नार्थ-साउथ के फ़िल्मी दुनिया के प्रिज्म से अगर आपको सांस्कृतिक और सिविक सेन्स का अंतर समझना हो तो, बस इतना भर देखिये कि परदे का पुष्पाराज असल जिन्दगी में गुटखे का विज्ञापन नहीं करता और अपने उत्तर में, कहना ही क्या. पुष्पा, आरआरआर, केजीएफ़ तो ऐसे ही है. बालीवुड की भ्रष्ट हो चुकी मति को दुरुस्त करना है, हिन्दुस्तान को समझना है, एक्टिंग किसे कहते हैं, संस्कृति पर गर्व क्या होता है, ये सब जानने-समझने में रुचि हो तो एक बार प्रयोग के तौर पर मलयालम की “ट्रांस”, देख लीजिये या धनुष की “असुरन” या फिर “कर्णन”. अमिताभ बच्चन को अगर महानायक समझते रहे है तो एक बार विक्रम की “पीथमगन” देखिये. 


क्षेत्रीय सिनेमा की दुर्दशा!  


तभी तो तमिलनाडू के उप-मुख्यमंत्री उदयानिधि मारन केरल kr एक साहित्य सभा में शान से कहते हैं कि क्या साउथ के अलावा भारत के किसी हिस्से के पास इतना वाइब्रेंट क्षेत्रीय सिनेमा है और वे खुद ही जवाब भी देते है कि नहीं. उनका मानना है कि हमारे यहां तमिल, मलयालम, तेलुगु और कन्नड़ स्वतंत्र है और उन्नत भी, जबकि पूरे नार्थ के पास एक अदद हिन्दी (बॉलीवुड). ओडिया हो या भोजपुरी सिनेमा, आज इसका क्या हाल है. भोजुपुरी का बाजार जरूर बड़ा है, लेकिन इसका कंटेंट? दक्षिण को एक साथ दो ऑस्कर मिला. आरआरआर के एक गीत और तमिलनाडु के जंगल पर आधारित "एलीफेंट व्हिस्परर" नामक डॉक्युमेंटरी को. दोनों फिल्मों की पृष्ठभूमि दक्षिण भारतीय. हमारे इधर पवन है, खेसारी है, पोदीना है, लहसुन है, धनिया है और अंग विशेष चटना देवर है. ठीक है, नाट्यशास्त्र में हर रस की महिमा है. लेकिन, आयुर्वेद भी कहता है, रसों का संतुलन आवश्यक है. लेकिन, भोजपुरी में एक ही रस और वह भी इतना अधिक कि सिर्फ मक्खियाँ ही भिनभिना सकती है. 

मानसिक दिवालिएपन का शिकार बॉलीवुड 


साउथ की फ़िल्में यूं ही नार्थ से बेहतर नहीं है. "जय भीम" का क्राफ्ट देखिये और तुलना कर के बताइये, इस वक्त कौन बॉलीवुड में ऐसी फ़िल्में बना रहा है. साउथ अपनी फिल्मों में अपने कल्चर, अपने रिचुअल्स को जिस खूबसूरती से दिखा देता है, उसके बरक्श बॉलीवुड में संजय लीला भंसाली बहुत खिसियाएंगे एक हवेलीनुमा घर के आंगन में बने बरगुनानुमा तालाब में एक हजार दीया जलवा देंगे. हो गया आर्ट. उधर, साउथ अपनी फिल्मों में अपने लोक देवता के उत्सव को ऐसे पेश करेगा कि करन जौहर कन्फ्यूजिया जाएगा, करवा चौथ को और कैसे मैग्नीफाई करें, लेकिन पैसे से स्टोरी मिल जाती तो बात ही क्या थी. बॉलीवुड के हीरो को लाखों का सूट सिलवाने से फुर्सत नहीं, उधर आधी लुंगी लपेटे एक्टर-डायरेक्टर ऋषभ शेट्टी सैकड़ों करोड़ कमाने वाली फिल्म कान्तारा बना जाते हैं. क्या ख़ास है आखिर इसमें. बस, मिट्टी की महक, जंगल से जुड़े जज्बात. हमारे जंगलों की हालत? इधर रोहित शेट्टी के पास ऐसी कोई कहानी ले कर जाएं, तो दुत्कार कर भगा देगा. क्योंकि उसे फिल्म बनाने के नाम पर हवा में गाड़ी उड़ाने के अलावा कुछ आता ही नहीं. उत्तर में बुजुर्गों का एक फॉर्मूला था. किसी के घर की आर्थिक स्थिति जाननी हो तो उसके यहां बनी खीर और हलवा खा कर देखो. बड़ा महीन फार्मूला है. कुछ हद तक सामंती सोच से लैस. फिर भी, है सटीक. उसी तरह, उत्तर और दक्षिण के बीच के फर्क को समझना है, तो इनकी फ़िल्में देख लें. 


तमस के बीच “मद्धिम” सी रोशनी 

इस बीच ज्ञानपीठ नवलेखन अवार्ड से सम्मानित युवा कथाकार विमल चन्द्र पाण्डेय ने एक साहसी काम किया है. उन्होंने भोजपुरी भाषा में पहली बार एक साईं-फाई (विज्ञान गल्प कथा) बनायी है. यह फिल्म इस वक्त (मूवीसेंट) नाम के वेबसाईट पर ऑन एयर है. इन पंक्तियों के लेखक ने जब इस फिल्म के लिए विमल चन्द्र पाण्डेय के साथ स्क्रिप्ट कंसल्टेंसी का काम किया तो अनुभव हुआ कि डायरेक्टर विमल कोई बड़ी लकीर खींचने जा रहे है, लेकिन इसी के साथ एक बड़ा रिस्क भी वे ले रहे हैं. हालांकि, फिल्म में अद्भुत प्रतिभाशाली कलाकारों का जमावडा है. गोपालगंज के पारितोष त्रिपाठी तो आजकल छाये ही हुए है. सीवान की ही अरुणा गिरी की प्रतिभा भी इस फिल्म से काफी निखर कर सामने आई है और ऐसा लगता है कि बॉलीवुड में उनका फ्यूचर काफी ब्राईट होने जा रहा है. निशांत जैसे कलाकार आखिर क्यों अब तक बॉलीवुडिया निर्देशकों या कास्टिंग डायरेक्टर की नज़रों में नहीं आ पाएं है, मुझे समझ नहीं आता. कमाल का अभिनेता है ये बंदा.  

फिल्म में प्रतिमा योगी का गाया हुआ एक बहुत ही शानदार गीत, जो आपको लॉलीपॉप, धनिया, पुदीना की दुनिया से अलग भोजपुरी संस्कृति की मिठास से रूबरू कराती है. भोजपुरी जैसी भाषा में इस वक्त एक नए नए फिल्मकार के लिए एक मनोरंजक फिल्म बनाना, लेकिन अश्लीलता और बेहूदगी की सीमाओं से बाहर रहते हुए, कितना कठिन होता है, इसका अंदाजा लगाना किसी के लिए भी नामुमकिन नहीं. फिर भी, वैभव मणि त्रिपाठी,क्षमा त्रिपाठी जैसे भोजपुरी प्रेमी लोग हो, विमलचंद्र पाण्डेय जैसे प्रतिभाशाली कहानीकार और निर्देशक हो, तो असंभव को संभव किया जा सकता है. यह “मद्धिम” से साबित हुआ है. विज्ञान की एक बहुत ही बारीक थ्योरी को एक मर्डर मिस्त्री में ढाल कर मात्र 45 मिनट में जिस तरह से विमल ने यह कहानी कही है, उससे तमाम भोजपुरी प्रेमियों के बीच एक “मद्धिम” सी रोशनी पैदा हुई है. वह इस बात की रोशनी है कि उदयनिधि मारन जिस दक्षिण के सिनेमा पर गर्व करते हुए उत्तर के क्षेत्रीय सिनेमा को कमतर बता रहे हैं, अब मद्धिम जैसी फ़िल्में बननी शुरू हो जाए, तो निश्चित ही भोजपुरी में वह क्षमता है कि यह न सिर्फ बॉलीवुड, बल्कि दक्षिण को भी टक्कर दे सकती है, बशर्ते, यह अपनी जड़, अपनी संस्कृति, अपनी मिट्टी की सुगंध को बरकरार रख पाए. जैसे कभी नदिया के पार या गंगा मैया तोहरे पियरी चढैबो जैसी फिल्मों ने देश भर में तहलका मचाया था. आज भोजपुरी के स्वघ्गोषित पावर स्टारों को “मद्धिम” से प्रेरणा लेनी होगी. अन्यथा, कुछेक साल धनिया-खेसारी-पोदीना बोने के बाद, वे कहां, जाएंगे पता तक न चलेगा.


भोजपुरी-मैथिली की मिठास हो, अंगिका और बज्जिका का तड़का हो, ठेठी भाषा की छौंक हो तो बिहार का एक अपना फ्लेवर सिनेमाई तौर पर विकसित होगा. बिहार में फिल्म सिटी के निर्माण और विकास की हम कई दशक से गाथा सुन रहे हैं. बिहार के पोटेंशियल पर हमेशा बात होती है, उसे जमीन पर उतारने की भी अब कवायद हो. 









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