प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अगुवाई में तक़रीबन एक दशक से केंद्र में एनडीए की सरकार है. इस अवधि में एक मुद्दा काफ़ी सुर्ख़ियों में रहा है. वो मुद्दा किसानों से जुड़ा है. मोदी सरकार का दूसरे कार्यकाल पूरा होने के मुहाने पर है और दो महीने के बाद ही लोक सभा चुनाव होना है. इसके बावजूद किसानों की नाराज़गी दूर करने में मोदी सरकार नाकाम रही है.
दो साल के बाद एक बार फिर से देशभर के किसान अपनी मांग को लेकर आंदोलन कर रहे हैं. 'दिल्ली चलो' के नारा के साथ देश के अलग-अलग हिस्सों से किसानों का जत्था धीरे-धीरे देश की राजधानी पहुँचने की कोशिश में जुटा है. हालाँकि किसान दिल्ली तक नहीं पहुँच पाएं, इसके लिए सरकार की ओर से तमाम तरह के उपाय किए जा रहे हैं.
अन्नदाताओं का आंदोलन और सरकारी सख़्ती
चूंकि अन्नदाताओं के इस आंदोलन में पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के किसानों की बड़ी भूमिका रहती है और इन इलाकों से ही बड़े पैमाने पर किसान दिल्ली पहुँचने की कोशिश करते हैं. ऐसा न हो, इसके लिए सरकारी स्तर पर सीमाओं को सील किया गया है. जिन-जिन उपायों को सरकारी स्तर पर अपनाया गया है, उनमें कुछ तो बेहद ही सख़्त हैं.
पंजाब-हरियाणा से लगने वाला शंभू बॉर्डर हो, हरियाणा-दिल्ली से लगने वाला सिंघु बॉर्डर हो या फिर दिल्ली-उत्तर प्रदेश से लगने वाला गाजीपुर बॉर्डर हो.. हर जगह सीमेंट और लोगे के बैरिकेड, कील से बनी पट्टी, कँटीले तार, कंटेनर रेत और पत्थरों को लगाया गया है. हाईवे पर दीवारें बनाने के साथ ही बड़े-बड़े बोल्डर रखे गए हैं. बाक़ी राज्यों से दिल्ली पहुँचने के तमाम रास्तों और बॉर्डर पर इस तरह के उपाय किए गए हैं. हर जगह पुलिस के साथ ही बड़े पैमाने पर केंद्रीय सुरक्षाबलों की भी तैनाती की गयी है. सरकार की ओर से ये तमाम उपाय किसानों को दिल्ली नहीं पहुँचने के लिए किए गए हैं.
इतना ही नहीं दिल्ली के अंदर भी जगह-जगह सुरक्षा को लेकर तमाम व्यवस्था की गयी है. धारा 144 भी लागू किया गया है. लाल किला परिसर को अस्थायी तौर से पर्यटकों के लिए बंद कर दिया गया है. किसान नेता सरवन सिंह पंढेर का तो कहना है कि 'दिल्ली चलो' मार्च को देखते हुए सुरक्षा बलों ने ऐसा माौल बना दिया है, जैसे राज्य की सीमाएं..अंतरराष्ट्रीय सीमाओं में बदल गयी हों.
किसानों पर आँसू गैस के गोलों का इस्तेमाल
किसानों को रोकने के लिए जिस तरह से सरकार की ओर से कील, कंक्रीट की दीवारें, आँसू गैल के गोलों का इस्तेमाल किया जा रहा है, उससे किसानों के प्रति सरकार की दमनकारी नीति को बेहतर तरीक़े से समझा जा सकता है. अंबाला के पास शंभू बॉर्डर पर किसानों की भीड़ को तितर-बितर करने और उनके हौसले को तोड़ने के लिए सुरक्षा बलों की ओर से व्यापक पैमाने पर आँसू गैस के गोले छोड़े गए. इस काम में ड्रोन की भी मदद ली जा रही है.
जिस तरह की तस्वीरें अलग-अलग हिस्सों से सामने आ रही हैं, उनके मुताबिक़ ऐसा कहा जा सकता है कि किसानों को लेकर सरकार का रवैया पूरी तरह से स्पष्ट है. किसानों को रोकने के लिए सरकार किसी भी हद तक जा सकती है. अलग-अलग सीमाओं पर ऐसा लग रहा है, जैसे सरकार और सुरक्षा बलों की ओर से किसी जंग की तैयारी की जा रही है.
किसानों की मांग और सरकार का पुराना वादा
किसानों की कुछ मांगें हैं. किसान संगठनों का कहना है कि उनकी मांग नयी नहीं है. इनमें से अधिकांश मांग पुरानी हैं, जिसको लेकर मोदी सरकार वादा करती आयी है. अगर किसानों की मांग पर नज़र डालें, तो उनकी सबसे प्रमुख मांग न्यूनतम समर्थन मूल्य या'नी MSP की गारंटी है. किसान चाहते हैं कि मोदी सरकार उनकी फ़सल के लिए एमएसपी की गारंटी से संबंधित क़ानून बनाए. सभी फ़सलों की ख़रीद पर MSP गारंटी अधिनियम बने, जिसके तहत स्वामीनाथन आयोग की सिफ़ारिश के मुताबिक़ फ़सलों की क़ीमत C2+50% फ़ार्मूले के हिसाब से तय हो.
MSP की गारंटी के अलावा कई और मांग हैं, जो इस रूप में हैं..
- किसानों के लिए ऋण माफ़ी
- भारत को विश्व व्यापार संगठन से बाहर आना चाहिए
- दूध उत्पादों, सब्जियों, फलों और मांस समेत कृषि वस्तुओं पर आयात शुल्क कम करने के लिए भत्ता बढ़ाना जाए.
- किसानों और 58 साल से अधिक वाले कृषि मज़दूरों के लिए पेंशन याजना लागू किया जाए, जिसके तहत 10 हजार रुपये प्रति माह पेंशन की व्यवस्था हो.
- प्रधानमंत्री फ़सल बीमा योजना में सुधार हो और इसके तहत सरकार ख़ुद बीमा प्रीमियम का भुगतान करे.
- बीमा योजना के दायरे में सभी फ़सलों को लाया जाए.
- बीमा योजना के तहत नुक़सान के आकलन में खेत एकड़ को इकाई के रूप में माना जाए.
- भूमि अधिग्रहण अधिनियम, 2013 को उसी रूप में लागू हो और इस संबंध में केंद्र की ओर से राज्यों को दिए गए निर्देशों को रद्द किया जाए.
- मनरेगा के तहत प्रति वर्ष 200 दिनों के लिए रोजगार मुहैया हो और इसके दायरे में कृषि को शामिल किया जाए. साथ ही मनरेगा के तहत मज़दूरी बढ़ाकर 700 रुपये प्रतिदिन किया जाए.
लखीमपुर खीरी हत्या मामले को लेकर नाराज़गी
इनके अलावा किसान संगठन यह भी चाहते हैं कि पिछले दिल्ली आंदोलन की बाक़ी अधूरी मांग को भी सरकार पूरा करे. इनके तहत लखीमपुर खीरी हत्या मामले में हिंसा पीड़ितों को न्याय मिले. इस मामले में आरोपी केंद्रीय मंत्री अजय टेनी मिश्रा के बेटे आशीष मिश्रा की जमानत रद्द हो और सभी आरोपियों को सख़्त सज़ा सुनिश्चित हो. सुप्रीम कोर्ट ने 12 फरवरी को ही आशीष मिश्रा की अग्रिम जमानत को अगली सुनवाई तक बढ़ा दिया है. आशीष मिश्रा पर हत्या का केस चल रहा है. लखीमपुर खीरी में 3 अक्टूबर, 2021 को आंदोलन के दौरान चार किसानों समेत 8 लोगों की मौत हो गयी थी. आशीष मिश्रा पर ही उन किसानों पर गाड़ी चढ़ाने का आरोप है. हत्या का केस होने के बावजूद आशीष मिश्रा को बार-बार जमानत मिलती जा रही है. किसान इससे भी नाराज़ हैं.
किसान संगठनों की अन्य प्रमुख मांगें
किसान संगठन यह भी चाहते हैं कि पिछले आंदोलन के दौरान किसानों के ख़िलाफ दर्ज सभी मामला या मुक़द्दमा रद्द हो. उस आंदोलन में जिन किसानों और मज़दूरों की मौत हुई थी, उनके परिजनों को नौकरी और मुआवज़ा दी जाए. बिजली संशोधन विधेयक के तहत बिजली क्षेत्र को निजी हाथों में देने से जुड़ी किसानों की तमाम आपत्तियों के मद्द-ए-नज़र इसके प्रावधानों को अध्यादेशों या दूसरे रास्तों से लागू नहीं किया जाए. इसके अलावा किसान संगठनों की मांग है कि प्रदूषण से जुड़े क़ानूनों से कृषि क्षेत्र को बाहर रखा जाए.
न्यूनतम समर्थन मूल्य की गारंटी पर मुख्य ज़ोर
इन तमाम मांगों में से फ़सलों के न्यूनतम समर्थन मूल्य की गारंटी के वास्ते क़ानून और क़र्ज़ माफ़ी ही वे दो मसले हैं, जिसको लेकर केंद्र सरकार और किसान संगठनों के बीच सहमति नहीं बन पा रही है. कुछ और भी मसले हैं, जिन पर सरकार सहमत नहीं है, लेकिन एमएसपी के मसले अगर सरकार मान जाती है, तो शायद किसान संगठन बाक़ी असहमति वाले मुद्दों पर फ़िलहाल नरम पड़ सकते हैं.
आख़िर क्यों फिर से आंदोलन पर उतरे किसान?
लोक सभा चुनाव को देखते हुए मुख्य तौर से एमएसपी की गारंटी से संबंधित कानून बनाने की मांग को लेकर किसान संगठन केंद्र सरकार पर दबाव बनाने के लिए एक बार फिर से 'दिल्ली चलो' मुहिम के तहत आंदोलन को नया रूप दे रहे हैं. ऐसे भी किसान संगठनों का कहना है कि दिसंबर 2021 में आंदोलन को स्थायी तौर से समाप्त नहीं किया गया था, बल्कि सरकारी आश्वासन को देखते हुए उसे स्थगित किया गया था. दो साल से अधिक समय बीत जाने के बावजूद मोदी सरकार किसानों से किए गए वादों को पूरा करने में असफल रही है, जिसकी वज्ह से किसानों को फिर से आंदोलन का रास्ता अपनाना पड़ रहा है.
एमएसपी पर आनाकानी और सरकार की मंशा
तक़रीबन डेढ़ महीने पहले ही किसान संगठनों ने इस आंदोलन को लेकर केंद्र सरकार को जानकारी दे दी थी. केंद्र सरकार की ओर से केंद्रीय मंत्रियों की टीम ने किसान संगठनों के प्रतिनिधियों के साथ चंडीगढ़ में बातचीत भी की. इनमें केंद्रीय कृषि मंत्री अर्जुन मुंडा के साथ ही खाद्य और उपभोक्ता मामलों के मंत्री पीयूष गोयल भी थे. केंद्र सरकार चाहती है कि एमएसपी पर गारंटी से जुड़े क़ानून को लेकर पहले एक समिति का गठन हो. हालाँकि किसान संगठन अब समितियों के जाल में नहीं फँसना चाहता है. किसानों का कहना है कि सरकार क़ानून बनाने को लेकर सीधे ठोस आश्वासन दे और उस पर आगे कार्रवाई भी करे.
केंद्रीय मंत्रियों और किसान संगठनों के नेताओं के बीच आठ फरवरी को पहली बैठक हुई थी. चंडीगढ़ में दूसरे दौर की वार्ता के तहत 12 फरवरी को किसान नेताओं और केंद्रीय मंत्रियों की 5 घंटे से अधिक समय तक बातचीत चली थी. संयुक्त किसान मोर्चा (गैर-राजनीतिक) के नेता जगजीत सिंह डल्लेवाल और किसान मजदूर संघर्ष समिति के महासचिव सरवन सिंह पंढेर के साथ ही कई और भी किसान नेता इस बैठक में शामिल हुए थे.
समिति बनाने पर क्यों अड़ी है सरकार?
केंद्र सरकार 2020-21 के आंदोलन के दौरान किसानों के ख़िलाफ़ दर्ज मामले वापस लेने पर सहमत है. केंद्रीय कृषि मंत्री अर्जुन मुंडा का कहना है कि ज़्यादातर मुद्दों पर सहमति बन गई है और सरकार ने प्रस्ताव रखा है कि शेष मुद्दों को एक समिति के गठन से सुलझाया जाए. एमएसपी के मसले पर केंद्र सरकार की ओर से ढीले रवैये को देखते हुए किसान संगठनों का कहना है कि सरकार की मंशा साफ नहीं है. एमएसपी के साथ ही क़र्ज़ माफ़ी को लेकर सरकार के रवैये से भी किसान संगठनों में नाराज़गी है.
सरकार को चाहिए कि वो किसान संगठनों को भरोसा में ले. एमएसपी पर सरकार का रुख़ स्पष्ट होना चाहिए. सरकार चाहती है, तब तो कोई बात ही नहीं है. अगर एमएसपी पर क़ानून बनाना नहीं चाहती है, तो उसको लेकर क्या समस्या है, इस पर भी सरकार को अपना रुख़ किसान संगठनों से स्पष्ट करना चाहिए. किसानों को लग रहा है कि सरकार समिति के नाम पर मुद्दे को कुछ समय के लिए टालना चाहती है.
किसानों की ताक़त देख चुकी है सरकार
किसानों के वर्तमान आंदोलन के संदर्भ में एक बात स्पष्ट है, जिसे सरकार को भी बेहतर तरीक़े से समझ लेना चाहिए. किसान या किसान संगठन कोई राजनीतिक दल या नेता नहीं हैं, जो सत्ता या उससे जुड़े किसी प्रलोभन में या ईडी जैसी केंद्रीय जाँच एजेंसियों के भय की वज्ह से रातों-रात बदल जाएंगे. मोदी सरकार के साथ पूरी दुनिया किसानों की ताक़त 2020-21 में देख चुकी है.
मौजूदा आंदोलन 2020-21 के आंदोलन की ही अगली कड़ी है. उस वक्त़ मोदी सरकार कृषि क्षेत्र के लिए तीन क़ानून लेकर आती है. सबसे पहले जून, 2020 में इसके लिए अध्यादेश लाया जाता है और बाद में उस साल के मानसून सत्र में संसद से तीनों क़ानूनों को मंज़ूरी मिल जाती है. इन तीन क़ानून का नाम था..
- कृषक उपज व्यापार और वाणिज्य (संवर्धन और सरलीकरण) क़ानून, 2020
- कृषक (सशक्तिकरण और संरक्षण) कीमत आश्वासन और कृषि सेवा पर करार क़ानून, 2020
- आवश्यक वस्तु (संशोधन) क़ानून, 2020
सरकार का दावा और किसानों की नाराज़गी
उस वक़्त सरकार की ओर से दावा किया गया कि इन तीन क़ानून से किसानों को मुक्त व्यापार में मदद मिलेगी. उपज का बेहतर दाम सुनिश्चित हो पाएगा. सरकार की ओर से इन कानूनों का मकसद देश की कृषि व्यवस्था में बदलाव लाना और किसानों की आय बढ़ाना बताया गया. हालाँकि किसान संगठनों ने इन तीनों को काला क़ानून बताया. किसानों की ओर से इसे कृषि क्षेत्र में निजी क्षेत्र के प्रभुत्व को स्थापित करने की सरकारी साज़िश तक क़रार दिया गया.
पिछली बार एक साल से अधिक चला था आंदोलन
तमाम आपत्तियों और विरोध के बावजूद सरकार इन क़ानूनों को वापस लेने पर नहीं राज़ी हुई, तो 2020-21 में किसानों का व्यापक आंदोलन देखने को मिला. संयुक्त किसान मोर्चा के बैनर तले नवंबर, 2020 में आंदोलन शुरू हुआ. सरकार और किसान संगठनों के बीच 11 दौर की वार्ता भी हुई. हालाँकि किसान संगठन क़ानून वापसी को लेकर अड़े रहे. बीच में मामला सुप्रीम कोर्ट भी पहुंचा. सुप्रीम कोर्ट ने जनवरी, 2021 में इन तीनों क़ाननों के अमल पर अंतरिम रोक लगा दी. उसके बाद सरकार की ओर से 18 महीने के लिए अमल को टालने की बात कही गयी. हालाँकि किसान फिर भी अडिग रहे.
किसान आंदोलन पर तरह-तरह के आरोप भी लगे. सरकार के साथ ही सत्ताधारी दल बीजेपी के नेताओं की ओर से इसमें विदेशी साज़िश तक की बात कही गयी. किसानों के अडिग मंसूबों को तोड़ने के लिए उन पर आतंकवादी, लुटेरा, डकैत, विदेशी एजेंट जैसे लांछन भी लगाए गए. एक साल से अधिक समय तक चले आंदोलन में सात सौ से अधिक किसानों की जान चली गयी. अंत में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को 19 नवंबर, 2021 को तीनों क़ानून वापस लेने का एलान करना पड़ा. उसके कुछ दिनों बाद ही किसानों ने आंदोलन को स्थगित करने का निर्णय लिया था.
मोदी सरकार को वापस लेना पड़ा था क़ानून
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 19 नवंबर, 2021 को राष्ट्र के नाम संबोधन में देशवासियों से क्षमा मांगते हुए तीनों कृषि क़ानून को वापस लेने की घोषणा की थी. उस दिन प्रधानमंत्री मोदी ने कहा था कि एमएसपी को अधिक प्रभावी और पारदर्शी बनाने के लिए कमेटी का गठन किया जाएगा.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी हमेशा ही किसानों के हित में काम करने की बात करते रहे हैं. किसानों को अन्नदाता कहते रहे हैं. उन्होंने पहले कार्यकाल में ही हर मंच से वादा किया था कि 2022 तक किसानों की आय दोगुनी हो जाएगी और सरकार इसे पूरा करने को लेकर प्रतिबद्ध है. हालाँकि अब 2024 आ गया है, उसके बावजूद न तो किसानों की आय दोगुनी हुई और न ही एमएसपी की गारंटी को लेकर क़ानून बन पाया.
किसान प्रतीकात्मक राजनीति के झाँसे में नहीं
किसानों का समर्थन हासिल करने के लिए प्रतीकात्मक राजनीति का भी कोई मौक़ा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने नहीं छोड़ा है. इसके तहत ही हाल ही में देश के बड़े किसान नेताओं में गिने जाने वाले पूर्व प्रधानमंत्री चौधरी चरण सिंह को भारत रत्न देने का एलान भी किया गया. हालाँकि पिछले आंदलन के दौरान और अब भी जिस तरह से किसानों के प्रदर्शन को कुचलने का प्रयास सरकारी स्तर से हो रहा है, उसके मद्द-ए-नज़र मोदी सरकार की मंशा को बेहतर तरीक़े से समझा जा सकता है. किसान किसी भी तरह के प्रतीकात्मक राजनीति के झाँसे में नहीं आने वाले हैं.
भय दिखाकर आंदोलन को रोकने की कोशिश
कुछ दिन पहले ही हरियाणा के अलग-अलग गाँव में पुलिस किसानों को आगामी आंदोलन में शामिल होने को लेकर चेतावनी दे रही थी. पासपोर्ट निरस्त करने की चेतावनी और दूसरे तरीक़ों की क़ानूनी समस्या पैदा होने का डर दिखाना सरकार की दमनकारी नीति का ही हिस्सा माना जाना चाहिए. भारत एक लोकतांत्रिक देश है और संविधान के तहत देश के हर नागरिक को शांतिपूर्ण आंदोलन और प्रदर्शन करने का मौलिक अधिकार है. ऐसे में किसी भी नागरिक को आंदोलन या प्रदर्शन में शामिल होने से रोकना या भयभीत करना कहीं से भी उचित नहीं ठहराया जा सकता है.
कृषि नीति में व्यापक बदलाव की ज़रूरत
किसान हमारे देश की अर्थव्यवस्था की रीढ़ हैं. पिछले सात दशक से जिस तरह की कृषि नीति देश में अपनायी गयी है, उन नीतियों से किसानों की स्थिति तो नहीं सुधरी है, न ही उनको उनके उपज का वाजिब दाम ही मिल पाता है. लेकिन किसानों के ही फ़सलों से कृषि तंत्र पर क़ब्ज़ा जमाए बिचौलियों और कारोबारियों की आर्थिक सेहत हमेशा ही बल्ले-बल्ले रही है. सबसे बड़ा सवाल और विडंबना यही है कि देश में जब-जब अनाज, सब्जियों या फलों की क़ीमतों में अचानक अभूतपूर्व उछाल देखने को मिलता है, उस वक्त़ इसका लाभ किसानों को बिल्कुल नहीं मिलता है.
क़ीमतों में इज़ाफ़ा और लाभ का गणित
अभी हाल-फ़िलहाल के एक उदाहरण से समझें, तो लहसुन की क़ीमतों से आम जनता बेहाल है. आम लोग ख़ुदरा में लहसुन 400 से 600 रुपये प्रति किलोग्राम ख़रीदने को विवश हैं. हालांकि लहसुन उत्पादक किसानों को इसका लाभ नहीं मिल पाया. वे तो अपने पैदावार को इस बार भी औने-पौने दाम में ही बेचने को मजबूर थे.
आँकड़ों से समझें, तो 2023-24 सीज़न में लहसुन का उत्पादन क़रीब 3.7 मिलियन टन (एमटी) होने की संभावना है. 2022-23 सीज़न में यह आँकड़ा 3.36 मीट्रिक टन रहा था. वित्तीय वर्ष 2023-24 के पहले 6 महीने में लहसुन का निर्यात रिकॉर्ड 56,823 टन रहा. सालाना आधार पर लहसुन के निर्यात में यह 110% बढ़ोत्तरी है. वित्तीय वर्ष 2022-23 में पूरे साल के लिए लहसुन निर्यात का आँकड़ा 57,346 टन रहा था. सरकार ने समय रहते लहसुन के निर्यात पर कोई रोक नहीं लगायी, जिससे घरेलू मांग के लिए कमी की वज्ह से लहसुन की क़ीमत ख़ुदरा में आसमान पर जा पहुँची. हालाँकि इसका फ़ाइदा किसानों को कतई नहीं हुआ.
एमएसपी की गारंटी है बहुत पुरानी मांग
यह तो एक उदाहरण मात्र है कि ख़ुदरा बाज़ार में क़ीमतें आसमान पर पहुँच जाती है, लेकिन उसका लाभ किसानों को नहीं मिल पाता है. न्यूनतम समर्थन मूल्य या'नी एमएसपी की गारंटी किसानों की बहुत पुरानी मांग है. यूपीए सरकार से होते हुए अब मोदी सरकार का भी दूसरा कार्यकाल ख़त्म होने वाला है, लेकिन इस दिशा में क़ानूनी तौर से कोई ठोस पहल नहीं हो पाया है. किसानों की समस्याओं को देखते हुए सरकार को संवेदनशीलता के साथ विचार करना चाहिए और तत्काल ही कोई ऐसा रास्ता निकालना चाहिए, जिससे किसानों में भरोसा पैदा हो सके. पिछली बार हम देख चुके हैं कि सरकार के अड़ियल रवैये की वज्ह से कितने किसानों की जान गयी थी. इस बार वैसा नहीं हो और उसके साथ ही किसानों का आंदोलन लंबा नहीं खींचे, इसकी भी ज़िम्मेदारी मोदी सरकार पर बनती है.
संवेदनशीलता के साथ जल्द निकले हल
किसानों को लेकर कोई भी क़ानून बनाने से पहले संबंधित और सबसे अधिक प्रभाव पड़ने वाले पक्षों से विचार-विमर्श नहीं करना ही नतीजा 2020-21 का आंदोलन था. उस वक्त़ भी हम लोगों ने देखा था कि किसान संगठन तीन क़ानूनों की वापसी से कम पर मानने को तैयार नहीं हुए थे. सरकार को यह देखना चाहिए कि किसान अपनी उपज की क़ीमतों के लिए निजी ख़रीदारों की मनमानी के भरोसे नहीं रहें. एमएसपी की गारंटी क़ानून होने से ही इस मनमानी से किसान बच पाएंगे. किसानों की आय बढ़ाने के नज़रिये से व्यापक नीतिगत बदलाव की ज़रूरत है. इस दिशा में पूरे देश के लिए एमएसपी गारंटी से जुड़ा क़ानून बेहद महत्वपूर्ण और मील का पत्थर साबित हो सकता है.
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