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किसान आंदोलन 29 फरवरी तक स्थगित, लेकिन आगे की डगर है मुश्किल

किसान नेताओं ने अब 29 फरवरी तक के  लिए ‘दिल्ली चलो’ मार्च को टालने का ऐलान किया है. पंजाब-हरियाणा सीमा पर प्रदर्शनकारी किसानो ने अपने आंदोलन के अगले कदम पर चर्चा के लिए शुक्रवार शाम को संयुक्त किसान मोर्चा और किसान मज़दूर मोर्चा की बैठक में यह निर्णय लिया गया. इस बीच किसान आंदोलन का मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंच गया है. सुप्रीम कोर्ट से याचिकाकर्ता अग्नोस्तोस थिओस की ओर से गुहार लगाई है कि वह केंद्र को निर्देश जारी कर कहे कि किसानों की मांगों पर केंद्र विचार करे. सुप्रीम कोर्ट में दाखिल अर्जी में कहा गया है कि किसानों के आंदोलन लोकतांत्रिक अधिकार का उल्लंघन हो रहा है. साथ ही इसमें केंद्र सरकार पर किसानों के प्रदर्शन को रोकने के लिए बल प्रयोग का आरोप लगाया गया है. सुप्रीम कोर्ट में दाखिल अर्जी में कहा गया है कि किसान शांतिपूर्ण प्रदर्शन कर रहे हैं और केंद्र और संबंधित राज्य सरकार को निर्देश दिया जाए कि वह किसानों के साथ सही तरह से पेश आएं. केंद्र और राज्य सरकारों को निर्देश दिया जाए कि वह लोगों की आवाजाही सही तरीके से होने के लिए जरूरी कदम उठाए. 'दिल्ली मार्च' के 29 फरवरी तक टालने के किसान नेताओं फैसले के बाद दिल्ली पुलिस ने शनिवार को सिंघू और टीकरी बॉर्डर बॉर्डर खोल दिए. 

क्या है किसानों की मांगें

आंदोलन कर रहे किसानों की मुख्य रूप से 7 मांगें हैं

  • केंद्र सरकार न्यूनतम समर्थन मूल्य की गारंटी दे
  • लखीमपुर खीरी मामले में दोषियों को सज़ा दी जाए
  • किसानों के ख़िलाफ़ मुक़दमे वापस लिए जाए
  • सरकार किसानों का पूरा कर्ज़ माफ करे
  • किसानों को प्रदूषण कानून से बाहर रखा जाए
  • वृद्ध किसानों और खेतिहर मज़दूरों को पेशन दी जाए
  • विद्युत संशोधन विधेयक 2020 को रद्द किया जाए

किसानों की मांगों पर सरकारी रुख

सरकार की ओर से किसानों से बातचीत के लिए कृषि और किसान कल्याण मंत्री अर्जुन मुंडा, वाणिज्य मंत्री पीयूष गोयल और गृह राज्य मंत्री नित्यानंद राय की कमेटी बनाई गई है. किसानों और इस कमेटी में कई बार बातचीत हो चुकी है. 18 फरवरी 2024 को, केंद्र सरकार और पंजाब के किसान संघों के बीच बातचीत हुई बातचीत में सरकार ने समाधान के लिए गेहूं और धान से हटकर विविधता लाने प्रस्ताव दिया. इसमें सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों जैसे एनसीसीएफ और नाफेड के माध्यम से समझौता कर कपास, दालों और मक्का आदि 5 फसलों की एमएसपी खरीद के लिए पांच साल के करार का प्रस्ताव था.

सवाल है कि क्या सरकार किसानों कि मांगों को पूरा नहीं कर सकती? क्या ये मांगें पूरी तरह से निराधार हैं?  इन सवालों के जवाब जानना बेहद जरूरी है. इस मामले में राय बंटी हुई है जो दोनो ओर के अपने-अपने तर्क हैं.  

किसानों की मांगों के पक्ष में तर्क

जो लोग किसानों की मांगों का समर्थन कर रहें हैं उनका कहना है कि किसान लंबे समय से एमएसपी को कानूनी तौर पर लागू करने की मांग करते आए हैं. ऐसा कहा जा रहा है कि 2020-21 के किसान आंदोलन में भी इस तरह की मांग उठी थी और उस समय सरकार ने इस पर विचार करने का आश्वासन दिया था. देश की 62 प्रतिशत आबादी प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से कृषि से जुड़ी हुई है और देश की 50 प्रतिशत आबादी प्रत्यक्ष रूप से कृषि पर निर्भर है. किसानों की आय आज भी न्यूनतम स्तर पर है. एमएसपी की गारंटी के चलते उन्हें बाजार के उतार चढ़ाव से राहत मिलेगी और उन्हें फसलों का एक न्यूनतम मूल्य मिलेगा. जिससे किसानों की आर्थिक स्थिति भी ठीक होगी और उनकी आय दोगुनी करने में मदद मिलेगी.  

फरवरी 2018 में केंद्र सरकार की ओर से बजट पेश करते हुए तत्कालीन वित्त मंत्री अरुण जेटली ने कहा था कि अब किसानों को उनकी फसल का जो दाम मिलेगा वह उनकी लागत का कम से कम डेढ़ गुना ज्यादा होगा. सीएसीपी की रिपोर्ट देखेंगे तो पता चलता है कि अभी फसल की लागत पर जो एमएसपी तय किया जा रहा है वह ए2+एफएल है. वर्ष 2004 में प्रो. एमएस स्वामीनाथन की अगुवाई में राष्ट्रीय किसान आयोग के नाम से जो कमेटी बनी थी उसने अक्टूबर 2006 में अपनी रिपोर्ट सरकार को सौंपी थी. आयोग की रिपोर्ट भी किसानों के लिए एमएसपी सुनिश्चित करने की सिफारिश करती है. आयोग की रिपोर्ट में कहा गया था कि किसानों के लिए फसल का औसत खर्च या लागत और उसमें 50 प्रतिशत की वृद्धि करके एमएसपी सुनिश्चित किया जाना चाहिए. जिसे C2+50% फॉर्मूला भी कहा जाता है. लेकिन ये लागू नहीं हुआ.

सरकार यह अनाज एमएसपी पर ही खरीदती है. यह खर्चे को सरकार बखूबी सहती है. अगर सरकार एमएसपी पर अनाज खरीद कर 80 करोड़ लोगों को फ्री में राशन दे सकती है तो किसानों को एमएसपी की कानूनी गारंटी क्यों नहीं दे सकती? यहां पर सरकार के ऊपर आर्थिक दबाव का तर्क भी खत्म हो जाता है. वैसे अगर देखा जाए तो एमएसपी की कानूनी गारंटी सरकार के वादे को पूरा करने में भी मदद करेगा. 

वृद्ध किसानों और खेतिहर मज़दूरों की पेंशन देने की मांग पर तर्क है कि पेंशन की राशि भले ही उतनी ज्यादा न हो, लेकिन कम से कम वृद्धावस्था में किसानों और मजदूरों के गुजारे के लिए एक न्यूनतम पेंशन व्यवस्था अवश्य होनी चाहिए. पंजाब के अधिकांश क्षेत्र में गेहूँ और धान (2020-21 में 85%) की खेती होती है. वहीं सरकार ने जिन फसलों जैसे कपास, दालों और मक्का आदि के लिए एक के लिए ऑफर दिया था, उनमें पारिस्थितिकी तंत्र (बाजार, खरीदार, रसद, इनपुट आपूर्ति, आदि) उतना महत्वपूर्ण नहीं है. बस सिर्फ सरकारी समर्थन की आवश्यकता है वो सरकार देने को तैयार है.

किसानों की मांगों के विरोध में तर्क

इन तर्कों के मुताबिक एमएसपी कानून पूरी दुनिया में कहीं भी नहीं है. एमएसपी को कानूनन अनिवार्य बनाना बहुत मुश्किल है. इसका सीधा मतलब होगा एमएसपी का अधिकार, ऐसे में जिसे एमएसपी नहीं मिलेगा वह कोर्ट जा सकता है और न देने वाले को सजा हो सकती है. केंद्र सरकार की कमाई ही सालाना 23.30 लाख करोड़ रुपए है जबकि अगर उसे सभी 23 फसलों की खरीद एमएसपी पर करनी पड़े तो सरकार को इसके लिए 17 लाख करोड़ रुपए से ज्यादा खर्च करने पड़े सकते हैं. अगर सरकार एमएसपी को अनिवार्य कानून बना देगी तो वह तो सभी फसलों पर लागू होगी, बस धान या गेहूं पर ही तो नहीं होगी. दूसरी फसलों के किसान भी तो मांग करेंगे. ऐसे में लोगों की भलाई के लिए होने वाले कामों और विकास के कामों के लिए बहुत कम पैसा बचेगा. गरीबों को मिल रहीं दूसरी सुविधाओं पर भी इसका असर देखने को मिल सकता है. 

जब फसल की लागत हर प्रदेश में अलग-अलग, तो एमएसपी पूरे देश में एक क्यों? अब मान लीजिए कि कल देश में गेहूं या चावल का उत्पादन बहुत ज्यादा हो जाता है और बाजार में कीमतें गिर जाती हैं तो वह फसल कौन खरीदेगा.  कंपनियां कानून के डर से कम कीमत में फसल खरीदेंगी ही नहीं. ऐसे में फसल किसानों के पास ऐसी ही रखी रह जायेगी या सरकार को जबरन खरीद करनी पडेगी.  

वर्ष 2015 में भारतीय खाद्य निगम (FCI) के पुनर्गठन का सुझाव देने के लिए बनी शांता कुमार समिति ने अपनी रिपोर्ट में बताया था कि एमएसपी का लाभ सिर्फ 6 प्रतिशत किसानों को ही मिल पाता है जिसका सीधा मतलब है कि देश के 94 फीसदी किसान एमएसपी के फायदे से दूर रहते हैं.

देश में अभी जिन फसलों की खरीद एमएसपी पर हो रही है, उसके लिए हमेशा एक 'फेयर एवरेज क्वॉलिटी' तय होता है. मतलब फसल की एक निश्चित गुणवत्ता तय होती है, उसी पर किसान को न्यूनतम समर्थन मूल्य मिलता है. अब कोई फसल गुणवत्ता के मानकों पर खरी नहीं उतरती तो किसान तो क्या होगा. अभी तो व्यापारी फसल की गुणवत्ता कम होने पर भी खरीद लेते हैं, लेकिन कानून बनने के बाद यह कैसे संभव हो पायेगा. जब फसल की कीमत फिक्स कर दी जायेगी? इसके लागू करना मुश्किल होगा.

हम कृषि में पीछे की ओर जाना चाह रहे हैं. जहां सब कुछ सरकार ही करेगी. फसल पैदा भी करायेगी और उसकी खरीद भी करेगी. व्यापारियों के सामने बड़ी मुश्किल आयेगी. पैसा कहां से आयेगा? आयात भी बढ़ सकता है. अंतरराष्ट्रीय बाजारों में हमारी उपज की कीमत वैसे ही कई देशों की अपेक्षा ज्यादा है. ऐसे में अगर एमएसपी को अनिवार्य कानून बनाया गया तो व्यापारी आयात करने लगेंगे और सरकार उन्हें रोक भी नहीं पायेगी.

सरकार किसानों से सारी फसलें एमएसपी पर खरीदेगी तो इसके बजट के लिए करों में करीब तीन गुना वृद्धि करनी होगी. जिससे देश के करदाताओं पर कर का बोझ बढ़ेगा.

सरकार राशन व्यवस्था के लिए धान-गेहूं की जो सरकारी खरीद करती है, उसमें करीब दो लाख करोड़ रुपये सबसिडी का स्तर आता है. सब्सिडी के कारण देश को विश्व व्यापार संगठन के सामने झुकना पड़ता है. हमें उन्हें बताना पड़ता है कि हमारे यहां गरीबी है, हमें सब्सिडाइज फूड देना पड़ता. इसीलिए सरकार खाद्य सुरक्षा नीति भी लेकर आई. हमें अपने कृषि बाजार खोल देने चाहिए. अभी भी हम कई उपज पर सब्सिडी देकर उसका निर्यात कर रहे हैं. मतलब पहले हम पैदा करने के लिए सब्सिडी दे रहे हैं फिर उसका व्यापार करने के लिए सब्सिडी दे रहे हैं. ऐसे में भारत पर डब्ल्यूटीओ का भारी दबाव है.

देश लगभग 35 लाख टन दालों का आयात करता है. तिलहन में भी हम आयात पर निर्भर हैं. ऐसे में सरकार अगर प्रोत्साहन देगी तो आयात पर निर्भरता कम होगी. ऐसे में केंद्र के कपास, दालों और मक्का आदि 5 फसलों की एमएसपी खरीद के लिए पांच साल के करार के प्रस्ताव को अस्वीकार करके, कृषि संघों ने अपने कुछ समय के हितों के लिए पंजाब के किसानों के दीर्घकालिक हितों को दाँव पर लगा दिया है. वह किसानों को गेहूँ और धान से ऊपर उठकर कुछ नया नहीं करने दे रहे हैं. इन यूनियनों की वजह से न केवल किसानों नए बाजार में संभावनाएँ तलाशने से अछूते हैं बल्कि इनकी इसी जिद्द के कारण भूजल तनाव भी बढ़ रहा है और किसानों को इनपुट लागत भी ज्यादा आ रही है. अंततः, यह कुछ वर्षों में कुछ बेल्टों को धान और गेहूँ की खेती के लिए अनुपयुक्त बना सकता है, जिससे छोटे और सीमांत किसानों को और नुकसान होगा.

फिलहाल,  पंजाब में मक्का 1.5% है, कपास 3.2% है, और दालें केवल 0.4% हैं. सरकार के प्रस्ताव से किसानों को मौका मिलता कि वह इन फसलों की ओर बढ़ें और नए बाजार व खरीदारों से मिलें. खासकर निजी क्षेत्र में, जिससे उन्हें अपनी उपज बेचने के अधिक विकल्प मिलते. पंजाब में पानी की पारिस्थिति के दृष्टिकोण से भी यह प्रस्ताव पंजाब के लिए आदर्श था क्योंकि वहाँ भूजल स्तर चिंताजनक रूप से कम हो गया है. 

किसान संगठन भी हैं मुश्किल में

'दिल्ली चलो' की अपील करने वाले किसान संगठनों के कहने पर पंजाब के हजारों की संख्या में किसान दिल्ली के रास्ते पर तो हैं लोकिन ऐसा लगता कि यूनियनों के भीतर वैचारिक मतभेदों ने किसानों के बीच भ्रम की स्थिति पैदा की है. जगजीत सिंह डल्लेवाल की अगुवाई में भारतीय किसान यूनियन - सिधुपुर और सरवन सिंह पंढेर की अगुवाई में किसान मजदूर संघर्ष समिति पंजाब के कृषक समुदाय के सिर्फ एक तिहाई का प्रतिनिधित्व करते हैं. इस आंदोलन के नेताओं ने बड़े संगठनों से सलाह के बगैर ही आंदोलन कि शुरुवात कर दी. जोगिंदर सिंह उगराहा के नेतृत्व वाली बीकेयू-एकता उगराहा और बलबीर सिंह राजेवाल की अध्यक्षता वाले बीकेयू-राजेवाल जैसे पंजाब के सबसे बड़े किसान संगठनों ने इस आंदोलन से किनारा कर रखा है.

भारत में किसान आंदोलनों का इतिहास

किसानों का मौजूदा आंदोलन 2020-21 वाले आंदोलन से थोड़ा अलग है. तब आंदोलन केंद्र सरकार के तीन कृषि कानूनों के खिलाफ था. आखिरकार प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने नवंबर, 2021 में खुद उन कानूनों को वापस लेने की घोषणा की थी. समिति जुलाई, 2022 में बनी, जिसकी पहली मीटिंग अगस्त, 2022 में हुई. उसमें करीब 40 सदस्य थे. लेकिन संयुक्त किसान मोर्चा उसमें शामिल नहीं हुआ, क्योंकि समिति के अध्यक्ष कृषि सचिव रहे संजय अग्रवाल बने, जो कृषि कानून बनने के वक्त खुद कृषि सचिव थे. अभी तक उस समिति की रिपोर्ट नहीं आई है.

नील विद्रोह (1859-62) अपने मुनाफे को बढ़ाने के लिये यूरोपीय बागान मालिकों ने किसानों को खाद्य फसलों के बजाय नील की खेती करने के लिये बाध्य किया. नील की खेती से किसान असंतुष्ट थे क्योंकि नील की खेती के लिये कम कीमतों की पेशकश की गई. नील लाभदायक नहीं था. नील की खेती से भूमि की उर्वरा शक्ति कम हो जाती है. व्यापारियों और बिचौलियों के कारण किसानों को नुकसान उठाना पड़ा. परिणामस्वरूप उन्होंने बंगाल में नील की खेती न करने के लिये आंदोलन शुरू कर दिया. सरकार ने एक नील आयोग नियुक्त किया और नवंबर 1860 में एक आदेश जारी किया जिसमें कहा गया कि रैयतों को नील की खेती के लिये मजबूर करना अवैध था.

पाबना आंदोलन (1870-80) पूर्वी बंगाल के बड़े हिस्से में ज़मींदार, गरीब किसानों से अक्सर बढ़ाए गए लगान और भूमि करों को जबरदस्ती वसूलते थे. इसके विरोध में किसानों का संघर्ष पूरे पटना और पूर्वी बंगाल के अन्य ज़िलों में फैल गया. यह लड़ाई वर्ष 1885 तक जारी रही लेकिन जब सरकार ने बंगाल काश्तकारी अधिनियम द्वारा अधिभोग अधिकारों में वृद्धि कर दी तब यह खत्म हो गई.

दक्कन विद्रोह (1875) ये विद्रोह दक्कन के किसानों ने मुख्य रूप से मारवाड़ी और गुजराती साहूकारों की ज़्यादतियों के खिलाफ किया गया था. रैयतवाड़ी व्यवस्था के अंतर्गत रैयतों को भारी कराधान का सामना करना पड़ा.

सामाजिक बहिष्कार (1874) में रैयतों ने साहूकारों के खिलाफ एक सामाजिक बहिष्कार आंदोलन का आयोजन किया. सरकार आंदोलन को दबाने में सफल रही. सुलह के उपाय के रूप में दक्कन कृषक राहत अधिनियम 1879 में पारित किया गया.

चंपारण सत्याग्रह (1917) बिहार के चंपारण ज़िले में नील के बागानों में यूरोपीय बागान मालिकों के किसानों के अत्यधिक उत्पीड़न के खिलाफ ये आंदोलन हुआ. महात्मा गांधी ने चंपारण पहुँचकर चंपारण छोड़ने के ज़िला अधिकारी के आदेश की अवहेलना की. चंपारण कृषि अधिनियम 1918 के अधिनियमन ने काश्तकारों को नील बागान मालिकों द्वारा लगाए गए विशेष नियमों से मुक्त कर दिया.

खेड़ा सत्याग्रह (1918) इस सत्याग्रह को मुख्य रूप से सरकार के खिलाफ शुरू किया गया था. वर्ष 1918 में गुजरात के खेड़ा ज़िले में फसलें नष्ट हो गईं, लेकिन सरकार ने भू-राजस्व माफ करने से इनकार कर दिया और इसके पूर्ण संग्रह पर ज़ोर दिया. गांधीजी ने सरदार वल्लभ भाई पटेल के साथ किसानों का समर्थन किया और किसानो ने अपनी मांगें पूरी होने तक राजस्व का भुगतान रोक दिया. यह सत्याग्रह जून 1918 तक चला.

मोपला विद्रोह (1921) मोपला मालाबार क्षेत्र में रहने वाले मुस्लिम किरायेदार थे जहाँ अधिकांश ज़मींदार हिंदू थे. उनकी प्रमुख शिकायतें कार्यकाल की असुरक्षा, उच्च भूमिकर, नए शुल्क और अन्य दमनकारी वसूली थीं. मोपला आंदोलन का विलय खिलाफत आंदोलन में हो गया. महात्मा गांधी, शौकत अली और मौलाना अबुल कलाम आज़ाद ने मोपला सभाओं को संबोधित किया. सांप्रदायिकता ने मोपला को खिलाफत और असहयोग आंदोलन से अलग कर दिया. दिसंबर 1921 तक आंदोलन को समाप्त कर दिया गया था.

बारदोली सत्याग्रह (1928) ब्रिटिश सरकार द्वारा गुजरात के बारदोली ज़िले में भू-राजस्व में 30% की वृद्धि करने के कारण वल्लभ भाई पटेल के नेतृत्व में बारदोली के किसानों द्वारा एक राजस्व न देने संबंधी आंदोलन का आयोजन किया गया. आंदोलन को दबाने के अंग्रेज़ों के असफल प्रयासों के परिणामस्वरूप एक जाँच समिति की नियुक्ति हुई. जाँच इस निष्कर्ष पर पहुँची कि वृद्धि अनुचित थी और कर वृद्धि को घटाकर 6.03% कर दिया गया.

आगे की राह 

फिलहाल देश में चल रहे किसान आंदोलन में अब तक 2 पुलिसकर्मियों की जान जा चुकी है. इस दौरान किसानों और पुलिस की झड़पों में 30 से अधिक पुलिसकर्मी घायल हुए हैं. एक किसान की भी मौत हुई. जान माल के नुक्सान से ज़्यादा चर्चा इस आंदोलन के समय को लेकर भी हो रही है जिसमें राजनीतिक रंग का शक होता है. पास आते लोकसभा चुनाव को लेकर केंद्र सरकार पर दबाव तो है ही साथ ही विपक्षी दल भी इसमें अपनी राजनीतिक रोटी सेकते दिखते हैं. जो कांग्रेस आज एमएसपी को अनिवार्य कानून बनाने की मांग कर रही है, इसी कांग्रेस ने अपने शासनकाल में मुख्यमंत्रियों की सिफारिशों और एम एस स्वामीनाथन की अगुवाई में राष्ट्रीय किसान आयोग की सिफारिशों को स्वीकार नहीं किया था. उधर 2022 के विधानसभा चुनाव से पहले आम आदमी पार्टी ने एमएसपी पर फसलों की खरीद का आश्वासन भले ही पंजाब के किसानों को दिया हो लेकिन पंजाब में आम आदमी पार्टी सरकार अपने वादे से पीछे हटती दिखाई देती है. पंजाब सरकार जानती है कि एमएसपी पर फसलों की खरीद का विकल्प अर्थिक रुप से व्यावहारिक नहीं है. ऐसे केवल बीच का रास्ता ही किसानों के लिए सबसे अच्छा विकल्प है. ये रास्ता केंद्र सरकार से बातचीत और कपास, दालों और मक्का आदि 5 फसलों की एमएसपी खरीद जैसे प्रस्तावों के आसपास ही होगा.  

[नोट- उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. यह ज़रूरी नहीं है कि एबीपी न्यूज़ ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.]

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