प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने इस साल खरीफ की फसलों पर किसानों की लागत का डेढ़ गुना यानि एमएसपी पर पचास फीसद मुनाफा देने की घोषणा की थी . इस घोषणा से किसानों के दिल बाग बाग हो गये थे . खरीफ की फसलें जैसे मूंग , उड़द , सोयाबीन , बाजरा मंडियों में पहुंचनी शुरु हो गयी है . माना जा रहा है कि राजस्थान , मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ के विधानसभा चुनावों में बीजेपी एमएसपी के बहाने किसानों के वोट बैंक में भी सेंध लगाना चाहती है और खुद को किसानों की सबसे बड़ी हितेषी बता लोकसभा चुनावों में भी इसका लाभ उठाना चाहती है . लेकिन क्या वास्तव में ऐसा हो पाएगा . अगर राजस्थान के मददेनजर बात करें तो ऐसा होना मुश्किल नजर आता है . सिर्फ तीन फसलों ( सोयाबीन , मूंग और बाजरा ) को लेकर अगर बात की जाए तो लागत से डेढ़ गुना ज्यादा देना और जमीनी हकीकत में जमीन आसमान का फर्क नजर आता है .


राजस्थान में इस साल करीब 38 लाख टन रिकॉर्ड बाजरा का उत्पादन हुआ है . सरकार ने इसका एमएसपी भी 1950 रुपये प्रति क्विंटल रखा है . बाजरा किसान आमतौर पर छोटा और गरीब होता है . सरकार को अगर उसका चुनावी लाभ उठाना था तो इसकी सरकारी खरीद एमएसपी पर शुरु कर देनी चाहिए थी . लेकिन पता चला है कि राज्य सरकार बाजरे की सरकारी खऱीद शुरु ही नहीं करना चाहती . सवाल उठता है कि अगर आप एक किलो बाजरा भी एमएसपी पर खरीदने के लिए तैयार नहीं है तो उसपर 1950 रुपए की एमएसपी की घोषणा की ही क्यो गयी . किसानों का मानना है कि यह उनके साथ धोखा है .


जयपुर जिले की चाकसू मंडी में इन दिनों बाजरा के ढेर लगे हैं . यहां मंडी में 1200 से लेकर 1350 रुपये प्रति क्विंटल की बोली लग रही है . किसानों का कहना है कि बाजरे में कुछ काले दानें होने पर व्यापारी उसे कैटल फीड ( पशुओं के लिए चारा ) घोषित कर देते हैं और भाव घटा देते हैं . किसान कहते हैं कि जब सरकारी खरीद के लिए कांटा लगना ही नहीं था तो फिर एमएसपी चाहे 1950 करो या 2950 हमें क्या फर्क पड़ता है . किसान कहते हैं कि वैसे भी सरकारी खरीद होने की सूरत में भी सरकार पांच फीसद माल ही खरीदती है . छोटे किसान को अब गेहूं और सरसों की बिजाई करनी है जिसके लिए उसे बीज , खाद खरीदने के लिए पैसा चाहिए . ऐसे में उसके पास सस्ते में बाजरा बेचने के आलावा कोई विकल्प नहीं है . किसान कहते हैं कि सरकारी खरीद पर पैसा दो दो महीनों के बाद मिलता है और वहां भी रिश्वत देने पर ही बाजरा पास किया जाता है .


किसानों के सवालों के जवाब में राज्य सरकार का कहना है कि उसने सरकारी खरीद के लिए ऑनलाइन व्यवस्था की है . किसानों को अब पटवारी से गिरदावरी लेनी होगी . गिरदावरी से पता चलता है कि किसान ने कितने बीघा खेत में अमुक फसल बोई थी . सरकार ने हर फसल की प्रति बीघा उपज तय कर रखी है और इस तरह वह बीघा से अनुमान लगा लेती है कि कि किसान से कितनी फसल की सरकारी खरीद करनी है . जैसे , मूंग की बात करें तो सरकार ने प्रति बीघा एक क्विंटल मूंग की फसल होना माना है . गिरदावरी के साथ साथ किसान को भामाशाह कार्ड , आधार कार्ड और बैंक की कापी नत्थी करनी होगी . ई मित्र के जरिए वह आसानी से ऑन लाइन आवेदन दे सकता है . पूरी प्रक्रिया मंजूर होने पर किसान के मोबाइल पर मैसेज आ जाएगा कि उसे कब किस दिन किस मंडी में अपनी फसल लेकर पहुंचना है . वहां गेट पास कटवाने के बाद उसकी फसल तौली जाएगी और किसान को एमएसपी पर पैसा मंजूर कर लिया जाएगा जो सीधे उसके बैंक अकाउंट में जमा हो जाएगा . सरकार का कहना है कि इससे पारदर्शिता आएगी और कालाबाजारी करने वालों को निराश होना पड़ेगा . लेकिन किसानों का दर्द है कि सर्वर दस पांच मिनट बाद ही बैठ जाता है . फार्म भरने में दिक्कत आती है . कुछ का कहना है कि पटवारी प्रभावशाली किसानों की गिरदावरी किये बिना ही पारित कर रहे हैं .


नागौर की मेड़ता सिटी अनाज मंडी में मूंग के पहाड़ ही पहाड़ नजर आते हैं . मूंग का एमएसपी सरकार ने 6975 रुपये प्रति किवंटल मंजूर किया है जो पिछले साल के मुकाबले 1450 रुपये ज्यादा है . यहां भी सरकारी कांटा तो लगा है लेकिन ऑन लाइन खरीद परेशानी का सबब है . किसानों की यहां भी शिकायत है कि सर्वर ठप्प रहता है . पटवारी को गिरदावरी के बीस रुपये और ई मित्र वाले को पचास रुपये देने पड़ते हैं . यह अन्य खर्चों के अलावा है . जब लेखक मंडी पहुंचा तो वहां मूंग की बोली लग रही थी . 6975 की जगह बोली पांच हजार से लेकर 5400 के बीच की लग रही थी . किसानों का कहना है कि अगर लागत का डेढ़ गुना देना है तो कम से कम एमएसपी दस हजार रुपये होनी चाहिये . किसान कहते हैं कि एक क्विंटल मूंग पैदा करने का खर्च ही पांच हजार के आस पास आता है और ऐसे में सिर्फ लागत ही निकल पाती है . मूंग जैसा हाल सोयाबीन का भी है . इसका एमएसपी 3400 रुपये है जबकि कोटा की भामाशाह मंडी में किसानों को तीन हजार से ज्यादा नहीं मिल रहे हैं . यहां भी सरकारी खरीद शुरु नहीं हो पायी है .


लेकिन इस कहानी का दूसरा पहलू है कि एमएसपी बढ़ने से व्यापारियों में दबाव बना है . सोयाबीन का एमएसपी पिछले साल 3050 रुपये था और किसानों को मंडी में 2500 से 2700 के बीच ही मिल रहे थे . इस बार सोयाबीन का एमएसपी 3400 है और किसानों को 3100 तक मिल रहे हैं . इसी तरह बाजरे का एमएसपी 1950 करने से किसानों को 1350 से 1400 तक अच्छी किस्म के बाजरे के मिल रहे हैं जो पिछली बार से ज्यादा हैं . कुल मिलाकर भले ही लागत का डेढ़ गुना देने का वायदा पूरा नहीं हो पाया हो लेकिन किसानों को पिछले साल के मुकाबले कुछ फायदा जरुर हो रहा है . लेकिन यह फायदा इतना नहीं है कि बीजेपी को चुनावी लाभ मिल सके .


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