अपनी मांगों को लेकर किसान एक बार फिर से सड़कों पर प्रदर्शन कर रहे हैं और दिल्ली चलो के नारे के साथ अपनी जिद मनवाने पर अड़े हैं. वे 13 फरवरी से फिर से आंदोलन कर रहे है. किसानों की मांगें वही हैं, किसानों की बात काफी हद तक जायज भी है. अगर गौर करें तो किसानों की मांग आज से नहीं है, बल्कि जब एमएसपी (Minimum Support Price) बना था, अमेरिका के कॉर्नेल इंस्ट्टीयूट ने, अमेरिकन गवर्नमेंट ने, इन सारे लोगों ने पूरे हिंदुस्तान में सर्वे करके सारी चीजें करके इसको बनाकर भेज दिया था. इंडिया फूड क्राइसिस ऐण्ड स्टेप्स टू मीटिंग जो कि 1959 की बात है, जिसे आज मिनिमम सपोर्ट प्राइस कहते हैं, उसका बेस रहा है.
स्वामीनाथन कमिटी की रिपोर्ट, जो सारी चीजें कही जाती है वो 1964 से 1965, से किसी न किसी तरह से लागू है और इसी के साथ-साथ एग्रीकल्चर, प्रोड्यूस, मार्केट कमिटी एपीएमसी, मंडी समिति, सारी चीजें इससे जुड़ी रही हैं. करीब 70 मिलियन टन के कम से लेकर आज साढ़े 300 मिलियन टन की फूड ग्रेन पैदा कर रहे है, लेकिन समस्याएं उसी तरह बनी हुई है. किसानों को सही मूल्य न मिलने की समस्या है, यदि एमएसपी को भुला दिया जाए तो किसान की जो लागत है उसके हिसाब से उन्हें दाम भी मिलने चाहिए, जो कि उन्हें वर्ल्ड ओवर नहीं मिल रहा है.
किसानों की समस्या ग्लोबल समस्या
पूरे यूरोपियन देशों में, फ्रांस, जर्मनी, पोलैण्ड, स्विट्जरलैंड, स्वीडेन और डेनमार्क इन सारी जगहों पर पिछले दो महीने के अंदर जनवरी-फरवरी में तमाम जगहों पर किसान आंदोलन हुए. वहां भी लोग ट्रैक्टर लेकर ब्रसेल्स में यूरोपियन पार्लियामेंट के सामने डेमोस्ट्रेशन किए, अंडे फेंके, टमाटर फेंके. कुछ चीजों को जला दिए. जर्मनी में किसानों ने वहां के प्राइम मिनिस्टर के घरों में गोबर डंप भी किए, ये सारी चीजें वर्ल्ड ओवरी क्राइसिस है. बार-बार कहा जाता है कि किसानों निकाल कर इंडस्ट्री में लगाया जाए, अमेरिका ने ये भी किया. अमेरिका में 1.5 प्रतिशत लोग गरीब किसान है या खेती करते हैं, उनके साथ भी यहीं समस्या है. एक तरह से किसानों की ये ग्लोबल समस्या है.
दिल्ली में आंदोलन करने की वजह
दिल्ली देश की राजधानी है और राजधानी में सभी को आने का अधिकार है. किसानों द्वारा कभी नहीं कहा गया है कि दिल्ली राजधानी है तो वहां घुसने के लिए गाड़ियों का टोल क्यों लगता है. राजधानी सबकी है, यहां टोल लगने का मतलब नहीं है. किसानों ने कुछ नहीं किया और उन्होंने उस बैरियर को अपना लिया और सरकार हर तरह से बैन लगा रही है. जब छोटे-छोटे बैरियर लगे तो उसे नजरअंदाज किया, ये किसानों की गलती रही है. आज बड़े बैरियर लग रहे हैं. सवाल है कि सरकार क्या चाहती है? सरकार कहती है कि किसान दिल्ली में क्यों आए, जब हम ही जाकर उनसे बात करें.
किसान दिल्ली में इसलिए नहीं आना चाहते हैं, कि उनको दिल्ली से कोई लगाव है, बल्कि किसानों को यह लगता है कि यदी हम दिल्ली में अपनी आवाज लेकर जाते हैं तो आवाज बुलंद होती है. किसानों द्वारा किया गया तमाम आंदोलन कई ऐसे आंदोलन है जो विदर्भ में हुए है. शरद जोशी ने विदर्भ में किए हैं, विदर्भ के बारे में किसी को पता नहीं है. उसके अलावा तमाम कई ऐसे आंदोलन हुए हैं जो देश के विभिन्न क्षेत्रों में हुए है, दूसरे क्षेत्र के लोगों को उसके बारे में जानकारी नहीं है.
प्रेशर पॉलिटिक्स से सरकार को घबराहट
यूपीए सरकार के दौरान एक बहुत बड़ा किसानों का जमाव दक्षिण से चला, महाराष्ट्र आते-आते वह बहुत बड़ा आंदोलन बन गया. जब यूपीए सरकार ने देखा की आंदोलन बढ़ता चला जा रहा है, किसान ग्वालियर तक आ गए, तब सरकार ने यह कहा कि दिल्ली आ जायेंगे तो बहुत बड़ी समस्या हो सकती है क्योंकि चुनाव भी आसपास थे. जब प्रेशर पॉलिटिक्स चुनती है तो सरकार घबरा जाती है. यूपीए सरकार ने ग्वालियर में अपने मंत्रिओं को भेजा और किसानों को समझा-बुझाकर वापस करा दिया. लोगों को पता ही नहीं चला कि इतना बड़ा किसान आंदोलन हुआ है. दिल्ली आकर आंदोलन करने का मकसद यह होता है कि दिल्ली में मीडिया भी इन सभी चीजों पर ध्यान देती है, अच्छे से कवरेज करती है. सरकार को इसे रोकना नहीं चाहिए.
1988 में सबसे बड़ा किसान आंदोलन
दिल्ली में जो अभी तक का सबसे बड़ा आंदोलन रिकॉर्डेड है, वो 1988 में हुआ था. महेंद्र सिंह टिकैत जो कि राकेश टिकैत के पिता भी हैं, उनके पास लाखों किसान आए. ऐसा कहा जाता है कि उनके पास 5 लाख किसान आए. 5 लाख नहीं भी आए तो लाख, डेढ़ लाख किसान जरूर आए होंगे. वो आए और बोट क्लब इंडिया गेट पर रहे थे. वहां पर उन्होंने अपना चूल्हा जलाया, अपनी लंगर जलाई, सबको चलाया.
अपोजिशन के लीडर ने, सरकार के नेताओं ने, मंत्रियों ने एड्रेस किया. प्रधानमंत्री तक वहां गए, उनको एड्रेस किया, उनसे बातचीत की. वहां से हटवाकर लाल किले के मैदान में ले कर रहे. तब किसी ने उनको दिल्ली आने से नहीं रोका. उसमें भी कुछ बातें हुई, कुछ बातें मानी गई, कुछ बातें इंप्लीमेंट की गई. एमएसपी के लिए यह परेशानी इसलिए है कि जितनी भी सरकारें आई हैं, उन्होंने महंगाई को नहीं रोका. महंगाई को न रोकने की वजह से किसानों की लागत लगातार बढ़ती चली गई. जितने भी फैक्ट्री प्रोडक्ट थे उसके मालिक दाम बढ़ाते रहे, जिसमें मल्टीनेशनल कंपनी भी शामिल है.
कॉर्पोरेट सेक्टर की मनमानी
सरकार ने महंगाई को सेट करने की कोशिश नहीं की. एमआरटीपी से होता था, जो तीनों मोनोपॉली को कंट्रोल करता था उसे खत्म कर दिया गया और उसके बाद से देखा गया कि कॉर्पोरेट सेक्टर की मनमानी बढ़ती चली गई. उन सारी चीजों का असर किसान पे आता है और किसान पर जब आता है, चीजों के दाम बढ़ते हैं तो सरकार को भी सारी चीजों के दाम बढ़ाने पड़ते हैं. आज किसान इसलिए परेशान है क्योंकि जितनी महंगाई बढ़ी है उस हिसाब से उनके दाम में इजाफा नहीं हुआ है. यदि सरकार सारी चीजों के दाम बढ़ाएगी तो बाजार के हालात खराब ही होंगे.
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