एक सप्ताह पहले ही 'गदर2' और 'OMG2' दोनों ही सीक्वल फ़िल्में रिलीज हुईं. जैसा कि आजकल माहौल है, रिलीज से पहले ही दोनों फ़िल्मों को लेकर काफी चर्चा हुई. OMG2 को तो काफ़ी आलोचना का भी सामना करना पड़ा. लोगों के मुताबिक वह फ़िल्म अनावश्यक रूप से एक समुदाय के धार्मिक भावनाओं को आहत कर सकती थी. बहरहाल, कई कट्स और सुझावों के बाद सेंसर बोर्ड के ए सर्टिफिकेट के साथ फ़िल्म रिलीज हुई. हालांकि, अब फ़िल्म लोगों को पसंद आ रही है और जनता इस पर अपना प्यार भी लुटा रही है, लेकिन फ़िल्म से जुडे लोग सेंसर बोर्ड के रवैए से संतुष्ट नहीं हैं. 


फ़िल्म को A सर्टिफिकेट क्यों, हो पुनर्विचार


OMG2 बनाना काफी चुनौतीपूर्ण था. कहानी बहुत ही संवेदनशील है. उसमें कई तहें हैं और कोर्टरूम ड्रामा है. तो, इसका फ़लक जो है, वह काफी बड़ा है, इसलिए इसको बहुत सावधानी से करना था. ये तो बहुत बड़ी विडंबना है कि इस फ़िल्म (OMG2) को बच्चों को नहीं देखने दिया जा रहा है, इसे ए सर्टिफिकेट मिला है. इस पर किसी न किसी को तो बोलना चाहिए, लेकिन मैं उसका उपयुक्त पात्र नहीं हूं. मैं भी उस सवाल के दायरे में ही हूं, कि ऐसा क्यों हुआ? मैं भी जवाब ही खोज रहा हूं.


जो सबसे बड़ा वर्ग था, जो सबसे बड़ा दर्शकों का समूह था, जिस पर कहानी केंद्रित है, जो सबसे अधिक लाभ उठा सकता था, जिनके अंदर चेतना आ सकती थी, वह वर्ग उस फ़िल्म को देख नहीं पा रहा है. इसलिए, जिस भी तंत्र ने यह फैसला लिया है, उनको पुनर्विचार करना पड़ेगा कि जो मापदंड है, सर्टिफिकेशन के, उनका एक बार पुनर्मूल्यांकन फिर से करना पड़ेगा, वरना सबसे अधिक घाटा उस वर्ग का ही होगा, जिसके लिए ये फ़िल्म बनी है.


कट्स के चलते कहानी की गति प्रभावित हुई


कट की जो संख्या है, उस पर बात करने का कोई औचित्य नहीं है. उतने कट क्यों लगे, किन परिस्थितियों में वह कट लगे, ये तो सेंसर बोर्ड और उसके सदस्य ही बता पाएंगे. कट्स इतने क्यों हुए, इस पर अब मैं क्या कहूं लेकिन इतना जरूर है कि इस फ़िल्म को इसके व्यापक दृष्टिकोण के मद्देनजर देखा जाना चाहिए था और तब फैसला करना चाहिए था. यह हुआ नहीं. देखा जाए तो आखिरकार सेंसर तो हमारी जनता ही है न. कुछ समय पहले एक फ़िल्म आयी थी, जिसको मंजूरी मिली थी. उसको दर्शकों के सेंसर ने खारिज किया. ये फ़िल्म जिसको अनेक कट दिए गए, जिसके चलते जो नैरेटिव था, उसको थोड़ा सफर भी करना पड़ा, लेकिन वही फ़िल्म जब जनता के बीच में आयी तो जनता ने उसको थम्स अप दिया. जनता के सेंसर द्वारा इस चीज का अनुमोदन होना खुद में बड़ी बात है. यह हमारे लिए स्वीकार्य है.


पात्रों का व्यवहार चरित्र के अनुरूप


इसमें कुछ भी अश्लील है नहीं. सेक्स को लेकर, सेक्स की बात को लेकर हम सब पहले ही पूर्वाग्रह से ग्रस्त रहते हैं. इसमें ऐसा कुछ भी नहीं था, जिसको लेकर हमें शर्मिंदा होना पड़े या कुछ हिचकना पड़े. जिस धर्म की बात की जा रही है, जिस सनातन संस्कृति की बात हो रही है, वहां तो सेक्स पर खुलकर चर्चा हुई है. हमारी पुस्तकों में, शास्त्रों में इस पर खुलकर लिखा गया है. मंदिरों की बाहरी दीवारों पर मूर्तियां हैं, तो हमारा धर्म कभी ऐसा रूढ़िवादी तो रहा ही नहीं है. वहां तो सेक्स पर खुलकर चर्चा हुई है, बातचीत हुई है. सेक्स और धर्म तो विलग रहे नहीं है, साथ-साथ चले हैं.



कोर्ट में पूजापाठ का दृश्य तो रचनात्मक पहलू है, उस पर मैं क्या टिप्पणी करूंगा. वह तो जो चरित्र है- वो कर्मकांडी है, वह जिसको रिप्रजेंट करता है, तो वह पूजा-पाठ कर रहा है. उसका आचरण, उसका आवरण, उसकी दलील, उसके पेशे के हिसाब से आती है, तो अगर आपको इस सवाल पर बात करनी है तो उसे बड़ी पृष्ठभूमि में देखना होगा. न्याय का मंदिर है, यह उसने सुना तो जो आचरण वह मंदिर में करता है, वैसा ही कोर्ट में भी कर रहा है.


कहानी अति संवेदनशील, सेक्स से आगे की है बात


यह भगवान और सेक्स-एजुकेशन से अधिक बहुत संवेदनशील कहानी है. यह वैसे विषय पर है, जिस पर समाज में आम तौर पर बात करने से लोग हिचकते हैं. कैसे इतने प्रासंगिक विषय को इस तरह से पेश किया जाए कि लोगों तक न केवल आराम से बात पहुंचे, बल्कि वे उसे आराम से समझ भी जाएं.


एडिटिंग में सबसे बड़ी चुनौती थी कि इसे किस तरह अधिक से अधिक नैसर्गिक बनाया जा सके, कहानी बनावटी न लगे. जो आरोप लगे हैं फ़िल्म पर, उसका जवाब देने के लिए तो मैं उपयुक्त व्यक्ति नहीं हूं. हालांकि, इस फ़िल्म को ऐसे देखा गया, जैसा हम नहीं चाहते थे. हालांकि, आज जो जनता में इस कहानी को लेकर परसेप्शन है, धारणा है, वह कहीं से नकारात्मक नहीं है. यह हमें खुशी और हौसला दोनों देता है कि हम आज भी अच्छी कहानी कहें, तो लोग उसे स्वीकार करेंगे. आज ही एक व्यक्ति का फोन आया था. उसने बताया कि उसकी छोटी बहन अपने पिता के साथ फ़िल्म देखने गयी थी. उसने कहा कि अभी तक वो सिर्फ़अपनी मां के साथ पीरियड्स वगैरह पर बात कर सकती थी, लेकिन अब उसे लगता है कि वह अपने पापा के साथ भी ये सारी बातें कर सकती है. अगर इतना-सा भी परिवर्तन एक आम मध्यमवर्गीय भारतीय की सोच में आ गया तो फ़िल्म सफल है.




फ़िल्म को पसंद कर रही है जनता 


लोगों ने अगर आपत्ति जताई या जिन चीजों को लेकर संशय व्यक्त किया गया था, उन बातों पर तो जब ओएमजी2 रिलीज हो गयी है, तो आज वे आवाजें बंद हो गयी हैं. इसमें भगवान को अशोभनीय तरीके से नहीं दिखाया गया है. वह वैसे भी भगवान के दूत हैं. तो, पहले जो धारणा रही हो, अभी क्या धारणा है, वह महत्वपूर्ण है.


जब एक संवेदनशील कहानी की रचना करते हैं, तो उसे रचने वाला अति संवेदनशील होता है, तभी वैसी कहानी रची जाती है. इसलिए, इसमें काम करने वाले जो भी निर्देशक-निर्माता थे, बल्कि पूरी क्रू, यानी फोटोग्राफर वगैरह से लेकर एडिटर तक ने सही काम किया है. ये बात समझनी बहुत जरूरी है और इसका श्रेय उन्हें बिल्कुल मिलना चाहिए, जिन्होंने इस किस्म के विषय को उठाने की कोशिश की. तो, सलाम सबसे पहले अक्षय कुमार को, फ़िल्म के निर्माता-निर्देशक को औऱ सबसे बढ़कर सलाम लेखक-निर्देशक अमित राय जी के लिए, जिन्होंने इस फ़िल्म की कल्पना की, कहानी में संतुलन बनाया, ताकि संवेदनशीलता बनी रहे, लोगों को मैसेज भी जाए और जो संदेश है, वह मनोरंजनपूर्ण ढंग से जाए. यही काम हम सबने भी अपनी तरफ से बेस्ट देकर किया.



हमें इस बात का हर्ष है कि लोगों ने इस बात को, इस फ़िल्म को पसंद किया है. लोग आज उस विषय पर बात करने लगे हैं, जिस पर पहले कभी बात भी नहीं करते थे. हमारी कोशिश इस मामले में सफल रही है.


ऐसी फ़िल्में जरूर बननी चाहिए. ऐसी फ़िल्मों का जब विरोध होता है, तो जो क्रिएटिव व्यक्ति है, वह थोड़ा परेशान तो होता है, लेकिन इसके बावजूद वह रचनाकार जो संवेदनशील है, समाज को समझता है, वह कहानी निकालकर लाएगा ही और कहेगा ही.




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