किसी भी लोकतांत्रिक व्यवस्था का केंद्र बिन्दु नागरिक होता है. उस व्यवस्था को आकार देने के लिहाज़ से राजनीतिक दल रीढ़ के समान हैं. इस व्यवस्था के तहत राजनीतिक दल बेहतर शासन के लिए कड़ी का काम करते हैं. राजनीतिक दलों की इच्छा शक्ति और नागरिकों को सही मायने में सर्वोपरि मानने की मंशा पर ही निर्भर करता है कि कौन सा देश चहुँमुखी प्रगति की राह पर वास्तविक रूप से आगे बढ़ रहा है.
इलेक्टोरल बॉन्ड और राजनीतिक चंदा
भारत में चुनावी बॉन्ड या'नी इलेक्टोरल बॉन्ड स्कीम इसी से जुड़ा है. चुनावी बॉन्ड योजना राजनीतिक दलों के लिए वित्त पोषण या'नी चंदे से जड़ी है. चुनावी बॉन्ड योजना की वैधता को चुनौती देने वाली याचिका पर सुप्रीम कोर्ट की 5 सदस्यीय संविधान पीठ 31 अक्टूबर से सुनवाई कर रही है. चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया डी वाई चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली पीठ में जस्टिस संजीव खन्ना, जस्टिस बी आर गवई, जस्टिस जे बी पारदीवाला और जस्टिस मनोज मिश्रा शामिल है. यह पीठ चार याचिकाओं की के समूह पर सुनवाई कर रही है.
राजनीतिक चंदा तक ही सीमित नहीं है मुद्दा
चुनावी बॉन्ड योजना सिर्फ़ चुनाव सुधार या राजनीतिक चंदे तक सीमित मसला नहीं है. भारत में राजनीतिक दलों या सरकार और बड़े-बड़े उद्योगपतियों के बीच साँठ-गाँठ के आरोप दशकों से लगते रहे हैं. इस नज़रिये से इलेक्टोरल बॉन्ड स्कीम का संबंध लोकतांत्रिक व्यवस्था की शुचिता और पारदर्शिता के साथ ही सरकार और राजनीतिक दलों की जवाबदेही से भी जुड़ा है.
चुनावी बॉन्ड से जुड़े हैं कई महत्वपूर्ण पहलू
नरेंद्र मोदी सरकार ने इस स्कीम को दो जनवरी 2018 को अधिसूचित किया था. राजनीतिक दलों को नकद चंदे के एक विकल्प के तौर पर इस स्कीम की शुरूआत की गयी थी. इसका मकसद राजनीतिक वित्त पोषण में पारदर्शिता लाना बताया गया था. हालांकि इसी पारदर्शिता को लेकर कई गंभीर सवाल उठने लगे और इस स्कीम की वैधता को चुनौती दी गयी. सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई के दौरान केंद्र सरकार और बाक़ी पक्षों की ओर से क्या दलील दी गयी है, उस पर मंथन करने से पहले इस स्कीम से जुड़े कुछ तथ्यों पर नज़र डालने की ज़रूरत है.
चुनावी बॉन्ड और गुमनाम तरीक़े से राजनीतिक चंदा
इस योजना के माध्यम से कोई भी व्यक्ति गुमनाम तरीक़े से राजनीतिक दलों को मोटी रक़म चंदा के तौर पर दे सकता है. तत्कालीन केंद्रीय वित्त मंत्री अरुण जेटली ने एक फरवरी 2017 को आम बजट भाषण में चुनावी बॉन्ड को लाने से जुड़े प्रस्ताव की घोषणा की थी. इसे राजनीतिक दलों को फंडिंग के लिए एक पारदर्शी तरीक़ा बताया गया था. उस समय मोदी सरकार की दलील थी कि आज़ादी के बाद से ही राजनीतिक दलों जो चंदा मिलते आ रहा है, उसका अधिकांश हिस्सा नकद में दिखाए गए अज्ञात डोनेशन के ज़रिये हासिल होता रहा है.
चुनावी बॉन्ड प्रस्ताव के साथ ही अज्ञात स्रोतों से नक़द या'नी कैश के तौर पर दिए जाने वाले राजनीतिक चंदे की राशि को 20 हज़ार रुपये से घटाकर दो हज़ार रुपये करने का प्रस्ताव किया गया. राजनीतिक चंदे से जुड़े इन प्रस्तावों को लागू करने के लिए जनप्रतिनिधित्व अधिनियम 1951, आयकर अधिनियम 1961 और कंपनी अधिनियम 2013 के साथ ही विदेशी योगदान विनियमन अधिनियम, 2010 (FCRA) में संशोधन किया गया. चुनावी बॉन्ड स्कीम दो जनवरी 2018 से लागू हो गया.
चुनावी बॉन्ड से बीजेपी को सबसे ज़्यादा चंदा
चुनावी बॉन्ड स्कीम के तहत सत्ताधारी बीजेपी को काफ़ी राजनीतिक चंदा हासिल हुआ. यह काफ़ी कितना है, इसका अंदाज़ा एडीआर की एक रिपोर्ट से लगाया जा सकता है. वित्तीय वर्ष 2016-17 से 2021-22 की 5 वर्ष की अवधि में बीजेपी को प्राप्त कुल चंदे में से 52 फ़ीसदी हिस्सा चुनावी बॉन्ड से हासिल हुआ. इस दौरान बीजेपी को चुनावी बॉन्ड से तक़रीबन 5,272 करोड़ रुपये बतौर चंदा हासिल हुआ.
सिर्फ़ चुनावी बॉन्ड की बात करें, तो एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स के मुताबिक़ 2021-22 तक सभी पार्टियों को मिलाकर इलेक्टोरल बॉन्ड से 9,188 करोड़ रुपये बतौर चंदा हासिल हुए. इसमें बीजेपी का हिस्सा 57 फ़ीसदी से अधिक था. कांग्रेस का हिस्सा महज़ 10 प्रतिशत (952 करोड़ रुपये) था. यह आँकड़े 7 राजनीतिक दलों और 24 क्षेत्रीय दलों से जुड़ा है. इससे समझा जा सकता है कि चुनावी बॉन्ड लाने से सबसे अधिक लाभ किस पार्टी को हुआ है.
चुनावी बॉन्ड से राजनीतिक चंदा में बेतहाशा इज़ाफ़ा
चुनावी बॉन्ड से जुड़ा एक महत्वपूर्ण तथ्य यह भी है कि जब से यह स्कीम शुरू हुई है, राजनीतिक चंदे में बेतहाशा इज़ाफ़ा हुआ है. एडीआर के मुताबिक़ वित्तीय वर्ष 2017-18 और 2021-22 के बीच या'नी चार साल में राजनीतिक चंदे में 743 फ़ीसदी की वृद्धि दर्ज की गयी है. ये आंकड़े बताते हैं कि चुनावी बॉन्ड ने राजनीतिक दलों के लिए चंदे के उस पिटारे को खोल दिया, जिसका कोई ओर-छोर नहीं है. उसमें भी सत्ताधारी दलों के लिए अपनी राजनीतिक हैसियत बढ़ाने का यह एक कारगर ज़रिया भी बनता जा रहा है. राजनीति में किस दल का प्रभाव ज़्यादा रहेगा, यह बहुत कुछ राजनीतिक चंदा पर भी निर्भर करता है. बिना नाम का खुलासा हुए चुनावी बॉन्ड से बड़ी से बड़ी राशि बतौर चंदा देना और लेना दोनों आसान हो गया.
नागरिकों से नाम छिपाने के पीछे क्या है कारण?
चुनावी बॉन्ड से जुड़े कुछ सवाल बेहद महत्वपूर्ण हैं. जो चंदा दे रहा है और किस दल को मिल रहा है, उसके बारे में नागरिकों को कोई जानकारी नहीं है. या'नी डोनेशन देने वाला गुमनाम है और उस गुमनाम शख़्स से किस दल को चंदा मिल रहा है, उससे भी देश के नागरिक अनजान हैं. नरेंद्र मोदी सरकार इसे सूचना के अधिकार के दायरे में नहीं लाना चाहती है. दूसरा मुद्दा यह है कि पहले बीस हज़ार से ज़्यादा के सभी चंदे और ट्रांजेक्शन का बही-खाता चुनाव आयोग के पास होता था. चुनाव आयोग बाकायदा इन्हें सार्वजनिक भी करता था. लेकिन चुनावी बॉन्ड स्कीम के बाद हालात बदल गये. अब किस राजनीतिक दल को किस शख़्स ने कितनी बड़ी रक़म चंदे के तौर पर दी, यह किसी को भी कानों कान ख़बर नहीं होती है. चुनावी बॉन्ड लाने के पीछे सबसे बड़ा बड़ा कारण पारदर्शिता को बताया गया था, लेकिन जनवरी 2018 से जो कुछ भी हो रहा है, वो बिल्कुल उल्टा है.
'नागरिकों को स्रोत जानने का अधिकार नहीं'
चुनावी बॉन्ड को सूचना के अधिकार के दायरे में लाने के मसले पर मोदी सरकार का स्पष्ट कहना है कि नागरिकों को राजनीतिक दलों को मिले चंदे का स्रोत जानने का अधिकार नहीं है. इसी बात को सुप्रीम कोर्ट में अटार्नी जनरल आर. वेंकटरमणी ने केंद्र की दलील के रूप में सामने रखा. उन्होंने कहा कि चुनावी बॉन्ड स्कीम के ज़रिये मिलने वाले चंदे के स्रोत के बारे में सूचना पाने का अधिकार संविधान के अनुच्छेद 19 (1) (ए) के तहत नहीं आता है. सरकार दावा कर रही है कि इस तरह के बॉन्ड से राजनीतिक दलों को जो भी चंदा मिल रहा है, वो पूरी तरह से 'क्लीन मनी' है.
न्यायिक पुनर्विचार की शक्ति पर भी सवाल
मोदी सरकार दलील से यह बात निकलकर आ रही है कि चंदा देने वाले अपना नाम गुप्त रखना चाहते हैं. अटॉर्नी जनरल आर. वेंकटरमणी ने कहा है कि इस स्कीम से चंदा देने वाले लोगों को गोपनीयता का लाभ मिलता है. इसके ज़रिये जो चंदा हासिल हो रहा है, वो काला धन नहीं है, टैक्स के नियमों का भी पालन किया जा रहा है. इस स्कीम से किसी वर्तमान संवैधानिक अधिकारों का हनन नहीं होता है. केंद्र सरकार की दलील है कि चुनावी बॉन्ड स्कीम सरकार का नीतिगत मसला है. इस वज्ह से चुनावी बॉन्ड के मामले में सुप्रीम कोर्ट की न्यायिक पुनर्विचार की शक्ति लागू नहीं होती है.
चंदा देने वाले नाम क्यों छिपाना चाहते हैं?
यहीं से सवाल उठता है कि आख़िरकार डोनेशन देने वाले क्यों अपना नाम छिपाना चाहते हैं. चुनावी बॉन्ड के माध्यम से कोई भी नागरिक या संस्था चंदा दे सकते हैं. जन प्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 की धारा 29 ए के तहत रजिस्टर्ड पार्टियां और पिछले लोक सभा चुनाव या राज्य विधान सभा चुनाव में पड़े कुल मतों का कम से कम एक फ़ीसदी वोट पाने वाले दल ही चुनावी बॉन्ड से चंदा हासिल कर सकते हैं.
कानून में किस तरह से किया गया बदलाव?
चुनावी बॉन्ड को लागू करने के लिए जिन चार क़ानूनों में संशोधन किया गया था, उनमें तमाम ऐसे प्रावधान किए गए, जिससे इसके तहत चंदा देने वाले लोगों या संस्थाओं का नाम गुप्त रह सके. देश के नागरिक उन नामों को नहीं जान सकें. ये बदलाव इस तरह से किये गए, ताकि किसी भी तरह से नाम उजागर नहीं हो सके. संशोधन में इस बात का पूरा ध्यान रखा गया कि पूरी जानकारी सिर्फ़ सरकार के पास ही रहे.
जनप्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 में बदलाव
चुनावी बॉन्ड लागू करने के लिए जनप्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 के सेक्शन 29C को संशोधित किया गया. पहले लोगों या संस्थाओं से हासिल 20 हज़ार से अधिक के चंदे को सार्वजनिक करने का प्रावधान था. संशोधन के बाद चुनावी बॉन्ड से प्राप्त राशि का खुलासा करने की बाध्यता ख़त्म कर दी गयी. कैश के तौर पर पहले गुमनाम लोगों से 20 हज़ार तक चंदा लिया जा सकता था, संशोधन के बाद इसे दो हज़ार रुपये तक सीमित कर दिया गया.
विदेशी योगदान विनियमन अधिनियम में बदलाव
सबसे पहले विदेशी कंपनियां राजनीतिक दलों को चंदा दे सकें, इसके लिए विदेशी योगदान विनियमन अधिनियम, 2010 (FCRA) के सेक्शन 2(1)(j)(vi) में संशोधन किया गया. इसके माध्यम से विदेशी कंपनियों को भारत में रजिस्टर्ड अपनी सहायक कंपनियों के ज़रिये से राजनीतिक दलों को चंदा देने की अनुमति दी गयी. आपको जानकर हैरानी होगी कि इससे पहले एफसीआरए और विदेशी मुद्रा प्रबंधन अधिनियम, 1999 (FEMA) दोनों के तहत विदेशी कंपनियों से राजनीतिक चंदा हासिल करने पर पूरी तरह से पाबंदी थी. इसमें ग़ौर करने वाली बात यह है कि विदेशी कंपनियां भारत में रजिस्टर्ड कंपनियों के ज़रिये पार्टियों को चंदा दे सकती हैं और वैसी कंपनियों को विदेशी स्रोत नहीं माना जायेगा.
चुनावी बॉन्ड के लिए कंपनी अधिनियम में बदलाव
चुनावी बॉन्ड स्कीम को लागू करने के लिए कंपनी अधिनियम, 2013 के सेक्शन 182 में भी संशोधन किया गया. संशोधन से पहले कंपनियां पिछले तीन वर्षों में अपने शुद्ध लाभ का 7.5 प्रतिशत तक ही राजनीतिक चंदा दे सकती थीं. संशोधन के माध्यम से पार्टियों के लिए कॉर्पोरेट चंदे की ऊपरी सीमा को प्रभावी ढंग से हटा दिया गया. यह एक ऐसा बदलाव था, जिससे यह सुनिश्चित हो गया कि अब नुक़सान में रहने वाली कंपनियां या भी राजनीतिक दलों को असीमित चंदा दे सकती हैं.
चुनावी बॉन्ड के लिए आयकर अधिनियम में भी बदलाव
इन तीनों क़ानूनों के अलावा चुनावी बॉन्ड लागू करने के लिए आयकर अधिनियम, 1961 में भी बदलाव किया गया. इस अधिनियम के सेक्शन 13A में बदलाव किया गया. इस बदलाव से पार्टियों को चुनावी बॉन्ड से हासिल राशि का विस्तृत रिकॉर्ड रखने की बाध्यता से छूट मिल गयी. यही नहीं चुनाव आयोग के पास जानकारी साझा करने से भी मुक्ति मिल गयी.
सरकार को सब कुछ जानकारी होती है
इलेक्टोरल बॉन्ड को भारतीय स्टेट बैंक की निर्धारित शाखाओं से ख़रीदा जा सकता है. जनवरी, अप्रैल, जुलाई और अक्टूबर में 10 दिनों की अवधि के लिए बॉन्ड आम लोगों से लेकर संस्थाओं की ख़रीद के लिए उपलब्ध होते हैं. लोक सभा चुनाव जिस साल होना है, उस वर्ष केंद्र सरकार की ओर से अधिसूचित 30 दिनों की अतिरिक्त अवधि के दौरान भी चुनावी बॉन्ड जारी हो सकता है. इलेक्टोरल बॉन्ड हज़ार रुपये, दस हज़ार रुपये, एक लाख रुपये, दस लाख रुपये और एक करोड़ रुपये के मूल्य में मौजूद हैं. ऐसे बॉन्ड की अवधि सिर्फ़ 15 दिनों की होती है.
यही बात ध्यान देने की है कि चुनावी बॉन्ड को अधिकृत बैंक खाते के माध्यम से ही राजनीतिक दल नक़दी में बदलवा पाते हैं. इस वज्ह से सरकार को सब कुछ जानकारी होती है. कहने का मतलब है कि किसने किसको चंदा दिया, यह आम नागरिक तो नहीं जान पाते हैं, लेकिन सरकार को सारी जानकारी होती है.
बड़ी-बड़ी कंपनियों के साथ साँठ-गाँठ से जुड़ा मुद्दा
भारत में सरकार, राजनीतिक दलों और बड़ी-बड़ी कंपनियों के बीच साँठ-गाँठ का मसला कोई नया नहीं है. चंदा देकर सरकार और राजनीतिक दलों से लाभ या फेवर हासिल करने के मुद्दे पर भी बहस होती रही है. आज़ादी के बाद से ही समय-समय पर विपक्षी दलों ने इसे मुद्दा बनाया है. ताज़ा मामला अडाणी ग्रुप से जुड़ा है. कांग्रेस समेत तमाम विपक्षी दल आरोप लगाते रहे हैं कि मोदी सरकार अडानी ग्रुप के पक्ष में नीतियों में हेर-फेर करती रही है. विपक्षी दलों का यह भी कहना है कि मोदी सरकार के फेवर की वज्ह से ही पिछले 9 साल में अडानी ग्रुप का विस्तार तेज़ी से हुआ है. इस साल जनवरी में अदानी ग्रुप को लेकर हिंडनबर्ग की आई रिपोर्ट के बाद इस पर बहस और तेज़ हुई है.
चुनाव आयोग का रवैया भी बदलते रहा है
चुनावी बॉन्ड को लेकर चुनाव आयोग का रवैया भी बदलते रहा है. जब चुनावी बॉन्ड को लेकर केंद्र सरकार की ओर से एलान किया गया था, तब चुनाव आयोग ने इसके ख़िलाफ़ में केंद्र सरकार को एक चिट्ठी भी लिखी थी. शुरूआती दो-तीन साल तक सुप्रीम कोर्ट में भी आयोग का रुख़ बॉन्ड के विरोध में ही रहा था. जहाँ केंद्र सरकार चंदा देने वाले लोगों या संस्थाओं का ख़ुलासा करने के पक्ष में शुरू से नहीं रही है, वहीं चुनाव आयोग का शुरू में मानना था कि सार्वजनिक तौर से नामों के ज़ाहिर होने से राजनीतिक दलों को चंदे के मामले में पारदर्शिता सुनिश्चित करने में मदद मिलेगी. हालांकि धीरे-धीरे चुनाव आयोग के रवैये में बदलाव साफ तौर से देखा जा सकता है.
सुप्रीम कोर्ट से ही बची है अब उम्मीद
इस बीच सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने मामले की सुनवाई करते हुए 31 अक्टूबर को कहा है कि कि वो चुनावी बॉन्ड के माध्यम से दलों को मिले चंदे के ब्यौरे का अध्ययन करेगी. सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई के दौरान कुछ रोचक तथ्य भी सामने आए हैं.
सत्ताधारी दलों के पास अधिक चुनावी बॉन्ड
बतौर एडीआर के वकील की हैसियत से चुनावी बॉन्ड के ख़िलाफ़ तर्क देते हुए 31 अक्टूबर को वरिष्ठ वकील प्रशांत भूषण कहा कि केंद्र और राज्यों में सत्ताधारी दलों के पास 99% चुनावी बॉन्ड गए हैं. वहीं विपक्षी दलों के पास एक फ़ीसदी भी कम बॉन्ड गए हैं. कैसे चुनावी बॉन्ड सत्ताधारी दलों के लिए लाभकारी साबित हो रहा है, इस बात के प्रमाण में प्रशांत भूषण ने दलील दी कि बीजेपी की ओर से चुनावी बांड के ज़रिये घोषित कुल चंदा बाक़ी बचे राष्ट्रीय दलों के चुनावी बॉन्ड से हासिल चंदे से तीन गुना से ज़्यादा था. प्रशांत भूषण ने भी दलील पेश की कि चुनावी बान्ड से हासिल रक़म 9,188 करोड़ में से 4,615 करोड़ कॉर्पोरेट सेक्टर से आया था.
सूचना का अधिकार और अनुच्छेद 19(1)(a)
चुनावी बॉन्ड का मसला सूचना के अधिकार से जुड़ा है. संविधान में मौलिक अधिकार का जो अध्याय है, उसमें अनुच्छेद 19(1)(a) के तहत अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता है. सुप्रीम कोर्ट के तमाम फ़ैसलों के बाद इसके दायरे में होने की वज्ह से सूचना का अधिकार भी नागरिकों के लिए मौलिक अधिकार का हिस्सा है. सवाल यही है कि क्या देश के नागरिकों को राजनीतिक दलों को हासिल होने वाले चंदों के बारे में जानकारी होनी चाहिए या नहीं. चुनावी बॉन्ड की वैधता का मुद्दा सुप्रीम कोर्ट में 2017 में ही पहुंच गया था. हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने 20 जनवरी 2020 को चुनावी बॉन्ड स्कीम पर अंतरिम रोक लगाने से इनकार कर दिया था, लेकिन याचिका पर केंद्र और चुनाव आयोग से जवाब मांगा था. इस मामले में 2017 में दो एनजीओ कॉमन कॉज और एडीआर ने याचिका दायर की थी. बाद में कांग्रेस नेता जया ठाकुर और मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (माकपा) की याचिकाएं भी इनमें जुड़ गयी.
चुनावी बॉन्ड और राजनीतिक चंदा की तस्वीर
यह बात सही है कि जो भी सत्ता में राजनीतिक दल रहता है, उसे शुरू से ही लोगों और कंपनियों से अधिक चंदा हासिल होते रहा है. लेकिन चुनावी बॉन्ड ने 2018 से हालात को पूरी तरह से बदल दिया है. सत्ताधारी दल और बाक़ी विपक्ष में रहने वाले राजनीतिक दलों के बीच चंदा हासिल करने का फ़ासला काफ़ी बढ़ गया है. पारदर्शिता के साथ ही इससे भ्रष्टाचार का भी मुद्दा जुड़ा है. कांग्रेस समेत कई विपक्षी दलों ने आरोप लगाया है कि बीजेपी बड़े कॉरपोरेट समूहों से अपारदर्शी और गुप्त तरीक़े से व्यापक पैमाने पर चंदा हासिल करती है और चुनावी बॉन्ड लाने के पीछे बीजेपी सरकार की यही मंशा थी. हालांकि बीजेपी कहते रही है कि कांग्रेस राजनीतिक चंदे की व्यवस्था को पारदर्शी नहीं बनने देना चाहती है और इस कारण से वो इसका विरोध करती है.
सुप्रीम कोर्ट ने 12 अप्रैल 2019 को एक अंतरिम आदेश दिया था, जिसमें सभी राजनीतिक दलों को सीलबंद लिफ़ाफ़े में चुनावी बॉन्ड से मिली राशि का ब्यौरा चुनाव आयोग को सौंपने को कहा गया था. अब चुनाव आयोग कह रहा है कि उस आदेश के आलोक में राजनीतिक दलों ने सिर्फ़ 2019 का ब्यौरा दिया है. हालांकि सुप्रीम कोर्ट का कहना है कि वो अंतरिम आदेश ब्यौरा देने की सतत प्रक्रिया से जुड़ा हुआ था. इसको देखते हुए सुप्रीम कोर्ट ने चुनाव आयोग से चुनावी बॉन्ड से हासिल चंदा का पूरा ब्यौरा तैयार रखने को कहा है.
नागरिकों के लिए जानना क्यों है ज़रूरी?
संवैधानिक पहलू और क़ानूनी दाँव-पेच के अलावा भी एक पहलू चुनावी बॉन्ड से जुड़ा है. सरकार और राजनीतिक दलों का संबंध किन लोगों से है, किन कंपनियों से है, ये जानना बतौर नागरिक सबका हक़ है. चुनावी बॉन्ड से एक बात सुनिश्चित हो गयी. आर्थिक तौर से रसूख़दार कोई भी शख़्स या छोटी-बड़ी कंपनी राजनीतिक दलों को चुनावी बॉन्ड के ज़रिये कितनी भी बड़ी राशि बतौर चंदा दे सकते हैं.
अगर नागरिकों को इसकी जानकारी रहेगी कि किस कंपनी या किन लोगों ने किस पार्टी को चंदा के तौर पर कितनी बड़ी राशि दी है, तो इसे लोकतांत्रिक व्यवस्था और चुनाव प्रणाली को बेहतर और मज़बूत बनाने में मदद मिलेगी. आम लोग उन जानकारी के आधार पर हमेशा ही इस बात को लेकर सजग रहेंगे कि कहीं सरकार या कोई और राजनीतिक दल चंदे के एवज़ या प्रतिकार में कोई फ़ाइदा तो नहीं पहुंचा रहे हैं. आम लोगों के लिए इस मसले पर सरकार के साथ ही तमाम राजनीतिक दलों से सवाल करने की गुंजाइश बढ़ेगी. सरकार के कामकाज और राजनीतिक दलों की गतिविधियों में ज़्यादा पारदर्शिता और जवाबदेही आयेगी.
सत्ताधारी दल तक ही सीमित नहीं है मुद्दा
यह मसला सिर्फ़ सत्ताधारी दल तक ही सीमित नही है. संसदीय व्यवस्था में देश के नागरिक बारी-बारी से अलग-अलग राजनीतिक दलों को सरकार में आने का मौक़ा देते रहते हैं. इसलिए यह ज़रूरी है कि राजनीतिक चंदे को लेकर नागरिकों को पूरी जानकारी हो. यह एक और दृष्टिकोण से भी महत्वपूर्ण है. जब देश में इस तरह का माहौल बनाने की कोशिश हो कि आम लोग क्या खायेंगे, क्या पहनेंगे, इसको लेकर भी सरकारी या राजनीतिक स्तर पर बहस होने लगे, तो फिर देश के हर नागरिकों को यह जानने का पूरा अधिकार है कि उनके लिए शासन की व्यवस्था संभालने वाले दलों को किस-किस से चंदा मिल रहा है.
पारदर्शिता और जवाबदेही से आगे का मसला
राजनीतिक चंदा का संबंध सिर्फ़ सरकार और राजनीतिक दलों की पारदर्शिता और जवाबदेही से ही नहीं है. इसे पारदर्शी और सार्वजनिक बनाकर हम उस दिशा में एक क़दम बढ़ा सकते हैं, जिससे आने वाले समय में देश में चुनाव लड़ना आसान और कम ख़र्च वाला मामला हो. वर्तमान में जो स्थिति है, उसमें किसी आम नागरिक के लिए लोक सभा या विधान सभा का चुनाव लड़ना और लड़ने से भी अधिक जीत की संभावना को सुनिश्चित करना एक तरह से नामुमकिन ही है. बाहुबल और धनबल का प्रभाव चुनाव जीतने पर पूरी तरह से हावी हो चुका है.
हम सब जानते हैं कि उम्मीदवार के साथ ही तमाम बड़ी पार्टियां चुनाव में बेहिसाब राशि ख़र्च करती हैं. जो तय सीमा है, वास्तविकता में अलग-अलग तरीक़ो से उससे भी कई गुना ज़्यादा राशि चुनाव लड़ने और जीतने पर ख़र्च होता है. बेहिसाब राजनीतिक चंदा भी एक बड़ा कारण है कि चुनाव पर इतनी ज़्यादा राशि ख़र्च की जाती है. आज के समय में चुनावी बॉन्ड राजनीतिक चंदा का सबसे बड़ा हिस्सा है. अगर नागरिकों को इसकी जानकारी होगी, तो इस दिशा में भी एक बड़ा बदलाव देखने को मिल सकता है.
राजनीतिक दलों की ओर से हो ठोस पहल
चुनावी बॉन्ड की वैधता और सूचना के अधिकार के दायरे में आने को लेकर तो सुप्रीम कोर्ट ही अब अंतिम फ़ैसला करेगी. लेकिन पारदर्शिता को सुनिश्चित करने और भ्रष्टाचार की गुंजाइश को पूरी तरह से ख़त्म करने की दिशा में सरकार के साथ ही तमाम राजनीतिक दलों को भी ख़ुद-ब-ख़ुद आगे बढ़कर पहल करने की ज़रूरत है. राजनीतिक दल, जिसमें सत्ताधारी दलों के साथ ही विपक्षी दल भी शामिल हैं, आगे बढ़कर अपने राजनीतिक चंदों की जानकारी अपनी-अपनी वेबसाइट पर बीच-बीच में सार्वजनिक करते रहें.
अगर ऐसा हुआ, तो फिर क़ानूनी क़दम की अहमियत ख़ुद-ब-ख़ुद नहीं रह जायेगी. इससे राजनीतिक दलों पर आधारित संसदीय व्यवस्था पर देश के नागरिकों का भरोसा और भी मज़बूत होगा. हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि संसदीय व्यवस्था में राजनीतिक दलों का अस्तित्व ही नागरिकों की बेहतरी पर आधारित है. इसके साथ ही लोकतांत्रिक प्रणाली का सबसे महत्वूपर्ण पहलू है कि नागरिक सर्वोपरि होते हैं. संविधान, संसद, सरकार, राजनीतिक दल और न्यायपालिका..सभी उसी नागरिक के लिए काम करते हैं. इस नाते भी चुनावी बॉन्ड से तमाम दलों को हासिल होने वाले राजनीतिक चंदे की पूरी जानकारी नागरिकों को मिलनी चाहिए.
[नोट- उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. यह ज़रूरी नहीं है कि एबीपी न्यूज़ ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ़ लेखक ही ज़िम्मेदार हैं.]