सरकार के नीति-निर्माताओं को भी बड़ा सबक दे गया किसान आंदोलन?
Farmers Protest: देश के आजाद होने के बाद से ही विभिन्न मुद्दों पर आंदोलन होते रहे हैं लेकिन इतिहास के पन्नों में किसान आंदोलन का नाम सिर्फ इसलिये ही दर्ज नहीं होगा कि ये 378 दिन लंबा चला बल्कि इसकी मिसाल इसलिये भी दी जाएगी कि किसानों की एकजुटता ने सरकार को अपने ही बनाये तीन खेती कानूनों को वापस लेने पर मजबूर किया था. बीते साल 26 नवंबर को पंजाब-हरियाणा व यूपी के किसानों ने दिल्ली की सीमाओं पर आकर अपने जो तंबू गाड़ दिए थे, वे अब उखड़ने शुरु हो गए हैं, जो केंद्र सरकार के साथ ही दिल्ली पुलिस के लिए भी सबसे बड़ी राहत की बात है. लेकिन किसान नेताओं ने साफ कर दिया है कि उन्होंने आंदोलन स्थगित किया है, इसे पूरी तरह से खत्म नहीं किया है और अगर सरकार ने वादाखिलाफी की, तो वे दोबारा अपना बोरिया बिस्तर बांधकर राजधानी में देर डाल सकते हैं. इसमें कोई शक नहीं कि किसान एक लंबी लड़ाई जीतकर अपने घरों को लौट रहे हैं. लेकिन इस आंदोलन से सरकार में बैठे नीति-निर्माताओं को भी एक सबक लेना चाहिए.
लोकतंत्र वाली किसी भी सरकार में एक वर्ग को लेकर जब कोई नीति बनाई जाती है, तो उससे पहले उस वर्ग को विश्वास में लिए और उसकी आशंकाओं को दूर किये बगैर वो नीति कभी सफल नहीं हो पाती, ये इससे साबित हो गया. किसान आंदोलन भी उसी एकतरफा नीति बनाने का ही नतीजा था. तीन खेती कानूनों का मसौदा तैयार करते वक़्त अगर सरकार ने प्रमुख किसान संगठनों की इस आशंका को दूर किया होता कि ये पूंजीपतियों के फायदे के लिए नहीं बनाया जा रहा है और इससे किसानों का कोई नुकसान नहीं होने वाला है, तो शायद इस आंदोलन को छेड़ने की नौबत ही नहीं आती.
कानून बनाते वक्त सरकार से जो गलती हुई, उसे सुधारने का अहसास आंदोलन के पीक पर पहुंचने के बाद ही सरकार को हुआ. तब सरकार के मंत्रियों ने किसान नेताओं से दर्जन भर से ज्यादा बार बातचीत की लेकिन वे सब बेनतीजा ही रही. इसलिये कि दोनों पक्ष अपनी जिद पर अड़े रहे और उनमें से कोई भी झुकने को जरा भी तैयार नहीं था. इसमें भी शक की कोई गुंजाइश नहीं बनती कि इन कानूनों को वापस लेना एक सियासी मजबूरी बन गई थी. अगर यूपी व पंजाब के विधानसभा चुनाव सिर पर न होते, तो सरकार न तो अपने कदम पीछे खींचने का फैसला लेती और न ही ये आंदोलन ख़त्म होता. केंद्र में बीजेपी के स्थान पर किसी और दल की सरकार होती और जब उसे ये पता चलता कि एक कानून के कारण उसे दो-तीन राज्यों की अपनी सरकारों से हाथ धोना पड़ सकता है, तब उस सूरत में वो भी कानून वापसी का ही फैसला लेती.
दरअसल, अक्टूबर महीने में संघ और बीजेपी ने यूपी में जो सर्वे कराये थे, उससे जनता का मूड भांप लिया गया था. उसमें साफ कहा गया था कि अगर खेती कानून वापस नहीं लिए गए,तो इसका इतना बड़ा खामियाजा भुगतना पड़ सकता है कि यूपी का किला बीजेपी के हाथ से निकल सकता है. तराजू के एक पलड़े पर देश के सबसे बड़े सूबे की सत्ता हो और दूसरे पलड़े पर चंद लोगों को खुश करने की जिद हो,तो स्वाभाविक है कि कोई भी समझदार सियासी दल उस जिद से पीछे हटने में ही अपनी भलाई समझेगा,लिहाज़ा इन कानूनों को लेकर भी उसी नीति पर अमल किया गया कि फिलहाल तो अपने पैर पीछे खींचे जाए.आगे कब व कैसे बढ़ना है,ये बाद में तय कर लिया जाएगा.
हालांकि, सरकार ने मंगलवार को संयुक्त किसान मोर्चा को जो पांच प्रस्ताव भेजे थे,उसे लेकर किसान नेताओं ने तीन स्पष्टीकरण मांगे थे या दूसरे शब्दों में कहें, तो नई शर्तें जोड़ दी थीं.आज सरकार ने उन तीनों को भी मानने में इसलिये देर नहीं लगाई कि जब असल कानून ही वापस ले लिए तो अब छोटे मसलों पर टकराव बढ़ाने की कोई वजह नहीं बनती.
सरकार की तरफ से चिट्ठी मिलने के बाद संयुक्त किसान मोर्चा की बैठक में एकमत से इस फैसले का ऐलान किया गया कि फिलहाल आंदोलन स्थगित किया जाए. इसके साथ ही, 11 दिसंबर को किसान अपने घर लौट जाएंगे. किसान नेता बलवीर सिंह राजेवाल ने कहा कि देश के किसान अहंकारी सरकार को झुका कर अपने घर जा रहे हैं. उन्होंने कहा कि आंदोलन खत्म नहीं हुआ स्थगित हुआ है. मोर्चे खत्म हो रहे हैं. 11 दिसम्बर से घर वापसी होगी. राजेवाल ने कहा कि संयुक्त किसान मोर्चा बरकरार रहेगा. हर महीने 15 तारीख को समीक्षा बैठक होगी की सरकार ने अपने वादे पूरे किये या नहीं.लेकिन किसानों से जुड़े अन्य मुद्दों पर आंदोलन होता रहेगा.
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