान 27 फ़ेज़ में बेचे गए बॉन्ड में राशि के आधार पर एक करोड़ और दस लाख रुपये मूल्यवर्ग वाले बॉन्ड की कुल भागीदारी 99.77 फ़ीसदी रही.

विस्तार से निष्पक्षतापूर्वक पड़ताल होनी चाहिए

इन तमाम तथ्यों पर ग़ौर और विश्लेषण करने से स्पष्ट है कि पूरे प्रकरण में कई गंभीर सवाल हैं, जिनकी निष्पक्ष जाँच होनी चाहिए. सवाल है कि जिन कंपनियों पर आपराधिक केस चल रहा हो, उनसे कोई भी राजनीतिक दल चंदा कैसे ले सकती है. ऐसा नहीं हो इसके लिए मोदी सरकार ने योजना को शुरू करने के समय ही कोई व्यवस्था क्यों नहीं की. Quid Pro Quo या'नी चंदा के बदले कुछ हासिल करना, Kickbacks या'नी रिश्वत देकर कुछ हासिल करना, जाँच एजेंसियों का भय दिखाकर उगाही करना, शेल कंपनी के माध्यम से व्यापक स्तर पर मनी लॉन्ड्रिंग...ये कुछ ऐसे पहलू हैं, जिनका विस्तार से निष्पक्षता पूर्वक पड़ताल होनी चाहिए.  इनमें से कई आशंकाओं का ज़िक्र सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने 15 फ़रवरी के फ़ैसले में और मामले की सुनवाई के दौरान भी किया था.

नरेंद्र मोदी सरकार की ज़िद का नतीजा है बॉन्ड

दरअसल इलेक्टोरल बॉन्ड एक रहस्य बन गया है, जिसमें कई परत है. धीरे-धीरे कई सारी जानकारियाँ सामने आएगी. कई तरह की आशंकाओं के साथ आरोप भी इनसे जुड़ता जाएगा. संवैधानिक अधिकारों की धज्जियाँ उड़ाते हुए मोदी सरकार इलेक्टोरल बॉन्ड लाई थी. दो जनवरी, 2018 से यह योजना अमल में आ गयी थी. 2017-18 के आम बजट में इस योजना की घोषणा हुई थी. मोदी सरकार ने उस समय चुनाव आयोग और आरबीआई की आपत्तियों को दरकिनार कर दिया था. इस योजना को लाने में तत्कालीन केंद्रीय वित्त मंत्री अरुण जेटली की सबसे महत्वपूर्ण भूमिका थी. इस योजना में पारदर्शिता के लिए किसी तरह की गुंजाइश नहीं रहने दी गयी. इसके लिए कई क़ानून में बदलाव करने में मोदी सरकार थोड़ी-सी भी नहीं हिचकिचाई.

बॉन्ड के खेल के लिए कई क़ानून में बदलाव किए गए

नुक़सान वाली कंपनियों को इलेक्टोरल बॉन्ड से चंदा देने में कोई परेशानी नहीं हो, इसके लिए भी मोदी सरकार ने उस वक़्त क़ानून में बदलाव कर दिया था.  इतना ही नहीं, विदेशी कंपनियों से भी राजनीतिक चंदा हासिल हो सके, इसके लिए भी मोदी सरकार ने विदेशी योगदान विनियमन अधिनियम, 2010 (FCRA) के सेक्शन 2(1)(j)(vi) में संशोधन कर दिया था.  इससे विदेशी कंपनियों को भारत में रजिस्टर्ड अपनी सहायक कंपनियों के ज़रिये से राजनीतिक दलों को चंदा देने की अनुमति दे दी गयी थी. पहले एफसीआरए और विदेशी मुद्रा प्रबंधन अधिनियम, 1999 दोनों के तहत विदेशी कंपनियों से राजनीतिक चंदा लेने पर पूरी तरह से रोक थी.

कॉर्पोरेट चंदे की ऊपरी सीमा तक को हटा दिया गया

कंपनियाँ असीमित मात्रा में राजनीतिक चंदा दे सकें, इसके लिए मोदी सरकार ने कंपनी अधिनियम, 2013 तक में बदलाव कर दिया था.  पहले कंपनियां पिछले तीन वर्षों में अपने शुद्ध लाभ का 7.5 फ़ीसदी तक ही राजनीतिक चंदा दे सकती थी. मोदी सरकार ने इस ऊपरी सीमा को हटा दिया था. मोदी सरकार ने क़ानून में बदलाव कर इलेक्टोरल बॉन्ड के मामले में चुनाव आयोग को पंगु बना दिया था. जनप्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 और आयकर अधिनियम में बदलाव कर बॉन्ड से हासिल राशि की विस्तृत जानकारी चुनाव आयोग से साझा करने की बाध्यता से राजनीतिक दलों को मुक्त कर दिया था.

प्रधानमंत्री मोदी की पूरी जवाबदेही बनती है

आगे चलकर और कौन-कौन सी बातें निकल कर सामने आएंगी, लेकिन इतना कहा जा सकता है कि आज इलेक्टोरल बॉन्ड से देश का आम नागरिक ख़ुद को ठगा महसूस कर रहा है. संविधान के तहत सरकारी और राजनीतिक तंत्र का निर्माण देश के नागरिकों के विकास और कल्याण के लिए होना चाहिए. इलेक्टोरल बॉन्ड में सरकारी तंत्र और सत्ता का इस्तेमाल किसी ख़ास दल को लाभ पहुंचाने के लिए किया गया है. इसमें किसी तरह का शक-ओ-शुब्हा नहीं है.

सवाल उठता है कि आम लोगों की मानसिकता को इस स्थिति में पहुँचाने की पूरी जवाबदेही किसकी है. इसका सीधा और सरल उत्तर है. देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को पूरी ज़िम्मेदारी लेनी चाहिए. लोक सभा चुनाव का नाज़ुक समय है. ऐसे में प्रधानमंत्री मोदी को पूरे देशवासियों को इस प्रकरण पर आश्वस्त करना चाहिए कि इलेक्टोरल बॉन्ड का दुरुपयोग नहीं हुआ है. यह आश्वासन सिर्फ़ और सिर्फ़ निष्पक्ष न्यायिक जाँच से ही संभव है. सरकार का मुखिया होने के नाते प्रधानमंत्री की जवाबदेही है कि आम लोगों का भरोसा सरकारी तंत्र पर क़ायम रहे.

सुप्रीम कोर्ट की निगरानी में हो न्यायिक जाँच

जिस तरह से संवैधानिक और नागरिक अधिकारों को ताक पर रखकर इलेक्टोरल बॉन्ड का राजनीतिक खेल खेला गया है, उसमें कई पक्ष हैं. सुप्रीम कोर्ट ने तो फ़िलहाल सिर्फ़ संवैधानिकता की कसौटी पर योजना को असंवैधानिक क़रार दिया है. इसके साथ ही जिस तरह के आँकड़ें और तमाम तरह के तथ्य सामने आ रहे हैं, इसमें आपराधिक पहलू भी है. आपराधिक पहलू में कई परत है. अवधि से लेकर फ़ाइदे के अनेक स्वरूप या तरीक़े का संबंध इलेक्टोरल बॉन्ड से है. रहस्यों की परतें इतनी ज़ियादा है कि देश के आम लोगों के सामने इन परतों में सिर्फ़ उलझने के अलावा कोई चारा नहीं है. किससे किसको लाभ हुआ, किसने किसको मजबूर किया, इस तरह के ख़ुलासे अब कई दिनों तक होते रहेंगे. हालाँकि इससे अनुमानों और अटकलों को भी हवा मिल सकती है. न्यायिक जाँच ही अब एकमात्र विकल्प है, जिससे पूरी तस्वीर स्पष्ट हो सकती है.

भारतीय संसदीय व्यवस्था और नैतिकता की गुंजाइश

भारतीय लोकतांत्रिक व्यवस्था में अब नैतिकता के पहलू पर बात करना ही बेमानी है. पश्चिमी देशों में इस तरह से सरकारी तंत्र के दुरुपयोग का मामला होता, तो, अब तक वर्तमान सरकार या तो पद छोड़ चुकी होती या फिर वहाँ के लोग देशव्यापी आंदोलन पर उतर आते. हालाँकि भारत में इसकी गुंजाइश नहीं है. भारतीय संसदीय व्यवस्था में न तो राजनीतिक दलों और नेताओं में उस तरह की परिपक्वता है और न ही देश के आम लोगों में अपने अधिकारों को लेकर उतनी बेहतर समझ है. इसके बावजूद इलेक्टोरल बॉन्ड में आपराधिक पहलू की न्यायिक जाँच बेहद ज़रूरी है. पूरी जाँच सुप्रीम कोर्ट की निगरानी में होनी चाहिए.

राजनीतिक दलों की जवाबदेही कैसे होगी तय?

असंवैधानिक योजना से इतनी बड़ी राशि हासिल करने के बावजूद बीजेपी समेत तमाम राजनीतिक दलों के ऊपर कोई जवाबदेही नहीं बन पा रही है. केंद्र में सत्ताधारी दल के होने के नाते बीजेपी सबसे बड़ी लाभार्थी है. उसकी ज़िम्मेदारी और जवाबदेही सबसे अधिक है, लेकिन सवाल है कि जो योजना लेकर आयी है, वह पार्टी इसकी निष्पक्ष जाँच के लिए क्यों उछल-कूद मचाएगी.

ऐसे में विपक्षी दलों को बड़ी भूमिका निभानी पड़ेगी. कांग्रेस समेत तमाम विपक्षी दल, जो इस योजना को लेकर मोदी सरकार को घेर रहे हैं, उन्हें अपनी राशि को लेकर भी हिसाब देना चाहिए कि उनका दुरुपयोग तो नहीं हुआ है. राज्यों में कांग्रेस, तृणमूल कांग्रेस, बीआरएस, बीजेडी, वाईएसआर कांग्रेस जैसी पार्टियों की सरकार रही है और इन दलों को भी एक अच्छी-ख़ासी राशि बॉन्ड से मिली है. मोदी सरकार को घेरने के साथ ही इन दलों के शीर्ष नेताओं को कुछ ऐसा भी करना चाहिए, जिससे इलेक्टोरल बॉन्ड से हासिल राशि के मामले में उनका ख़ुद का दामन पाक-साफ़ नज़र आए.

क़ानून के पूर्ण संरक्षण के साथ गोरखधंधा

राजनीतिक चंदा कोई नयी बात नहीं है. पहले भी राजनीतिक दलों को बड़े-बड़े कारोबारियों और बड़ी-बड़ी कंपनियों से मोटी रक़म बतौर चंदा मिलता रहता था. सरकार या राजनीतिक दलों और कॉर्पोरेट के बीच मिलीभगत की बात भी नयी नहीं है. लेकिन आज़ाद भारत के इतिहास में यह पहला मौक़ा है, जब इस तरह की मिलीभगत और साँठ-गाँठ को इलेक्टोरल बॉन्ड के नाम पर क़ानून का संरक्षण दिया जाता है. वो भी लोगों के मौलिक अधिकार का उल्लंघन करके पूरी प्रक्रिया को गोपनीय रखने का काम ख़ुद सरकार करती है.

एक के बाद एक लगातार जिस तरह के आँकड़े और तथ्य सामने आ रहे हैं, उसके आधार पर इस तरह की आशंका से इंकार नहीं किया जा सकता है कि कंपनियों की ओर से इलेक्टोरल बॉन्ड का इस्तेमाल रिश्वत देकर सरकार से फ़ाइदा पाने के लिए किया गया होगा. चाहे सरकारी प्रोजेक्ट में हिस्सेदारी हो या फिर केंद्रीय जाँच एजेंसियों के डर से बचने का मसला हो, सभी पहलू भ्रष्टाचार से ही जुड़े हुए हैं.

राजनीतिक और चुनावी तंत्र पर भरोसे का मसला

आर्थिक पहलू से इतर संवैधानिक नज़रिये से इलेक्टोरल बॉन्ड को आज़ाद भारत का सबसे ख़तरनाक घोटाला कहा जा सकता है. राशि के आधार पर नहीं, बल्कि पूरे प्रकरण में जिस तरह से सरकारी और राजनीतिक सिस्टम का इस्तेमाल हुआ है, वो भयावह है. इलेक्टोरल बॉन्ड सरकारी और राजनीतिक संरक्षण में लोगों के संवैधानिक अधिकारों के साथ खिलवाड़ करने का ख़तरनाक उदाहरण है. यह टूजी और कोयला घोटाले से भी ख़तरनाक है. आम लोग राजनीतिक तंत्र और चुनावी तंत्र पर कैसे भरोसा करेंगे, जब सरकार ही इस तरह की असंवैधानिक योजना लाकर अपनी पार्टी को धन्ना सेठ बनाने में जुट जाएगी.

न्यायिक जाँच के लिए विपक्षी दल बनाए दबाव

भ्रष्टाचार की गुंजाइश और लोकतांत्रिक व्यवस्था पर आम लोगों के भरोसे को बरक़रार रखने के लिए ज़रूरी है कि इलेक्टोरल बॉन्ड से जुड़े हर पहलू की न्यायिक जाँच हो. चूँकि प्रकरण से केंद्र सरकार या'नी मोदी सरकार के साथ ही तमाम राजनीतिक दल सीधे तौर से जुड़े हैं, तो, न्यायिक जाँच सुप्रीम कोर्ट की निगरानी में होनी चाहिए. मामले की गंभीरता को देखते हुए कांग्रेस समेत तमाम विपक्षी दलों को सुप्रीम कोर्ट की निगरानी में न्यायिक जाँच की मांग के लिए आंदोलन का रास्ता अपनाना चाहिए. लोक सभा चुनाव में विपक्षी दलों को इसे बड़ा मुद्दा बनाना चाहिए. इन दलों को अपने-अपने घोषणापत्र में न्यायिक जाँच की गारंटी भी देनी चाहिए.

[नोट- उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. यह ज़रूरी नहीं है कि एबीपी न्यूज़ ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ़ लेखक ही ज़िम्मेदार हैं.]

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