दो साल बाद एक बार फिर से देश के किसान अपनी मांगों को लेकर आंदोलन की राह पर तेज़ी से आगे बढ़ रहे हैं. किसानों की ओर से की जा रही सबसे प्रमुख मांग ..न्यूनतम समर्थन मूल्य या'नी मिनिमम सपोर्ट प्राइस (MSP) की गारंटी से जुड़ा क़ानून है.


न्यूनतम समर्थन मूल्य या एमएसपी कोई नयी अवधारणा नहीं है. सबसे पहले इस बात को समझना होगा. एमएसपी का प्रावधान किसानों के हित के लिए कई वर्षों से है. कृषि लागत और मूल्य आयोग (CACP) की सिफ़ारिशों के आधार पर केंद्र सरकार की ओर से सरकारी ख़रीद के लिए फ़सलों की न्यूनतम क़ीमत तय होती है.


वर्तमान में भी केंद्र सरकार 22 फ़सलों के लिए एमएसपी का निर्धारण करती है. गन्ना के Fair and remunerative price या'नी उचित एवं लाभकारी मूल्य को मिला दें, तो फ़सलों की संख्या 23 हो जाती है. गन्ना को छोड़कर इनमें 16 ख़रीफ़, 6 रबी और 2 नकदी या'नी कमर्शियल फ़सल हैं.


एमएसपी से किसानों को क्या मिलता है?


आम लोगों के लिए यह सवाल हो सकता है कि जब सरकार पहले से ही एमएसपी का एलान करती है, तो फिर किसान इसको लेकर क़ानून की मांग क्यों कर रहे हैं. इससे जुड़े कई पहलू हैं, जिसे देश के आम लोगों को भी समझने की ज़रूरत है.


न्यूनतम समर्थन मूल्य किसानों को उनकी उपज की क़ीमतों को लेकर एक प्रकार की गारंटी है. यहाँ पर एक पेच है. एमएसपी ऐसी गारंटी राशि है जो किसानों को तब दी जाती है जब सरकार उनकी उपज खरीदती है. इसका मतलब है कि किसानों को एमएसपी तभी सुनिश्चित हो पाता है, जब ख़रीद सरकारी स्तर पर हो. सरकारी मंडियों से बाहर के बाज़ार में या'नी खुले बाज़ार में किसानों को अभी एमएसपी की गारंटी हासिल नहीं है. वर्तमान सिस्टम से केवल यह सुनिश्चित हो पाता है कि अधिक उत्पादन या किसी और कारणों से फ़सलों के दाम में बाज़ार के हिसाब से गिरावट आ भी जाती है, तब भी सरकारी ख़रीद में किसानों को एमएसपी ज़रूर मिलेगा.



देशव्यापी क़ानून से स्थिति कैसे बदलेगी?


एमएसपी की गारंटी को लेकर देशव्यापी क़ानून बन जाएगा, उस परिस्थिति में चाहे सरकारी ख़रीद हो या निजी बाज़ार में ख़रीद हो, किसानों को उनकी उपज का न्यूनतम समर्थन मूल्य मिलता रहेगा. आज़ादी के 75-76 साल बाद भी यह वास्तविकता है कि देश में किसान जितनी फ़सल पैदा करते हैं, उसकी एक छोटी सी मात्रा की ख़रीद एमएसपी पर हो पाती है. देश में कुल कृषि उपज के काफ़ी कम हिस्से की ख़रीदारी एमएसपी के तहत होती है. दस फ़ीसदी से भी कम किसान इसका लाभ उठा पाते हैं.


क़ानून से खुले बाज़ार की मनमानी पर अंकुश


अगर क़ानून बन जाता है, तो सरकारी मंडियों या सरकारी एजेंसियों से बाहर भी अपनी फ़सल को एमसीपी से कम पर बेचने की मजबूरी से किसानों को मुक्ति मिल जाएगी. कृषि उपज की ख़रीदारी के मामले में निजी क्षेत्र या कॉरपोरेट घरानों का ही आधिपत्य है. आज भी किसान बड़े पैमाने पर अपनी उपज को निजी बाज़ार की शर्तों पर औने-पौने दाम में बेचने को विवश है. एमएसपी को लेकर गारंटी क़ानून होने से भविष्य में इस परिदृश्य में व्यापक बदलाव देखने को मिल सकता है. गारंटी का मतलब यह कतई नहीं है कि सरकार को किसानों की सारी उपज ख़रीदना ही होगा, बल्कि गारंटी से मतलब है कि निजी बाज़ार में उस मूल्य से कम पर ख़रीदारी नहीं होगी.


सरकार के लिए ख़रीदारी अनिवार्य नहीं


इस विमर्श को बढ़ावा दिया जा रहा है कि एमएसपी क़ानून से देश दिवालिया हो जाएगा या आर्थिक असंतुलन पैदा हो सकता है. यह भी दलील दी जा रही है कि सरकारी ख़जाने पर दस लाख करोड़ रुपये का अतिरिक्त बोझ पड़ेगा. इन तर्कों में कोई सच्चाई है और न ही ठोस आधार. किसान की मांग यह कतई नहीं है कि सरकार सारी उपज ख़रीदे. सरकार जितना ख़रीदना चाहती है, उतना ही ख़रीदेगी. क़ानून से इतना हो पाएगा कि खुले बाज़ार में एमएसपी से कम क़ीमत पर अनाज बेचने के लिए किसानों की मजबूरी ख़त्म हो जाएगी. क़ानून बनने से एमएसपी से कम दाम पर फ़सल ख़रीद अपराध बन जाएगा और खुले बाज़ार में कोई भी इससे कम पर बेचने के लिए किसानों पर दबाव नहीं बना पाएगा.


स्वामीनाथन आयोग और C2+50% फ़ॉर्मूला


यह तो एमएसपी गारंटी को लेकर क़ानून के नफ़ा'-नुक़सान से जुड़ा पहलू हो गया. इसके बाद सवाल उठता है कि एमएसपी कैसा हो. अभी वर्तमान में जिस तरह से एमएसपी का निर्धारण होता है, किसान संगठन उसमें बदलाव चाह रहे हैं. किसान संगठनों की मांग है कि एमएसपी का निर्धारण स्वामीनाथन आयोग की सिफ़ारिशों के आधार पर हो.


फ़िलहाल A2+FL लागत के ऊपर 50% लाभ जोड़कर सरकार एमएसपी का निर्धारण करती है. स्वामीनाथन आयोग ने न्यूनतम समर्थन मूल्य तय करने के लिए C2+50% फ़ॉर्मूले को लागू करने की सिफ़ारिश की थी. इसके मुताबिक़ C2 लागत के ऊपर 50 फ़ीसदी जोड़कर एमएसपी तय किया जाना है. किसान संगठन गारंटी क़ानून में इसी फ़ॉर्मूले के तय एमएसपी का निर्धारण चाहते हैं.


एमएसपी के निर्धारण में तीन टर्म है, जिसको समझने की ज़रूरत है. एमएसपी का निर्धारण करने वाला आयोग CACP) इस दायरे में आने वाले हर फसल के लिए राज्य और अखिल भारतीय औसत स्तर पर तीन प्रकार की उत्पादन लागत का अनुमान लगाता है. इसे 'A2', 'A2+FL' और 'C2' के रूप में जानते हैं.


'A2' के तहत किसान की ओर से सीधे नकद और वस्तु के रूप में किए गए सभी भुगतान लागत को कवर किया जाता है. इसमें बीज, उर्वरक, कीटनाशक, किराए पर लिया गया श्रम, पट्टे पर ली गई भूमि, ईंधन, सिंचाई आदि शामिल है. 'A2'...को 'एक्चुअल पेड आउट कॉस्ट'  कहते हैं. 


'A2+FL' में A2 के साथ ही अवैतनिक पारिवारिक श्रम का अनुमानित मूल्य भी जोड़ दिया जाता है. या'नी  फ़सल उत्पादन करने में किसान जो मेहनत कर रहा है और जिसके लिए उसे कुछ मेहनताना मिल नहीं रहा है, उसकी मेहनत का एक मूल्य लगाकर फ़सल की लागत में जोड़ दिया जाता है. 'A2+FL'...को  'एक्चुअल पेड आउट कॉस्ट प्लस इम्प्यूटेड वैल्यू ऑफ फैमिली लेबर' कहते हैं.


'C2' के तहत लागत अनुमान में  स्वामित्व वाली भूमि और अचल पूंजी सम्पत्तियों के किराये और ब्याज को भी ध्यान में रखा जाता है. इससे यह 'A2+FL'की तुलना में फ़सल की अधिक व्यापक लागत को दर्शाता है. सरल शब्दों में कहें, तो, C2 के दायरे में  नकदी और गैर-नकदी ख़र्च के साथ-साथ भूमि का किराया और बाक़ी खर्चों पर लगने वाला ब्याज भी शामिल होता है. C2 को 'काम्प्रिहेन्सिव कॉस्ट इन्क्लूडिंग इम्प्यूटेड रेंट एंड इन्टरस्ट ऑन ओनड लैंड एंड कैपिटल' कहते हैं.


C2+50% फ़ॉर्मूले से लाभ का समीकरण


कृषि लागत और मूल्य आयोग तीनों तरह के अनुमान लगाता है, लेकिन सरकार एमएसपी का एलान 'A2+FL' लागत के ऊपर 50 प्रतिशत लाभ जोड़कर ही करती है. अगर सरकार एमएसपी के निर्धारण में C2+50% फ़ॉर्मूले को लागू करने लगेगी, तो इसके किसानों के लिए उपज की अधिक क़ीमत सुनिश्चित हो जाएगी. सवाल उठता है कि अगर C2+50% फ़ॉर्मूले  के तहत एमएसपी का निर्धारण होने लगेगा तो किसान को किस हद तक फ़ाइदा मिल सकता है.


क्विंटल पर पाँच सौ से हज़ार रुपये का लाभ


उदाहरण से समझें, तो फ़िलहाल वित्तीय वर्ष 2023-24 के लिए धान ग्रेड 'ए' का एमएसपी 2203 रुपये प्रति क्विंटल है. वहीं इस अवधि में गेहूँ के लिए एमएसपी 2275 रुपये प्रति क्विंटल है. अगर स्वामीनाथन आयोग के बताए फ़ॉर्मूले के तहत एमएसपी का निर्धारण होने लगे तो गेहूँ और धान के मामले में किसानों को प्रति क्विंटल तक़रीबन पाँच सौ से लेकर हजा़र रुपये और अधिक मिल सकता है. इसलिए किसान स्वामीनाथन आयोग की सिफ़ारिशों के आधार पर एमएसपी का निर्धारण चाहते हैं.


एमएसपी को लेकर राजनीति का फेर


एमएसपी को लेकर किसानों की मांग और उस पर राजनीति की बात करें, तो एक निष्कर्ष निकलता है. चाहे कांग्रेस हो या बीजेपी.. सत्ता और विपक्ष में रहने पर दोनों ही राजनीितक दलों का सुर बदल जाता है. जब कांग्रेस सत्ता में थी तब एमएसपी के निर्धारण में  स्वामीनाथन आयोग के C2+50% फ़ॉर्मूले पर ख़ामोश थी. इसके विपरीत उस वक़्त विपक्ष की भूमिका में रही बीजेपी इसे लागू करने को लेकर यूपीए सरकार पर दबाव बनाने को लेकर मुखर थी. अब बीजेपी सत्ता में है, तो उसकी ओर से आना-कानी हो रही है और कांग्रेस विपक्ष में है, तो उसकी ओर से भविष्य में सरकार बनने पर इसे लागू करने का वादा किया जा रहा है.


एमएसपी के निर्धारण में स्वामीनाथन आयोग की सिफ़ारिश को लागू करने को लेकर देश की दोनों ही प्रमुख दलों कांग्रेस और बीजेपी की ओर पिछले डेढ़ दशक से किसानों को राजनीति में उलझा कर रखने की पुरज़ोर कोशिश की गयी है.


एमएसपी की शुरूआत और मकसद


ऐसे तो एमएसपी का कॉन्सेप्ट भारत में पहली बार 1960 के दशक में हरित क्रांति के समय आया था. गेहूँ के लिए पहली बार इसे लागू किया गया था. फिर धीरे-धीरे बाक़ी फ़सलों को भी इसके दायरे में लाया गया. शुरूआत में इसका उद्देश्य सरकारी ख़रीद के ज़रिये खाद्यान्नों का भंडारण और महंगाई पर नियंत्रण था. इसके साथ ही एमएसपी का मकसद किसानों को उनकी उपज के लिए लाभकारी मूल्य सुनिश्चित करना और फसल विविधीकरण को प्रोत्साहित करना रहा है. एक तरह से देखें, तो सैद्धांतिक तौर से एमएसपी का मकसद बाज़ार जोखिम से किसानों को बचाना था. हालाँकि व्यवहार में यह कभी भी सुनिश्चित नहीं हो पाया.


जनवरी 1965 में एग्रीकल्चर प्राइसेस कमीशन (APC) का गठन किया जाता है, जिसका 1985 में नाम बदलकर कमीशन फॉर एग्रीकल्चरल कॉस्टस एंड प्राइसेस (CACP) कर दिया जाता है. केंद्र सरकार एमएसपी का निर्धारण इसी आयोग की सिफ़ारिशों के आधार पर करती है. स्वामीनाथन आयोग की रिपोर्ट से एमएसपी को लेकर किसानों की मांग को नया कलेवर मिला. इससे जुड़ी राजनीति को समझने के लिए स्वामीनाथन आयोग के कालखंड पर नज़र डालना होगा.


राष्ट्रीय किसान आयोग का गठन और रिपोर्ट


किसानों की समस्याओं पर विचार करने के लिए राष्ट्रीय किसान आयोग का गठन 18 नवंबर, 2004 को किया जाता है.  देश के महान कृषि वैज्ञानिक एम. एस. स्वामीनाथन इसके चेयरमैन बनाए जाते हैं. इस आयोग को ही आम लोग स्वामीनाथन आयोग से जानते हैं. आयोग दिसंबर 2004 से अक्टूबर 2006 के बीच पाँच रिपोर्ट केंद्र सरकार को सौंपता है. पाँचवीं और अंतिम रिपोर्ट 4 अक्टूबर, 2006 को आ जाती है.


यूपीए सरकार 7 साल तक रही थी ख़ामोश


किसानों की स्थिति में सुधार के लिए आयोग ने कई सिफ़ारिशें की. इनमें से ही एक सिफ़ारिश न्यूनतम समर्थन मूल्य तय करने के लिए C2+50% फ़ॉर्मूला था. उस वक़्त कांग्रेस की अगुवाई वाली यूपीए सरकार आयोग की तमाम सिफ़ारिशों में से कई को येन केन प्रकारेण मान लेती है और लागू करने का प्रयास भी करती है. लेकिन मई 2014 तक सत्ता में रहने के बावजूद कांग्रेस की अगुवाई वाली सरकार  C2+50% को मानने से इंकार करते रहती है.


राजनीति का खेल देखिए, स्वामीनाथन आयोग की आख़fरी रिपोर्ट आने के बाद साढ़े सात साल सरकार में कांग्रेस होती है. इतनी लंबी अवधि में भी इस दिशा में यूपीए सरकार कोई ठोस पहल नहीं करती है. उस वक़्त तक यूपीए सरकार का कहना था कि ऐसा करने से बाज़ार की स्थिति बिगड़ सकती है. संसद में भी यूपीए सरकार की ओर से बार-बार इससे जुड़े प्रश्न पर यही तर्क दिया गया था.


विपक्ष में रहने पर बीजेपी का सुर अलग था


विडंबना देखिए कि यूपीए सरकार में एमएसपी को लेकर सवाल विपक्षी पार्टी बीजेपी पूछती थी. इस दौरान इस आधार पर बीजेपी यूपीए सरकार को किसान विरोधी तक बताती थी. कांग्रेस अब विपक्ष में है और अब वो बीजेपी पर आरोप लगा रही है. कांग्रेस की ओर से इतना तक कहा जा रहा है कि 2011 में जब नरेंद्र मोदी गुजरात के मुख्यमंत्री थे, उस समय एक कार्य समूह के अध्यक्ष के तौर पर उन्होंने तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को एक रिपोर्ट सौंपी थी, जिसमें कहा गया था कि कानूनी प्रावधानों से यह सुनिश्चित करना चाहिए कि किसान और व्यापारी के बीच कोई भी खरीद-बिक्री एमएसपी के नीचे नहीं हो.


सत्ता में आते ही बीजेपी का सुर बदला


आम चुनाव, 2014 में चुनाव प्रचार के दौरान भी नरेंद्र मोदी ने वादा किया था जिसमें कहा गया था कि सभी तरह की लागत और 50% के फॉर्मूले के तहत ही एमएसपी का निर्धारण होगा. हालाँकि अब दस साल होने जा रहा है, इसके बावजूद मोदी सरकार इसे लागू करने से इंकार करती आ रही है.


अब बीजेपी सत्ता में है, तो आना-कानी कर रही है. इसके विपरीत कांग्रेस विपक्ष में है, उसके शीर्ष नेतृत्व की ओर से वादा किया जा रहा है कि सरकार में आने पर सबसे पहले स्वामीनाथन आयोग के मुताबिक़ एमएसपी की क़ानूनी गारंटी दिया जाएगा. इस सिलसिले में कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी और मौजूदा अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे दोनों ही लगातार हर मंच से वादा कर रहे हैं.


यह अच्छी बात है कि विपक्ष में आने के दस बाद ही सही, कांग्रेस वादा कर रही है. इसके साथ ही राहुल गांधी और मल्लिकार्जुन खरगे को देश की जनता के सामने यह भी खुलकर बताना चाहिए कि आख़िर वो कौन सी मजबूरी थी, जिसकी वज्ह से यूपीए सरकार रिपोर्ट मिलने के सात साल तक इस मसले पर चुप्पी साधे बैठी थी.


पक्ष-विपक्ष के हिसाब से तय होती रणनीति


प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, एनडीए सरकार और बीजेपी एमएसपी से जुड़े वादा को लेकर कटघरे में तो हैं ही, कांग्रेस भी उन सवालों से बच नहीं सकती है. अगर राहुल गांधी कांग्रेस की मजबूरियों का खुलासा नहीं करते हैं, तो फिर इसे सिर्फ़ चुनावी हथकंडा ही कहा जाएगा. अब कांग्रेस कह रही है कि स्वामीनाथन आयोग की रिपोर्ट में 201 सिफारिशें थी,जिसमें से यूपीए सरकार 175 लागू कर चुकी थी. हालाँकि जो सबसे महत्वपूर्ण सिफ़ारिश थी, उस पर ही कुंडली मारकर यूपीए सरकार साढे़ सात साल तक बैठी रही.


एमएसपी पर मोदी सरकार का रवैया


दूसरी तरफ भी स्थिति वैसी ही है. बीजेपी विपक्ष में थी तो यूपीए सरकार पर दबाव बना रही थी. अब सत्ता में है, तो तमाम तरह की मजबूरी और परिस्थिति का हवाला दे रही है. कृषि से जुड़े तीन क़ानूनों को वापस लेने की घोषणा करते समय 19 नवंबर, 2021 को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने देशवासियों से क्षमा मांगते हुए एक वादा किया था. उन्होंने कहा था कि एमएसपी को और अधिक प्रभावी और पारदर्शी बनाने के लिए एक कमेटी का गठन किया जाएगा. इस वादा को भी दो साल से अधिक का समय बीत गया है, लेकिन मोदी सरकार एमएसपी को अधिक प्रभावी और पारदर्शी बनाने के वादे को पूरा नहीं कर पायी.


मोदी सरकार सुप्रीम कोर्ट में कर चुकी है इंकार


मोदी सरकार सुप्रीम कोर्ट तक में इनपुट कॉस्ट का हवाला देकर C2+50% फ़ॉर्मूले को लागू करने को लेकर अपनी असमर्थता जता चुकी है. मोदी सरकार ने कोर्ट में कहा था कि केंद्र सरकार के पास जो वित्तीय संसाधन उपलब्ध है, उसमें C2+50% फ़ॉर्मूला लागू करना व्यावहारिक नहीं है. ऐसे में सवाल उठता है कि जब लागू करना व्यावहारिक था ही नहीं, तो एमएसपी पर स्वामीनाथन आयोग की सिफ़ारिश को लागू करने का वादा बीजेपी के तमाम नेताओं ने क्यों किया था. इस वादाखिलाफ़ी से मजबूर होकर किसान फिर से आंदोलन की राह पर है.


किसानों को लेकर प्रधानमंत्री मोदी का वादा


प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी 2014 के बाद से बार-बार इस वादे को दोहराते रहे कि 2022 तक किसानों की आय दोगुनी हो जाएगी, लेकिन अब 2024 आ गया. आख़िर ऐसा क्यों नहीं हुआ, इसके बारे में न तो प्रधानमंत्री मोदी कोई जवाब देते हैं और न ही बीजेपी कुछ बोल पाती है. 18वीं लोक सभा चुनाव के मुहाने पर जाकर अब केंद्रीय कृषि मंत्री अर्जुन मुंडा कह रहे हैं कि किसान जिस तरह के क़ानून की मांग कर रहे हैं, उसके बारे में बिना सोचे-समझे निर्णय नहीं लिया जा सकता. अर्जुन मुंडा के बयान से तो यही कहा जा सकता है कि लगातार दो कार्यकाल पूरा होने जा रहा है, लेकिन फिर भी मोदी सरकार को सोचने का समय नहीं मिला है.


कॉर्पोरेट सेक्टर का हित और मुनाफ़े का पहलू


दरअसल एमएसपी को लेकर किसानों की जो मांग है, पिछले 16-17 साल से वो मांग राजनीति का शिकार होती रही है. इसमें कॉर्पोरेट सेक्टर की बड़ी भूमिका है, इससे इंकार नहीं किया जा सकता. अगर क़ानून बन गया, तो किसानों को कितना लाभ होगा, वो अलग मुद्दा है, लेकिन ऐसा होने से निजी क्षेत्र और बड़े-बड़े कारोबारियों की मुश्किलें ज़रूर बढ़ जाएंगी, इतना तय है.


यह वो सबसे महत्वपूर्ण और प्रभावी फैक्टर है, जिसकी वज्ह चाहे कांग्रेस की सरकार हो या बीजेपी की सरकार, एमएसपी को लेकर क़ानून बनाने से दूर भागती रही है. विडंबना देखिए कि जब-जब कॉर्पोरेट जगत को छूट देने का मुद्दा आता है, तब बिना किसी आंदोलन के केंद्र सरकार ऐसा कर देती है. चाहे कॉर्पोरेट टैक्स में कमी की बात हो या फिर उद्योग जगत के लिए पैकेज की मांग हो...केंद्र सरकार की दरियादिली किसी से छिपी नहीं है. दो दशक की केंद्रीय नीतियों पर ग़ौर करें, तो, इसमें कांग्रेस-बीजेपी सब एक ही पाले में हैं. कॉर्पोरेट का हित और मुनाफ़ा इसमें सबसे बड़ी अड़चन रही है.


किसानों के साथ इस तरह का बर्ताव क्यों?


एक बात समझनी होगी. किसान शौक़ से आंदोलन का रास्ता नहीं अपना रहे हैं. सत्ता के मठाधीशों तक अपनी आवाज़ पहुंचाने के लिए मजबूर होकर ही इस कँटीली राह पर किसानों को बार-बार चलना पड़ रहा है. कोई शौक़ से अपनी जान नहीं गँवाता है. पिछली बार सात सौ से अधिक किसानों की जान गयी थी.


किसान न तो आतंकवादी है और न ही देशद्रोही या दूसरे मुल्क के नागरिक है. इसके बावजूद जिस तरह से किसानों के आंदोलन को कुचलने के लिए हर बार सरकार की ओर से दमनकारी नीति अपनायी जाती है, वो स्वस्थ लोकतंत्र की परिचायक तो कतई नहीं है. आज़ाद भारत में शंतिपूर्ण आंदोलन करना संवैधानिक हक़ है. किसान अन्नदाता हैं, कोई आतंकवादी नहीं. हर सरकार को यह बात समझनी चाहिए.


भारत रत्न बनाम आँसू गैस की राजनीति


मोदी सरकार...किसान नेता और पूर्व प्रधानमंत्री चौधरी चरण सिंह और कृषि वैज्ञानिक एम. एस. स्वामीनाथन को भारत रत्न देकर अन्नदाताओं के सम्मान का दावा कर रही है. यह किस तरह का सम्मान है कि वास्तविकता में किसानों के आंदोलन को क्रूरता से कुचलने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ा जा रहा है. राजनीतिक और सरकारी स्तर पर असंवेदनशीलता का इससे ख़राब उदाहरण क्या हो सकता है कि एक तरफ इन दोनों को मोदी सरकार भारत रत्न देती है और दूसरी ओर इन दोनों को आदर्श मानने वाले किसानों पर आँसू गैस का गोले दागे जा रहे हैं.


एम. एस. स्वामीनाथन की बेटी और अर्थशास्त्री मधुरा स्वामीनाथन भी किसानों के साथ हो रहे बर्ताव को लेकर नाराज़गी जतायी हैं.  उनका कहना है कि किसान अपराधी नहीं हैं कि उनके लिए जेल तैयार की जाए या बैरिकेड्स लगाया जाए. उन्होंने कहा है कि एम. एस. स्वामीनाथन का सम्मान करना है तो कृषि के लिए जो भी रणनीति बने, उसमें किसानों को साथ लेकर चलना होगा.


भविष्य में किसानों की राह नहीं है आसान


कुल मिलाकर यही कहा जा सकता है कि स्वामीनाथन आयोग के मुताबिक़ एमएसपी का मसला 2006 से ही पूरी तरह से राजनीतिक आरोप-प्रत्यारोप के इर्द-गिर्द घूमता रहा है. पहले यूपीए सरकार विरोध में थी. अब एनडीए सरकार विरोध में है. पहले इस मसले पर बीजेपी किसानों के पक्ष में होने का दावा कर रही थी और कांग्रेस सत्ता के छोर पर बहानेबाजी में जुटी थी.


अब कांग्रेस इस मुद्दे पर किसानों के पक्ष में होने का दावा कर रही है और सत्ता के छोर पर बीजेपी टाल-मटोल में जुटी है. डेढ़ दशक से भी अधिक समय से स्वामीनाथन आयोग के फ़ॉर्मूले के तहत एमएसपी का मसला गोल-गोल सियासी चक्रव्यूह में घूम रहा है. दूसरी तरफ राजनीतिक दावा-वादा में उलझकर किसान आंदोलन की राह पर हैं. किसानों के लिए इस मुद्दे पर आगे की राह भी आसान नहीं रहने वाली है.


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