आपातकाल की कहानी: आजादी के महज 28 साल बाद निरंकुशता और अत्याचार का दिया वो जख्म, जो बना गया काला इतिहास
24 जून 1975. जब एक तारीख (दिनांक) इतनी तारीक (अंधेरी) हो गयी कि बाद में तवारीख (इतिहास) ही बन गयी. कुल तीन पंक्तियों के एक आदेश ने इस देश को कभी न भूलने वाला एक घाव, एक दर्द दिया. आपातकाल, जिसको आज 48 साल हो गए. जिसकी आंधी में करोड़ों नागरिकों के सिविल अधिकार दफन हो गए. जिसके अत्याचार, निरंकुशता और शोषण की कहानियां आज तक सुनी जाती हैं. जिसे, विनोबा भावे जैसे महामना ने 'अनुशासन पर्व' भी कहा था. जिसके करोड़ों आलोचकों के साथ हजारों प्रशंसक अब भी मौजूद हैं. आपातकाल की कहानी को बार-बार दोहराना इसलिए भी जरूरी है कि आज की युवा पीढ़ी कम से कम यह जान ले कि जो आजादी और स्वतंत्रता उसे अनायास मिली है, सहज सुलभ है, वह दरअसल कितने बलिदानों से मिली है और उसे कायम रखने के लिए कितनी लड़ाइयां हुई हैं!
सभी नागरिक अधिकार थे स्थगित
आपतकाल को अगर एक शब्द में पारिभाषित करना चाहें तो मुश्किल है. हां, उसे 'निरंकुश शासन की पराकाष्ठा' कर सकते हैं. यह बेलगाम और निरंकुश शासन का एक उदाहरण था, जिसे आजाद भारत ने महसूस किया था, आजादी के महज 28 वर्षों बाद. निरंकुशता का बस एक उदाहरण काफी होगा कि उस समय शासन किस तरह से चल रहा था, तो मेरे गांव के एक व्यक्ति ने कुछ बिल्कुल जायज सवाल किए थे. उनका नाम रामेश्वर था. गांव से सटी ही हमारी सड़क गुजरती थी. उसी सड़क पर हमारे गांव के दरोगा आर पी यादव उर्फ रामपलट यादव ने रामेश्वर जी की मूंछें उखाड़ ली थीं. जी हां, हाथ से पकड़कर उखाड़ लीं और कोई कुछ नहीं कर पाया. उनका फिर कुछ नहीं हुआ. आपातकाल में न्यायपालिका के सभी अधिकारों को निरस्त कर दिया था, इसलिए पुलिस पूरी तरह से बेलगाम, हिंसक और निरंकुश थी. चूंकि अदालतें थी नहीं, आप कहीं शिकायत नहीं कर सकते थे, इसलिए पुलिसवाले बेताज बादशाह थे. चारों तरफ एक भयावह, डरावना माहौल था.
केवल राजनीतिज्ञों ने नहीं, हर तबके ने झेला
हमारे पिताजी अध्यापक थे. पड़ोस में झगड़ा हुआ और इस मामले में पुलिसवाले रोज आते थे, नौकरी भी कीजिए और हाजिरी भी भरिए. तो, यह पूरे देश ने झेला है. हरेक परिवार ने झेला है. दिक्कत है कि आज जब भी बात होती है, तो आपातकाल में केवल राजनीति से जुड़े मामलों पर ही बात होती है, लेकिन वेदना तो पूरे देश ने झेली थी, यातना पूरे देश की थी. आपातकाल में आम लोगों के साथ बहुत दुर्व्यवहार हुआ. रिकॉर्ड पर तो केवल वही लोग और घटनाएं आए, जिनकी चर्चा हुई, अन्यथा गांव-गांव में पुलिस का निरंकुश शासन चल रहा था. चूंकि कोई भी कोर्ट नहीं चल रही थी, तो पुलिस लगभग खुदा बन चुकी थी.लोगों को कुछ भी बोलने पर मीसा (यानी, मेन्टेनेंस ऑफ इंटरनल सेक्योरिटी एक्ट) लगाकर बंद कर दिया जाता था. आपको बता दूं कि उस समय कोई सुरक्षित नहीं था. चाहे टीचर हो या सरकारी कर्मचारी हों, किसान हो या मजदूर, किसी को भी कभी भी बंदी बना लेते थे, पिटाई वगैरह मामूली बात थी और पुलिसराज का खौफ चारों तरफ दिखता था.
आपातकाल हरेक हाल और शर्त में निंदनीय
कुछ लोग आपातकाल की प्रशंसा करते हैं. आपको याद होगा कि उस समय इंदिरा गांधी ने बीस-सूत्री कार्यक्रम चलाए थे. उनमें पांच सूत्र तो संजय गांधी के दिए हुए थे, जैसे वृक्षारोपण, हरियाली बढ़ाना और परिवार-नियोजन जो बहुत अधिक बदनाम हुआ. आपातकाल के पक्षकार कहते हैं कि उस समय ट्रेनें समय से चलने लगी थीं, दफ्तर समय से खुलते-बंद होते थे और वह 'अनुशासन-पर्व' था. याद रखना चाहिए कि आजादी तो जीवन का मौलिक अधिकार है और उसे निरस्त करने के बाद किसी भी काम का कोई मतलब नहीं रह जाता है. परिवार-नियोजन का कार्यक्रम इतना बदनाम इसलिए हुआ कि सत्ता ने उसके लक्ष्य निर्धारित कर दिए औऱ चूंकि सत्ता निरंकुश थी तो लोगों को उठाकर ले जाया गया और जबरन नसबंदी करा दी. नसबंदी जिनकी हुई, उनमें 65 साल के बुजुर्गों से लेकर 15 साल के बच्चे भी शामिल थे. आपातकाल का एक्जक्यूशन बहुत बुरा था, दमनकारी था और इसलिए उसे किसी भी तरह जायज नहीं ठहरा सकते हैं. आपातकाल ने परिवार-नियोजन को इतना बदनाम किया कि आज कोई भी नेता आबादी पर बात तक नहीं करता है, जबकि हम दुनिया में सबसे अधिक आबादी वाले देश बन गए हैं. ऐसे माहौल में आज गांधी याद आते हैं, जिन्होंने साधन और साध्य की पूरी तैयारी की है.
बेलगाम थी सत्ता और प्रशासनिक तंत्र
हम लोग चूंकि पत्रकार हैं, तो उसकी बात करेंगे ही. पत्रकारिता ने भी आपातकाल का कहर झेला. सबसे पहले अखबारों की बिजली काटी गयी. किसी ने कुछ खिलाफ लिखने की जुर्रत की, तो उस पर भी कार्रवाई हुई. जेल में ठूंसा गया. बाद में तो अधिकारियों को सेंसर करने का अधिकार भी मिला. यहां यह जोड़ना उचित होगा कि भारत की आजादी उस समय जवान हो ही रही थी. कुल जमा 28 साल हुए थे और फिर जो अधिकारियों को ये सेंसरशिप का अधिकार देकर निरंकुश बना दिया गया. आज जब नौकरशाही और सत्तातंत्र के प्रतिनिधि अधिकारी जब किसी खबर पर सवाल उठाते हैं या उस पर टिप्पणी करते हैं तो मेरे ख्याल से जो खून उनके मुंह में आपातकाल के दौरान लगाया गया, वह बहुत दिनों तक कायम रहा और इसीलिए अधिकारी आजकल भी बाज नहीं आते हैं. आपातकाल के तरीकों पर भी बात होनी चाहिए, उसके दिए कुछ घावों, कुछ दंश पर बात होनी चाहिए. आपातकाल ने 'जीवन के अधिकार' को जिस तरह निरस्त किया, वह आज भी लोगों के मन में भय जगाता है. अब भी सत्ता और उसके प्रतिनिधियों के दांत में आपातकाल का खून लगा है, जिसका असर अब तक महसूस किया जा सकता है. जब तक पूरी व्यवस्था को पूरी तरह ओवरहोल नहीं किया जाता, इसमें कहीं न कहीं आपातकाल के अंश बने रहेंगे.
जो लोग आज के दौर की तुलना 'आपातकाल' से करते हैं, वह या तो बेहद चालाक हैं या लोगों को मूर्ख समझते हैं. जिन्होंने भी 75 का दंश झेला है, सुना है या भोगा है, वे कभी इस तरह की बात नहीं कर सकते. यह तो 'आपातकाल' को हल्का बनाना हुआ, उस काले दौर को बिल्कुल उथला, बिल्कुल छिछला कर देना हुआ. तब बोलना मना था, कुछ भी. आज हम इतना बोल रहे हैं और फिर भी कुछ लोग आपातकाल की बात करते हैं. सोशल मीडिया पर तो आज के दिन में लोग मुख्यमंत्री, प्रधानमंत्री किसी को भी गाली तक दे रहे हैं, लांछन लगा रहे हैं. 1975 जिन्होंने झेली है, उनसे पूछिए. लांछन लगाना तो दूर, अगर आपने कोई सवाल भी पूछा है, तो सत्ता आपको घर से उठा लेती थी, जेल में डाल देती थी. न्यायपालिका सस्पेंड थी, तो लोगों को जमानत तक नहीं मिलती थी. आपातकाल का क्रूर, असली और ठेठ सत्य जब लोग जान जाएंगे, तो आज के दौर की तुलना 'आपातकाल' से कर उसे 'हल्का' या 'सुपरफ्लुअस' नहीं बनाएंगे.
ठीक है कि सत्ता के प्रतिनिधि दमनकारी हैं, गाहे-बगाहे हमारे पास कहानियां आती हैं, लेकिन उन पर नकेल है. आज के दौर में तो सरकार के कई फैसले सुप्रीम कोर्ट पलट दे रहा है, जबकि याद रखना चाहिए कि तब पांच जजों की वरिष्ठता को दरकिनार कर वर्तमान मुख्य न्यायाधीश डी वाई चंद्रचूड़ के पिता वाई वी चंद्रचूड़ को नियुक्त कर दिया था. आज जो लोग यू ट्यूब पर, सोशल मीडिया पर बिल्कुल अपने मन की बात बोल रहे हैं, पूरे मजे से जी रहे हैं, विदेश भी घूम रहे हैं, और फिय ये भी कहते हैं कि अभी देश में 'आपातकाल' है, उनको इस शब्द की गंभीरता ही नहीं पता और वे इसका मजाक उड़ा रहे हैं, मॉकरी कर रहे हैं.
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